लोग कहते हैं कि इंदौर तो मुम्बई का बच्चा है, लेकिन अब यह उससे भी अधिक होते जा रहा है। यानी बच्चा अब बाप होते जा रहा है और जब बच्चा बाप हो जाता है, तो बाप अपने आप ही दादा बन जाता है। बच्चे को बाप बनने के लिए श्रम करना पड़ता है, पर बाप को दादा बनने के लिए कुछ नहीं करना होता। आबादी के मान से इंदौर, मुंबई के दशांश के बराबर होगा, लेकिन वहां की कार्य संस्कृति शतांश भी नहीं अपना पाया है। उसी देश का हिस्सा होते हुए भी वहां के लोगों में ईमानदारी, जुझारूपन और काम के प्रति जो निष्ठा देखने को मिलती है, वह अन्यत्र नहीं मिलती। अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पण और अन्य के प्रति निर्पेक्ष भाव वहां की खूबी है, लेकिन वहां प्रतिभा का अपमान भी सहन नहीं होता और यहां हम पानी की टंकी में सड़ी लाश का पानी भी चुपचाप भी लेते हैं।
वहां अखबारों में जन-शिकायतों की छोटी-सी खबर छपती है, तो अगले दिन वह समस्या समाप्त हो जाती है। वहां महिला और पुरुष को समान समझा जाता है और अपवादों को छोड़ दें तो वहां के सिनेमाघरों, रेलवे स्टेशनों और बस स्टॉप पर महिलाओं व पुरुषों की एक ही कतार होती है। वहां की बसों में करोड़पति लोग भी ससम्मान यात्रा करते हैं और यहां के सार्वजनिक वाहनों की दशा ऐसी है कि मजबूरी हो तो भी उसका उपयोग टालने की कोशिश करनी पड़ती है। सीएसटी से नरीमन प्वाइंट जाने वाले कुछ बसों में अब वंâडक्टर भी नहीं होते। यहां ऐसा हो तो?
दो-चार छोटी-मोटी बातों को छोड़ दें, तो हमारे पास गर्व करने लायक कुछ विशेष नहीं। इंदौर और आसपास का क्षेत्र बिहार से अच्छा है। पर क्या हम बाहर के लोगों को बताते हैं कि हमारे यहां के कॉलेजों में एक-कक्षा में दो-दो सौ तक विद्यार्थी होते हैं? कक्षा में अनुपस्थित रहना और नकल करना शान समझी जाती है? पांच-पांच साल तक एक भी पीरियड न पढ़ाने वाले अध्यापकों को भी आदर्श शिक्षक का मान मिलता है? हमारे यहां का कोई प्रॉडक्ट विश्व तो क्या, भारत में भी टॉप पर है? कोई राष्ट्रीय नेता हमने नहीं दिया। देश को मुम्बई आयकर और कार्पोरेट टैक्स के रूप में ३५,००० करोड़ हर साल देता है और पूरा मध्यप्रदेश ११५० करोड़ मात्र। टैक्स चोरों का स्वर्ग माना जाता है हमारा इंदौर। वित्तीय जगत में इसे नटोरियस मार्वेâट कहते हैं। यहां पर सरकारी और बैंकों का कर्ज न अदा करने की होड़ होती है।
कई बार लगता है कि नकल के मामले में बेचारा उल्साहनगर बेकार में ही बदनाम है। हम इंदौर वाले तो उससे कहीं आगे हैं। हम हमारी अर्थव्यवस्था को कृषि आधारित व्यवस्था करार देते हैं, लेकिन किसानों की हालत किससे छिपी है? यहां कोई भी सार्वजनिक कार्यक्रम वक्त पर शुरू नहीं होता। कोई विशिष्ट व्यक्ति समय पर कहीं भी पहुंचने में तौहीन समझता है। जिस शहर में लोग घड़ी को जेवर की तरह पहनते हों और उसके कांटों से नफरत करते हों। जहां के नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों और दादाओं का लक्ष्य एक हो, ऐसे शहर पर कोई कितना गर्व करें और करें तो वैâसे?
प्रकाश हिन्दुस्तानी
१ अगस्त १९९७