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'मिर्ज्या' फिल्म 'फितूर' जैसी फिल्म का अगला संस्करण है । राकेश ओमप्रकाश जी महान प्रेम कहानी फिल्माना चाहते होंगे, पर जो बना है, वह बेहद पकाऊ और सिर दुखाऊ है। क्या उन्हें किसी डॉक्टर ने कहा था कि 2 घंटे 10 मिनट की फिल्म में 15 गाने ठूंस देना?ढोल कितना भी पीटो, अंदर से पोल ही है. अब सांवरिया या फितूर जैसी फिल्मों की तरह इसे भी झेलना आसान नहीं.

दावा है कि 'मिर्ज्या' फिल्म बनी है 'मिर्ज़ा साहिबां' के जीवन पर आधारित. हमें नहीं पता कौन थे, पर लोग कहते हैं मिर्ज़ा साहिबां पंजाब के लैला-मजनूं थे; लेकिन इस फिल्म में पंजाब से ज्यादा राजस्थान दिखाया गया है। राजस्थान में जोधपुर, उदयपुर, जैसलमेर, फतेहगढ़, थुलिया, राणाऊ आदि देखकर लगता है कि फिल्म का नाम 'कुछ दिन तो गुजारो राजस्थान में' होना चाहिये था।

राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने इस फिल्म में अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर, सैयमी खेर, अनुज चौधरी, अनीता पाटील को लांच किया है. आम तौर पर नए हीरो और नई हीरोइन को लेकर बनी लव स्टोरी की फिल्म सफल हो जाती है जैसे हीरो, लव स्टोरी, बेताब, मैंने प्यार किया, दीवाना...आदि. लेकिन अब दूनिया काफी बदल चुकी है. अभिषेक-करीना की रिफ्यूजी और बॉबी देओल की बरसात फ्लॉप रहीं थीं। यह फिल्म भी रिफ्यूजी और बरसात की राह पर जाएगी। 'फितूर' टाइप हाल होगा इसका।

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मार्केटिंग, पब्लिसिटी, पेड रिव्यू, प्रायोजक अखबार और न्यूज़पेपर माहौल बना सकते हैं, सभी दर्शक को प्रभावित नहीं कर सकते। हर्षवर्धन कपूर भी अर्जुन कपूर के चचेरे भाई ही है, उसी गति को प्राप्त हो सकते हैं। घुड़सवारी और घोड़े अच्छे लगते हैं, पर यार, ये तो पुराने ज़माने की बात हो गई। आज के दौर में घोड़े कौन अफॉर्ड कर सकता है? बाइक से ही काम चला रहे हैं युवा. पोलिश सिनेमाटोग्राफर पॉवेल डायलूस और आस्ट्रेलियाई एक्शन डायरेक्टर डैनी बाल्डविन क्या कर लेंगे, अगर कहानी की आत्मा का ही राशन कार्ड बनाने लगोगे। माफ़ करना गुलज़ार साहब. हर्षवर्धन एक्टिंग सीखने के बहाने साल भर यूएसए रह आया, सैयमी ने घुड़सवारी सीखने में मेहनत की. अच्छा किया। अब मुम्बई में घोड़ा दौड़ा। एक्टिंग सीख अम्माँ, एक्टिंग. खाली पीठ दिखाने से एक्टिंग नहीं हो जाती।

कुल मिलाकर यह बहुप्रचारित फिल्म झेलनीय नहीं है। दृश्यों का बार-बार का दोहराव, चीख-पुकार के गाने, हीरो का एक सा लुक और ऊपर से आकाशवाणी के धीमी गति के समाचार जैसी यह फिल्म देखने गया तो सिनेमा हॉल की गद्देदार कुर्सी गर्म तवे के मानिंद लगी। अब प्यार मोहब्बत की पुराने दौर की फिल्में कौन देखना चाहेगा? दर्शकों की रुचियाँ बदल गई हैं, उनके पास मनोरंजन के विकल्प भी हैं। यह बात हर निर्माता निदेशक को समझ लेनी चाहिए। यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है।

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