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वीकेंड पोस्ट (एंटी कॉलम)

आप इस बात पर खुश हो सकते हैं कि आपको उल्लू बनानेवाले खुद उल्लू नहीं हैं!
एक नज़र नेताओं की डिग्री पर; धारणा ग़लत है कि हमारे नेता पढ़े लिखे नहीं है.
सभी पार्टियों के नेता बहुत पढ़े लिखे हैं. योग्यतम लोग राजनीति में हैं .
नेता गधे नहीं, अच्छे पढ़े लिखे हैं :आप इस बात पर खुश हो सकते हैं कि आपको उल्लू बनानेवाले खुद उल्लू नहीं हैं!
(वीकेंड पोस्ट के 15 फ़रवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम)
एक और शब्द है जिसका धड़ल्ले से बिना सोचे-समझे उपयोग होता है -- अवतार। बचपन से पढते सुनते आये हैं कि इस धरा पर भगवान अवतार लेते आये हैं। आजकल यह काम कोई भी कर लेता है --''आनेवाली फ़िल्म में दीपिका नए अवतार में नज़र आएँगी'', मतलब यही है न कि दीपिका को नया रोल मिला है। ऐसा शीर्षक भी देखा है -''नए साल में मल्लिका कैबरे डांसर के अवतार में होगी'', तो क्या कैबरे करनेवाली वास्तव में देवियाँ होती हैं? जो अवतार लेकर इस धरती का कल्याण हैं ? अधनंगी-नंगी होकर नाचना क्या दैवीय कार्य है?
आजादी के वक्त नारे मन्त्र होते थे, अब मसखरी लगते हैं। नारों के लिहाज़ से यह चुनाव मज़ेदार रहेगा। नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में वाराणसी से भी लड़ रहे हैं, जहाँ नारों का अपना आनंद है।
आजादी के वक्त नारे मन्त्र होते थे, अब मसखरी लगते हैं। चुनाव आते ही नए नए नारे सुनकर मज़ा आ जाता है। कितने फ़र्टाइल दिमाग हैं हमारे नेताओं के ! हजारों लफ्ज़ों की बात चार-छह शब्दों में हो जाती है। इक़बाल का - 'सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा ' आज भी गया जाता है। गांधी जी ने 'भारत छोड़ो ' और 'करो या मरो ' का नारा दिया था, जिसने गजब ढा दिया। नेताजी ने कहा था- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' बेहद प्रभावी रहे।
वीकेंड पोस्ट के 1 फ़रवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम
भय्या, क्या आप ने मेरे वो सबूत देखे हैं? पहले तो बहुत थे, पर अब मिल नहीं रहे हैं। शायद मैंने ही कहीं रख दिए हैं और अब मिल नहीं पा रहे हैं। नहीं भी मिलें तो कोई बात नहीं। अपना काम तो हो ही गया है।
वीकेंड पोस्ट के 15 मार्च 2014 के अंक में मेरा कॉलम
कैमरामैनों को रहता है, उत्ता तो आदिवासियों को भी नहीं रहता होगा। कब होली आए और भगोरिया के फोटो खींचने का मौका मिले। ताड़ी का मजा ले सकें। और तो और अब तो सरकारी तौर पर भी भगोरिया को प्रचारित किया जाने लगा है और भोपाल-इंदौर से पत्रकारों को भर-भरकर भगोरिया घूमने का चलन है
वीकेंड पोस्ट के 25 जनवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम
ये दौर दोमुंहे होने का है। सच्चे आदमी को कोई स्वीकार ही नहीं कर पाता। ऐसा क्यों हो गया कि बगैर नक़ाब के आप को दूसरे लोग पसंद ही नहीं कर पाते। घर में बीवी से भी सच कह दो तो वह बुरा मान लेती है। बच्चे भी। इसके बावजूद कभी-कभी ऐसा लगता है कि दुनिया अचानक प्रेममय हो गयी है, तभी तो 'सॉरी' और थैंक्स' की तरह ही 'लव यू' जैसे शब्द भी कॉमन हो गए हैं।
(वीकेंड पोस्ट के 08 मार्च 2014 के अंक में मेरा कॉलम)
कुछ औरतें बहुत एक्टिव हैं उनके लिए नारीवादी के मायने हैं -बात-बिना बात मर्दों को गालियां देना, मर्दों को कोसना, मर्दों को जलील करना और अगर कोई मर्द तीखी प्रतिक्रिया लिख दे तो महिला थाने जाकर रिपोर्ट लिखाने की धमकी देना। उन्हें लगता है कि यही फेमिनिज्म है और इससे उन्हें कोई ख़ास ओहदा मिलनेवाला है।
वीकेंड पोस्ट के 18 जनवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम
(जनहित में जारी )
आज बाजार में एक अनोखा पार्लर देखा। प्रोग्रेसिव पार्लर, लिखा था -हमारे यहां आपको प्रोग्रेसिव यानी प्रगतिशील बनाया जाता है। प्रगतिशील कहलाने के सर्टिफिकेट मिलते हैं। ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती और कुछ लोग बन जाते हैं प्रगतिशील।
(वीकेंड पोस्ट के 1 मार्च 2014 के अंक में मेरा कॉलम)
अगर राजनीति में भी छद्म नाम का चलन बंद हो जाए तो पहचान का संकट ही पैदा हो जाए। फिल्मों में यूसुफ़ खान दिलीप कुमार के नाम से जाने जा सकते हैं, राजीव हरी ओम भाटिया को लोग अक्षय कुमार के नाम से पहचान सकते हैं, मुमताज जहाँ बेगम देहलवी को लोग मधुबाला के नाम से पहचान सकते हैं, अजय देओल को सनी देओल के नाम से पहचान सकते हैं, पर अगर कोई उसके नेता-पिता-अभिनेता धर्मेन्द्र को दिलावर खान पुकारे तो कौन पहचानेगा? कौन पहचानेगा भाजपा की नेत्री हेमा मालिनी को आयशा बी कहें तो कौन पहचानेगा?
वीकेंड पोस्ट के11 जनवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम
पार्टी के नेता के इंटरव्यू का ट्रांसस्क्रिप्ट )
मैं : सर, मैं भ्रष्टाचार लाइव चैनल से हूँ। आपके कुछ बाइट्स चाहिए।
नेता : वो तो ठीक है, पर ये कौन सा चैनल है ?
(वीकेंड पोस्ट के 22 फ़रवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम)
दिल्ली मेट्रोवाले में क्या ले जा सकते हैं दूध की टंकियांखिड़की से लटकाकर? क्या वहां महिलाओं के डिब्बे में पुरुष जा सकते हैं? क्या थूक सकते हैं मेट्रो के प्लेटफार्म पर? मेट्रो स्टेशनों पर क्या पोहे खा सकते हैं? क्या वहां झूठा दोना फेंक सकते हैं? पान की पीक थूक सकते हैं क्या? फिर काहे का कल्चर? सू-सू के तो पैसे मांगते हैं और बात करते हैं कल्चर की। अरे भाई, प्रकृति के खिलाफ क्या जाना, जहां चाहे वहां यह प्राकृतिक कार्य करने दो, जैसा हमारे इंदौर में होता है।
वीकेंड पोस्ट के 4 जनवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम
2013 में यह हुआ :
--सलमान और राहुल गांधी की शादी नहीं हो सकी। बेचारे दोनों चिरकुंवारे। काम-धंधे के मारे। पकिस्तान की वीना मलिक भारतीय, ब्रिटिश, आस्ट्रेलियाई आदि के प्रेमियों की वेटिंग लिस्ट अधूरी छोड़ गई और दुबईवाले की हो गई। बेचारी पूनम पाण्डे, शर्लिन चोपड़ा और पायल रोहतगी का यहाँ-वहाँ डोरे डालना (या बांटना ?) कोई काम नहीं आ पाया।