आजकल रेलवे के किराए में बढ़ोत्तरी के पक्ष में माहौल बनाने में लगे है। इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि रेल भाड़ा बढ़ रहा है और लोग उसके पक्ष में तर्वâ ढूंढ रहे है। यह कहा जा रहा है कि भाड़ा तो बढ़ जाने दीजिए। फिर देखिए रेलवे स्टेशन हवाई अड्डों की तरह जग-मग नजर आएंगे। रेल के डिब्बे में एयर होस्टेस से भी सुंदर-सुंदर परियां चाय बिस्कुट बाटेंगी। साफ-सफाई पूरी रहेगी। शौचालय में खुशबू महकेगी और धोने-पोछने की उत्तम व्यवस्था उपलब्ध रहेगी। यानि पानी के मग्गे में बंधी चेन लंबी होगी और पेपर नेप्कीन की जगह अखबारों का इस्तेमाल नहीं करना पड़ेगा।
अब जब हर कोई सुझाव देने पर अड़ा हुआ है, ऐसे में मेरे भी कुछ सुझाव प्रस्तुत है, जिन्हें अपनाकर रेलवे अच्छे दिन ला सकता है। सारी लड़ाई ही रेवेन्यू बढ़ाने की है। कहा जा रहा है कि अगर पिछली सरकार किराया बढ़ा देती तो इस बार कड़वी गोली नहीं खानी पड़ती। खैर, पेश है कुछ अनोखे सुझाव:-
जब आप मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने जाते है तब वहां अपने घर का खाना खा सकते है क्या? रेलवे भी ऐसा ही करें। रेल के डिब्बे में या प्लेटफॉर्म पर बाहर से लाया हुआ खाना ना खाने दें। जैसे मल्टीप्लेक्स में 100 रुपए में पॉपकॉर्न बिकता है, रेलवे भी ऐसा ही करें, तो कोई क्या कर लेगा? रेलवे के खानपान के स्टॉल महंगे दाम पर निलाम किए जाए और करोड़ों कमाए जाए।
रेलवे स्टेशन पर प्लेटफॉर्म टिकिट की दरें 5 रुपए से बढ़ाकर सीधे 50 रुपए कर दी जाए। जिसको आना होगा वो तो आएगा ही। सीधे दस गुना आय होगी और स्टेशन की भीड़-भाड़ से भी राहत मिलेगी।
रेल के डिब्बे के अंदर अगर कोई यात्री सुविधाघर का उपयोग करें। तो उससे सीधे 50 या 100 रुपए लिए जाए। आपने टिकिट रेलवे में यात्रा करने का लिया है गंदगी पैâलाने का थोड़े ही। अब कोई यह भी नहीं कह सकेगा कि रेलवे ने टिकिट महंगा कर दिया है और जो रेल में यात्रा करेगा 24-36 घंटे रेल में बैठेगा, उसको तो सुविधाघर में जाना ही पड़ेगा। अगर स्टेशन के बाहर सुलभ वाले १० रुपए ले लेते है तो चलती गाड़ी में प्राकृतिक हवा के बीच 50 रुपए देना किसी को अखरेगा नहीं। इसी तरह पूरे देश में रेलवे स्टेशनों के बाहर रेलवे की पटरियों के किनारे सुुबह-सुबह दिशा मैदान करने वालों से भी शुल्क लिया जाना चाहिए। रेलवे की यह सारी संपत्ति कोई ओपन एयर शौचालय तो है नहीं। अब इसका इस्तेमाल कर रहे हो तो पैसे दो भई।
एयर वंâडिशन डिब्बों में जाने वालों को कम्बल-तकिए-चादर क्यों? ए.सी. में घूमना है तो घर से लाओ गादी-तकिये और नहीं ला पा रहे हो तो पैसे दो। अभी यह सुविधा नाम मात्र के शुल्क पर टिकिट में शामिल है। एयर वंâडिशन की वूâलिंग एकदम बढ़ा दी जाए। तो झख मारकर लोग गादी-तकिये किराए पर लेंगे ही। हो जाएगी बिना टिकिट दर बढ़ाए अच्छी खासी इनकम।
जो लोग रात की ट्रेन में सफर करते है और स्लीपर क्लास में जाते है। उनसे होटल के कमरे जैसे अतिरिक्त पैसे लिए जाने चाहिए। रेल के भी और स्लीपर के भी। रेलवे का टिकिट आपने यात्रा के लिए लिया है सोने के लिए नहीं। यात्रा करनी है तो करो खड़े-खड़े या बैठकर।
एक और श्रेणी ट्रेन में बनाई जानी चाहिए। यह श्रेणी बीपीएल वालों के लिए होगी। जो लोग पैसे कम देना चाहे, वे कम पैसे में भी यात्रा कर सकते है, बस उन्हें खड़े-खड़े यात्रा करनी होगी।
रेलवे के सीजन टिकिट के दाम बहुत ही कम है। यह क्या बात हुई कि आप 8-10 दिन की यात्रा के टिकिट के बराबर पैसे दें और महीने भर घूमे। पूरे 30 दिन के टिकिट के बराबर पैसे लेने चाहिए। अगर कोई यात्री कहे कि वीकली ऑफ के दिनों को छोड़ा जाए तो भी छूट नहीं देनी चाहिए। महिने भर का पास लिया है तो यह आपकी सुविधा है। रोज आपको टिकिट की लाइन में नहीं लगना पड़ता। आपका टाइम बचता है, एनर्जी बचती है, तो इसका फायदा रेलवे को भी होना चाहिए कि नहीं।
और भी कई सुझाव है जैसे- जहां भी रेलवे के रिटायरिंग रूम है। वहां अहाते बना दिए जाए लोग अपनी-अपनी बोतल लेकर आए और छककर पीए। वहां बैठने की फीस रेलवे को दे दे। रेलवे की बहुत सी जमीन खाली पड़ी है, वहां खेती बागवानी की जाए। रेलवे डिब्बे के शौचालयों में ताकत और जवानी के विज्ञापनों के डॉक्टरों से अच्छी खासी फीस वसूली जा सकती है। जिस तरह कई होटलों में महंगे-महंगे प्रेसीडेंसियल श्यूट होते है। वैसे ही रेल के डिब्बों में भी बनवा दिए जाए और मनमाना भाड़ा लिया जाए। रेलवे कोई गरीब जनता के लिए थोड़ी चलाई जा रही है। यह व्यवसायिक उपक्रम है और उसे फायदे में चलना ही चाहिए। अच्छे दिन कोई फोकट में आएंगे?
प्रकाश हिन्दुस्तानी