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baba

बात पुरानी है। सिंहस्थ के प्रभारी मंत्री ने कहा कि उज्जैन में व्यवस्था का जायजा लेने साथ-साथ चलेंगे। मुझे लगा कि अच्छा मौका है, सो चला गया। सोचा हींग-फिटकरी नहीं लग रही है, चलो ! अस्थायी सिंहस्थ नगरी देख लेंगे ! 

सबसे पहले हम एक आश्रम में गए। महामण्डलेश्वर अभी पधारे नहीं थे, लेकिन उनके स्टॉफ के लोग मौजूद थे। दो हाथी बंधे थे, जिन्हें संभालने के लिए वन विभाग के कर्मचारी तैनात थे। घोड़े भी थे। सेवक ने महामण्डलेश्वर के लिए बनी एसी ‘कुटिया’ बनाई गई थी, चमाचम। जिसमें आधुनिक शौचालय था, बाथटब भी लगा था। कार्पेट बिछा था। मंत्रीजी से महामण्डलेश्वर के ‘पीए’ ने शिकायत की - आश्रम के लिए जो प्लॉट मिला है, वह मुख्य सड़क से दो सौ मीटर अंदर है। यह ठीक नहीं। यह अपमान है।

हम एक दूसरे आश्रम की ओर बढ़े। मूर्ति, प्रतीकचिह्न, ध्वज और शस्त्रों के दर्शन हुए। स्वागत गोरी विदेशी युवतियों ने किया, जो स्वामीजी की शिष्याएं थी। वे टूटी-फूटी हिन्दी के अलावा अंग्रेजी, फ्रैंच, जर्मन और स्पेनिस में भी बातें कर रही थी। वे युवतियां आचार्यश्री के निजी स्टॉफ भी थी और सिंहस्थ के लिए आई थी। आचार्यश्री से उनका परिचय बहुत पुराना नहीं था, लेकिन वे सिंहस्थ को देखने और भारतीय दर्शन को समझने के लिए आई थी, संयोग से उन्हें आचार्य जी के यहां ‘टेम्परेरी असाइमेंट’ मिल गया। मैंने पूछने की कोशिश की कि महीनेभर का कितना पारिश्रमिक तय हुआ है। उन्होंने मोहक मुस्कान के साथ ऐसी भंगिमा बनाई, मानो वे मेरा सवाल समझने में सक्षम नहीं है। मंत्रीजी से वे व्यवस्था के संबंध में बात करती रही और आचार्यजी के प्रोग्राम की डिटेल्स शेयर करती रही।
इसके बाद हम गोल्डन बाबा के यहां गए। लंबी कतार थी। लंबे इंतजार के बाद हम दर्शन को पहुंचे। काले कपड़ों में मुश्टण्टे बाउंसर भी थे। गोल्डन बाबा करीब 11 किलो सोने के जेवर पहने हुए थे। नाक में, कान में, गले में, बाजू में, कलाई में, कमर में, पैर में - ऐसे लगा मानो वे कोई संत नहीं, बल्कि सोने की दुकान हो। बताया कि यह सब भक्तों का दिया हुआ है। महिलाओं की भीड़ बता रही थी कि वे बाबा के कम और बाबा के जेवरों के दर्शन करने को ज्यादा व्याकुल थी।

उसके बाद हम एक ऐसे बाबा के आश्रम में गए, जो नए-नए महामण्डलेश्वर बने थे। बताया गया कि इन बाबा का दिमाग कम्प्यूटर की तरह तेज चलता है। उनके हाथ में मैकबुक-प्रो था और सामने तीन-तीन आईफोन। उनके हाथ में रोलेक्स की महंगी खड़ी थी। सामने मृगछाल बिछी थी। दीवाननुमा सिंहासन पर वे लंबवत बैठे थे। मंत्रीजी के आते ही उन्होंने शिकायत की कि इतनी देर से क्यों आए हो? मुख्यमंत्री कब आएंगे? प्रधानमंत्री सिंहस्थ में किस दिन आएंगे ? उनको आश्रम बुलाना है।

हमारा अगला पड़ाव एक ऐसे आश्रम में था, जिसके बाहर रोल्स रॉयल्स कार खड़ी थी। दूसरी महंगी कारें भी थी। आश्रम क्या था, किला था किला! झंडे-डंडे, मूर्तियों की प्रतिकृतियां, सामने बड़े-बड़े से एलीडी में ‘भगवान’ के प्रवचन, निजी अन्य शाला, कांफ्रेंस कक्ष, विश्राम कक्ष आदि बने थे। वहां पहुंचने पर पता चला कि महाराजश्री अभी विदेश में हैं। और दो या तीन दिन में ही उनका भारत आगमन होगा। उनके स्वागत में निकट के एयरपोर्ट से लेकर अस्थायी आश्रम तक जगह-जगह स्वागत द्वार बनाए जा रहे है। वीआईपी लोगों की सूची बनाई जा रही है, जिन्हें आश्रम में आमंत्रित किया जाएगा और संतश्री स्वयं उन्हें आशीर्वाद देंगे। संतश्री के लिए चांदी का रथ भी मंगवाया गया है, जिसमें वे सवारी निकालेंगे। भक्तों ने हमें प्रसाद के रूप में सूखे मेवे और मिठाई भी खाने के लिए दी। बिस्लेरी का पानी भी पिलवाया।

शाम हो चली थी, मैंने मंत्रीजी से कहा कि अब मैं थक गया हूं और दूसरे आश्रमों में जाने की इच्छा नहीं है। मुझे वापस अपने घर जाना है। उन्होंने कहा कैसे जाओगे? मैं कार बुलवा दूं क्या? मैंने कहा- नहीं, बस से चला जाऊंगा। आप तो मुझे नानाखेड़ा बस अड्डे छुड़वा दो। मेरा आग्रह मान लिया गया।

आधे घंटे बाद मैं नानाखेड़ा बस अड्डे पर था। सिंहस्थ के चलते काफी लंबी कतारें टिकिट के लिए थी। ग्रामीण इलाकों के भी सैकड़ों लोग वहां मौजूद थे, जो अपनी श्रद्धा और सेवा व्यक्त करने उज्जैन आए थे। बस स्टैण्ड की दुकानों पर खासी चहल-पहल थी। कही चाय सुड़की जा रही थी, तो कही आलूबड़े तले जा रहे थे। कही कचौरी, तो कही पोहे। कही गुलाब जामुन, तो कही जलेबी। ऐसा लगा मानो वहां मौजूद लोगों में एक बड़े वर्ग का जीने का लक्ष्य ही खाना पीना है। सभी के चेहरे पर अजब सा संतोष और शांति का भाव। कोई तनाव नहीं, कोई चिन्ता की लकीरें नहीं। कई महिलाएं छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लिए वाहन का इंतजार कर रही थी। कही रिक्शे वाले ठहाके लगा रहे थे। कही कुल्फी और बर्फ के गोले बिक रहे थे। कुछ लोग सिगरेट और गुटखे में ही प्रसन्न नजर आ रहे थे। कुछ लोगों के चेहरे देखकर लग रहा था कि ये शिवजी की बुटी ग्रहण किए हुए है और मस्त अंदाज में बैठे है। एक कोने में बैठा परिवार जमीन पर अखबार बिछाकर पूड़ी-भाजी और अचार का मजा ले रहा था। वहां आने वाले यात्रियों को ले जाने के लिए नगर सेवा के वाहन - टेम्पो आ-जा रहे थे। लोग उनमें चढ़ और उतर भी रहे थे। भारी गहमा-गहमी थी, लेकिन तनाव रहित।

मैं सोचने लगा कि इतने आश्रमों में घूम आया, जहां धर्मगुरुओं के पास हाथी, घोड़े, सिंहासन, एसी, पालकियां, लेपटॉप, आईफोन, मंत्रियों और नेताओं की पूछ-परख, भारी दान-दक्षिणा और ऐश्वर्य तथा विलासिता की हर चीज़, मौजूद थी, लेकिन फिर भी साधु -संतों और उनके चेलों को भौतिक वस्तु की चाह बरकरार थी। उन्हें यह भ्रम था कि उनके आने से सिंहस्थ हो रहा है, जबकि लोगों के लिए वे केवल अजूबे या आइटम सांग की तरह थे। सिंहस्थ अगर है तो यहाँ आनेवाले भक्तों की वजह से, जो महाकाल दर्शन और क्षिप्रा स्नान की आस लिए आये थे, जो है, उसी में संतुष्ट! जो किसी तरह उज्जैन पहुंचें में सफल हुए। कइयों के पास तो इस बात की भी गारंटी नहीं है कि वे कल क्या खाएंगे? लेकिन फिर भी उनके चेहरे पर संतोष है और वहां उन महात्माओं के चेहरे पर अहंकार, पावर और विलासिता की चाह, वर्चस्व की लड़ाई और दिखावा ही दिखावा! जो लोग सिंहस्थ में उन कथित साधु-महात्माओं के दर्शन करने आते है, वे वहां आने वाले आम नागरिकों के दर्शन करें और अपनी तीर्थयात्रा को सार्थक बनाएं। वे उसी में खुश है और संतुष्ट भी।

यह नहीं कहता कि अच्छे साधु -संत नहीं हैं। हैं, वे भी बहुतेरे हैं, पर वे ऐसे नहीं हैं!मुझे महसूस हुआ कि आत्मिक शांति के लिए बाबाओं के आश्रम में जाने से बेहतर है अपने भीतर झांकना और आम आदमी के दर्शन करना।
यही है असली आनंद मंत्रालय।

09.12.2018

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