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में शायरी का चलन बहुत लोकप्रिय है। यह उर्दू कविता का एक रूप है। भारत और पाकिस्तान में हज़ारों लोकप्रिय शायर हुए हैं। ग़ज़ल अरबी साहित्य की विधा थी, लेकिन उसे फारसी, उर्दू, हिन्दी और नेपाली ने भी अपना लिया। ग़ज़ल एक ही बहर और वज़न के अनुसार लिखे गए शेरों का समूह है।

ग़ज़ल के पहले शेर को मतला कहते हैं और अंतिम शेर को मक़्ता। ग़ज़ल जिस धुन या तर्ज़ पर होती है उसे बहर कहा जाता है और आखिरी शेर मक़्ता कहलाता है। शेर के बहुवचन को अशआर कहते हैं। मक़्ते में सामान्यतः शायर अपना नाम जोड़ देता है ग़ज़ल में शेर एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। कभी-कभी एक से अधिक शेर मिलकर अर्थ देते हैं। ऐसे शेर कता बंद कहलाते हैं।

जीवन का कोई भी पहलू शायरी से छूटा नहीं है। कविता और शेर-ओ-शायरी में कोई ऐसा विचार नहीं है, जो पहले किसी और के मन में नहीं आया हो। कई बार शायरों की बातें शब्दश: एक होती हैं, लेकिन उसका मतलब अलग-अलग होता है।

हिन्दी के प्रसिद्ध कवि #देवमणि_पांडेय ने लिखा है कि ग़ज़ल दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती है। बतौर शायर आप भले ही दावा करें कि आपने नई ज़मीन ईजाद की है, मगर सच यही है कि आप दूसरों की ज़मीन पर ही शायरी की फ़सल उगाते हैं। कोई ऐसा क़ाफ़िया, रदीफ़ या बहर बाक़ी नहीं है जिसका इस्तेमाल शायरी में न हुआ हो। कोई-कोई ज़मीन तो ऐसी है, जिसका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो चुका है और लगातार होता रहेगा। सैकड़ों साल से काव्य सृजन हो रहा है और हो सकता है कि अनेक लोगों के मन में एक ही विचार एक साथ उपजा हो। यह भी संभव है कि अनेक कवि या शायर किसी एक विचार से प्रेरित हों। ऐसे में कई मज़ेदार संयोग बन जाते हैं, जब दशकों बाद वे ही पंक्तियां घूम-फिरकर नए कलेवर में सामने आ जाती हैं।

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प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी #रामप्रसाद_बिस्मिल बेहतरीन शायर थे और वे हमेशा गुनगुनाया करते थे - सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू--ए-क़ातिल में है। वास्तव में इसके रचयिता रामप्रसाद 'बिस्मिल' नहीं, बल्कि #बिस्मिल_अजीमाबादी हैं, जो पटना में रहते थे और यह पहली बार दिल्ली की पत्रिका सबाह में छपी थी। अजीमाबादी का निधन 20 जून 1978 को पटना में हुआ था। अनेक वेबसाइट पर इस प्रसिद्ध ग़ज़ल के रचनाकार के रूप में रामप्रसाद बिस्मिल का नाम ही है।

राम प्रसाद #बिस्मिल की ही ग़ज़ल के दो मशहूर शेर हैं -

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए
खंजर को अपने ओर ज़रा तान लीजिए
बेशक़ न मानिएगा किसी दूसरे की बात
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए।
अब आप फ़िल्म उमराव जान (1981) में ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर #शहरयार की ग़ज़ल का मतला देखिए -

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए।

यानी रामप्रसाद 'बिस्मिल' की ग़ज़ल के दोनों शेरों के बीच की दो लाइन हटा दीजिए तो वह उमराव जान में यथावत ले लिया गया है।


एक शायर हुए थे - #मोमिन खां 'मोमिन' । (जन्म 1800, निधन 1851 )। मोमिन साहब लिख गए थे -
असर उसको ज़रा नहीं होता। रंज राहत-फिज़ा नहीं होता।।
तुम मेरे पास होते हो गोया। जब कोई दूसरा नहीं होता।।
सन् 1966 में आई थी फिल्म लव-इन-टोक्यो। इसमें #हसरत_जयपुरी ने गाना लिखा -
ओ मेरे शाह-ए-खूबाँ, ओ मेरी जान-ए-जनाना
तुम मेरे पास होते हो, कोई दूसरा नहीं होता।

मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी '#सौदा' का जन्म 1713 में हुआ था। वे मीर के समकालीन थे इसलिए इनकी तुलना भी अक्सर मीर से होती है। मीर जहां ग़ज़लों के लिए आधुनिक उर्दू के उस्ताद माने गए हैं, सौदा को ग़ज़लों में वो स्थान नहीं मिल पाया। उनकी एक ग़ज़ल का मतला देखिए : #DrPrakashHindustani

फ़िक़्रे मआश, इश्क़े बुताँ, यादे रफ़्तगाँ
इस ज़िंदगी में अब कोई क्या-क्या किया करे।
#सौदा की ग़ज़ल के मतले की पहली लाइन का अर्थ है फ़िक़्रे मआश यानी आजीविका की परवाह, इश्क़े बुताँ का मतलब है बुतों से मुहब्बत और यादे रफ़्तगाँ के मानी हैं गुज़रे वक़्त या लोगों की याद करना। सौदा के जन्म के 204 साल बाद जन्मे #क़ैफ़_भोपाली की एक ग़ज़ल के पहले मतले की पहली लाइन भी बिल्कुल वही है-

फ़िक़्रे मआश, इश्क़े बुताँ, यादे रफ़्तगाँ
शराब इस लिहाज से तो कम है दोस्तो।

2010 में जब #गुलज़ार की फ़िल्म 'इश्कियां' आई और उसका गाना ‘इब्न बतूता, बगल में जूता, पहने तो करता है चुर्र’ बजने लगा, तब कई लोगों ने कहा कि यह तो #सर्वेश्वरदयाल_सक्सेना द्वारा बच्चों के लिए लिखे बाल गीत का नया रूप है। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का निधन हुआ था 1983 में और इश्कियां आई 2010 में। किसने, किसकी नकल की, कहा नहीं जा सकता, लेकिन गुलज़ार ने इस बारे में कभी अपनी कोई टिप्पणी नहीं की।

आप खुद ही देखिए, दोनों रचनाओं में मोरक्को से आए #इब्न_बतूता (पूरा नाम मुहम्मद बिन अब्दुल्ला इब्न बतूता) का ज़िक्र था, जिसने करीब सवा लाख किलोमीटर की यात्रा की थी और वह भी चौदहवीं सदी में। मक्का- मदीना, चीन, भारत, मालदीव तक की यात्रा की थी। गुलज़ार ने लिखा था-
इब्न-बतूता बगल में जूता
पहने तो करता है चर्र
उड़ उड़ आवे, आ आ दाना चुगे आ आ
उड़ जावे चिड़िया फ़ुर्र !

#सर्वेश्वरदयाल_सक्सेना ने लिखा था -
इब्न बतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्न बतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता।

कथायात्रा के 1978 के अंक में एक गज़लकार #दिनेशकुमार_शुक्ल ने अपनी पूरी ग़ज़ल के बीच यह शेर लिखा था-

मेरी कुटिया के मुकाबिल आठ मंजि़ल का मकां,
तुम मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाओगे !

पच्चीस साल बाद #जावेद_अख्तर की किताब 'तरकश' में यह शेर था -

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए !

पद्मश्री से सम्मानित शायर #बशीर_बद्र की पहचान जिन चुनिंदा अशआर से है, उनमें यह शेर बहुत मशहूर है -

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।

लखनऊ में एक शायर हुए रामपाल '#अर्शी' उर्फ़ 'अर्शी' लखनवी। करीब सौ साल पहले। मुशायरों में उनका एक शेर काफ़ी मशहूर हुआ था–

कफ़न दाबे बगल में घर से निकला हूँ मैं ऐ अर्सी
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।

#क़ैफ़ी_आज़मी की एक मशहूर ग़ज़ल है -

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ मिल भी जाए
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता।

सन् 1981 में आई आहिस्ता-आहिस्ता फिल्म में #निदा_फ़ाज़ली ने उसे कुछ इस तरह लिखा-

‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
कभी ज़मीन, तो कभी आसमां नहीं मिलता।

भूपेन्दर सिंह ने इसे आवाज दी थी, जिसे लोगों ने इतना पसंद किया कि लोग क़ैफ़ी साहब की ग़ज़ल भूल गए।

#मीर तकी 'मीर ' का जन्म 1723 में हुआ था और #ग़ालिब का 1797 में। दोनों में तीन पीढ़ियों का अंतर रहा होगा, लेकिन दोनों का मिजाज़ देखिए - #मीर ने लिखा था-

होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा
देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा।

मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ '#ग़ालिब' ने भी लगभग यही बात इस अंदाज़ में कही थी -
बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे। #DrPrakash_Hindustani

किसी ने एक बार गीतकार #प्रदीप से पूछा कि उन्होंने ‘चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला’ किसकी प्रेरणा से लिखा है? उन्होंने कहा कि गुरुदेव #रवीन्द्रनाथ_टैगोर के बांग्ला गीत ‘एकला चालो, एकला चालो रे’ से प्रभावित होकर।

#अमजद_नज्मी का एक शेर है -
मुहब्बत का दरिया, जवानी की लहरें
यहीं डूब जाने को जी चाहता है।

और अब #जिगर_मुरादाबादी का यह शेर देखिए-

हसीं तेरी आँखें, हसीं तेरे आंसूं
यहीं डूब जाने को जी चाहता है।
अब ग़ालिब और अदम के दो शेर देखिए-
ग़ालिब ने लिखा था -
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी खबर नहीं आती।
और #अदम ने यही बात कुछ इस तरह कही-
कुछ तुम्हारा पता नहीं चलता
कुछ हमारी खबर नहीं आती।

कई बार मंच पर ही कविताएं बन जाती हैं। एक शायर के शेर के साथ दूसरा शायर कुछ ऐसी बात कह देता है कि श्रोता वाह-वाह करने लगते हैं और शायर मंच पर वाहवाही लूट ले जाते हैं। कभी-कभी दो शायर एक-दूसरे की मौजूदगी में एक ही ज़मीन में एक जैसा नज़र आने वाले शेर पढ़ते हैं। सामयीन ऐसी शायरी का बड़ा लुत्फ़ उठाते हैं। शायर #मुनव्वर_राणा का एक शेर मुंबई के एक मंच पर सामने आया -

उन घरों में जहां मिट्टी के घड़े रहते हैं
क़द में छोटे हैं मगर लोग बड़े रहते हैं।

डॉ. #राहत_इंदौरी भी मंच पर थे और उन्होंने अपने निराले अंदाज़ में अपना परचम इस तरह लहराया-

ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते हैं
मुंबई में मुशायरे के मंच पर सबसे पहले #हसन_कमाल ने ये कलाम सुनाया-

ग़ुरूर टूट गया है, ग़ुमान बाक़ी है
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है

इसके बाद डॉ. #राहत इंदौरी ने सुनाया-

वो बेवकूफ़ ज़मीं बांटकर बहुत ख़ुश है
उसे कहो कि अभी आसमान बाक़ी है।

उसके बाद #राजेश_रेड्डी के तरन्नुम ने कमाल दिखाया –

जितनी बँटनी थी बँट गई ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है।


साहित्यकार #देवमणि_पांडेय भले ही यह कहें कि शायरी किसी दूसरे की ज़मीन पर उगाई गई फसल है, लेकिन हिन्दी-उर्दू के ही कवि-शायर #नरेन्द्र_शर्मा का कहना है कि भले ही शायरों की

ग़ज़ल के मतले की लाइन मिलती हो, शायरी में हर बात का अर्थ जुदा-जुदा होता है। भले ही ज़मीन एक हो लेकिन #शायरी की खेती और उसकी तासीर अलग-अलग होती है। एक ही ज़मीन पर दो शायरों की फसल के अंदाज़ और भाव मुख़्तलिफ़ होते हैं। इसलिए #देवमणि_पांडेय की बातों से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखा जा सकता। हर #ग़ज़ल, हर कविता अपने आप में विलक्षण होती है। इसे मान लेना चाहिए।

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