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आनंद मंत्रालय (3)

box office

कई ऐसे लोग आपको वक्त आने पर पहचानते नहीं, जिनके जीवन में आपने कभी बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई होगी और कई ऐसे लोग भी मिलते है, जिनसे आप दो मिनट भी नहीं मिलते, लेकिन वे आपको पहचानते है।

वे मुझे उस दिन एयरपोर्ट मिले। बहुत व्यस्त थे। मुझे देखते हुए निकल गए। मैंने आवाज दी - मुकेश जी। वो मुड़े, घूरते हुए मुझे देखने लगे और बोले आप कौन?

मैंने कहा - पहचाना नहीं क्या? मैं वही हूं, जिसके पास तुम गर्दिश के दिनों में मुम्बई में आया करते थे। तुम्हारे कहने पर अपने बॉस से मैंने रुईया जी को फोन लगवाया था। उसके बाद तुम्हें मैंनेजमेंट ट्रेनी का जॉब मिला था।

ओह। हां, शायद ऐसा ही कुछ हुआ था। आपका नाम भूल रहा हूं।

अब नाम याद रखकर क्या करोगे? अब न तो मुझे तुमसे कोई काम है और न तुम्हें मुझसे।

ऐसा ही एक वाकिया दिल्ली के सीपी एरिया में हुआ। मैं कैफे में बैठा था। सामने दो लड़का-लड़की गलबहियां कर रहे थे। मुझे उनकी शकल पहचानती से लगी। फिर याद आया कि अरे, यह तो वही लड़का है, जो असिस्टेंड कैमरामेन के रूप में न्यूज चैनल में काम करता था। मेरी सिफारिश पर ही उसकी नौकरी पक्की हुई थी और अब पूर्णकालिक कैमरामेन के रूप में काम कर रहा है। कई बार रिपोर्टर पीटूसी में उसका नाम भी लेता है। मेरी इच्छा हुई की उसे हैलो कह दूं कि फिर लगा कहीं ऐसा न हो कि वह लड़की इसे अन्यथा में ले ले। आधे घंटे वे दोनों मेरे सामने रहे और अजनबी बनकर रहे।

उन दिनों मैं मुम्बई में नवभारत टाइम्स में कला स्तम्भ लिखता था। पूरा दिन यहां-वहां नए-नए लोगों से मिलने में जाता था। हाल ही में मुम्बई गया, तो जहांगीर में उसकी पेंटिंग एग्जीबिशन लगी हुई थी। मैंने सोचा कि उससे मिला जाए और प्रदर्शनी भी देखी जाए। प्रदर्शनी के बाद मैं उत्साह से उससे मिलने गया और बधाई देते हुए कहा कि करीब दो दशक पहले उसकी पहली एग्जीबिशन की समीक्षा मैंने लिखी थी, करीब 4 कॉलम की। पांच फोटो भी छापे थे। उसके बाद आप मुझसे मिलने मेरे दफ्तर भी आए थे। आज इतने बड़े कलाकार के रूप में आपको देखकर बहुत खुशी हुई। उसने मुझे ऊपर से नीचे देखा और हिकारत से कहा - कांट रिमेम्बर।

दो साल पहले पुणे जाना हुआ। वहां मेरे बरसों पुराने दोस्त रहते हैं। उनका फोन नंबर मेरे पास नहीं था, तो मैं सीधा उनके घर चला गया। कॉल बेल दबाई, तो 18-19 साल की एक लड़की ने दरवाजा खोला। उसे देखते ही मैंने कहा - निधि?

वह बोली - हू ऑर यू।

मैंने कहा - प्रकाश अंकल। पालकर साहब है?

डैड इज आउट विथ मॉम।

कॉल हिम एंड इंफॉर्म प्रकाश अंकल इज हियर।

मुझे दरवाजे के बाहर खड़ा करके उसने दरवाजा बंद कर लिया और अंदर जाकर कॉल करने लगी। 3-4 मिनिट बाद बाहर आई और बोली - ही इज नॉट रिमेम्बरिंग यू। सॉरी।

मैंने उसे याद दिलाने की कोशिश की कि पापा से कहे कि वे प्रकाश अंकल आए है, जिन्होंने घंटों बॉम्बे हॉस्पिटल में उस छोटी-सी बीमार बेटी की देखभाल में लगाए थे, जो अब बड़ी हो गई है और सामने खड़ी है। उसने मुंह बिचकाया और बगैर कुछ किए दरवाजा भड़ाक से बंद कर दिया।

1983 की बात होगी। वह न्यू बॉम्बे में मेरे आर्टिस्ट विलेज वाले कॉटेज में किरायेदार था। अकेला रहता था। हर महीने 5 तारीख को किराया देने आ जाता। उसके किराये के बावजूद मैं हाउसिंग लोन की किश्त चुकाने में असमर्थ था। मैंने सोचा कि उस कॉटेज को बेच दिया जाए। मैंने उससे कहा कि कॉटेज बेचना चाहता हूं, कोई और व्यवस्था कर लो।

उसने कहा कि अगर आप 3 किश्तों में कीमत लेने को तैयार हो, तो मैं ही उसे लेना चाहूंगा। मैंने कहा ठीक है। कीमत तय हुई डेढ़ लाख। डील पक्की हो गई। उसने एक किश्त दी और आग्रह किया कि मैं रजिस्ट्री करा दूं, ताकि वह लोन लेकर मुझे बाकी पैसे दे सके। उसकी भलमनसाहत देखकर मैंने रजिस्ट्री करवा दी। वह लोन के लिए चक्कर काटने लगा। कुछ महीनों बाद उसने आकर 10 हजार रुपए दिए और कहा कि मैंने शादी कर ली है, अब पैसे ही नहीं बचते। 5-5 हजार रुपए करके बचे हुए पैसे दे पाऊंगा। मैंने उसे शादी की बधाई दी और कहा कि मेरी नहीं हुई है, तुम्हारी हो गई, अच्छा है। चुका देना पैसे। फिर उसने कुछ किश्तें चुकाई और संपर्क तोड़ लिया। मैं भी मुम्बई छोड़कर इंदौर आ गया।

बरसों बाद न्यू बॉम्बे जाना हुआ। अब वह कॉटेज लाखों से करोड़ों की हो गई। सोचा, उससे मिला जाए और अपने पुराने कॉटेज को भी देखा जाए। वहां पहुंचा, तो उसकी नेम प्लेट लगी थी। मैंने मिलना चाहा, वह सामने आया, लेकिन उसने मुझे पहचाना नहीं। मैंने उसे सारी बातें याद दिलाने की कोशिश की, तो बोला - बोर मत करो, गेट लॉस्ट।

फिल्में देखने के शौक के कारण मैं हर शुक्रवार को पहला दिन पहला शो देखने जाता ही हूं। अपने घर के करीब के मल्टीप्लेक्स में मुझे सुविधा होती है। उस दिन में टिकट लेने पहुंचा, तो बॉक्स ऑफिस में बैठी उस लड़की ने कहा - सर आपका नाम क्या है?

मैंने कहा - क्या सिनेमा टिकट के लिए नाम बताना भी जरूरी हो गया है? अब आप फोन नंबर भी नोट करेंगी और पब्लिसिटी के कॉल करने लगेंगी।

वह मुस्कुराई। बोली - आप ऐसे शख्स है, जो हर शुक्रवार पहला दिन, पहला शो देखने आते है। युवाओं की भीड़ में आप ही सबसे अलग नजर आते है। टिकट के अलावा कभी भी कॉम्बो पैक नहीं खरीदते। हमेशा कहते है पीछे से जो भी रो खाली हो, उसमें सेंटर कार्नर की सीट दे दीजिए। कभी भी बीच की सीट टिकट आप नहीं लेते, भले ही आगे से तीसरी रो में क्यों न बैठना पड़े। हम सबको यहां पहले दिन पहला शो में आपके आने की उत्सुकता रहती है।

अब मैं आश्चर्यचकित था। जिन लोगों से मैं सप्ताह में 30 सेकंड भी नहीं मिलता होऊंगा। उन्हें मैं याद हूं और जिनके लिए मैंने शायद बहुत कुछ किया, उनके लिए अनजान।

डेट इज लाइफ!

यही है आनंद मंत्रालय।

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