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वीकेंड पोस्ट (एंटी कॉलम)

वीकेंड पोस्ट के 28 दिसंबर 2013 के अंक में मेरा कॉलम
विज्ञापन कहता है - डर के आगे जीत है। काहे की जीत भैया? दाल पतली है एकदम! मैं आजकल बहुत डरा हुआ हूं। डर का आलम यह है कि मैं कुछ भी नहीं करता। किसी को कुछ नहीं कहता।
-फारुख अब्दुल्ला से इत्तेफ़ाक रखने के बाद भी कुछ कमेंट नहीं करता, कहीं मुझे भी माफी नहीं मांगनी पड़ जाए।
वीकेंड पोस्ट के 09 नवम्बर 2013 के अंक में मेरा कॉलम
भारत ने इस दुनिया को समय-समय पर अनेक अनूठी सौगातें दी हैँ और उसमें लेटेस्ट है बूथ कैप्चरिंग। पश्चिम ने दुनिया को लोकतंत्र दिया; पोलिंग और पोलिंग बूथ दिया तो हमारा भी फ़र्ज़ बनता था कि कुछ न कुछ जोड़कर उसे देते, सो दे दिया -- बूथ कैप्चरिंग। लोकतंत्र का अनूठा कर्म -- बूथ कैप्चरिंग। और इस कला से दुनिया ने लोकतंत्र के एक महान कर्म से अपने आप को परिचित कराया। अब दुर्भाग्य से कुछ लोग इस महान कर्म का सत्यानास कराने में जुट हैं और संविधान की दुहाई दे रहे हैं।
वीकेंड पोस्ट के 14 दिसंबर 2013 के अंक में मेरा कॉलम
हमारे शहर की सड़कों पर जिस तरह वाहन चलाए जाते हैं और हॉर्न जिस तरह से बजाए जाते हैं, उससे लगता है इंदौर के लोग या तो बहरे हैं या पहले दर्जे के निसडल्ले! हॉर्न बजाने वालों को पता ही नहीं कि बेवजह हॉर्न बजाना कितना बड़ा सामाजिक अपराध है। यह दूसरे वाहन के चालक की बेइज्जती भी है (अबे हट! मुझे जाने दे!)। आमतौर पर लोग यहां हॉर्न लगातार इस तरह बजाते हैं जैसे एकदम छोटे बच्चे मुंह से पीं-पीं की आवाज करते हुए ट्राइसिकल चलाते हैं।
वीकेंड पोस्ट के 02 नवम्बर 2013 के अंक में मेरा कॉलम
इस देश में अधिकांश लोगों के सिर पर बड़ी भारी ज़िम्मेदारी है। सिर्फ एक लाइन लिखवाने की ज़िम्मेदारी। बस, एक लाइन लिखवा दो, हो गई ज़िम्मेदारी ख़त्म ! यही स्टाइल है हमारा। काम कितना भी बड़ा और महत्वपूर्ण हो, पल्ला झाड़ने का ये तरीका हमारी जीवन शैली बन चुका है। हर जगह आपको इसका नमूना देखने को मिलेगा :
वीकेंड पोस्ट के 7 दिसंबर 2013 के अंक में मेरा कॉलम
नरेश अग्रवाल ने कहा है कि लोग इस कदर डर गए हैं कि झूठे प्रताड़ना मामलों से बचने के लिए निजी संस्थानों में महिला कर्मचारी नियुक्त ही नहीं करना चाहते। उन्हें डर लगता है कि क्या पता, कब कोई महिला झूठे मामले में फंसा दे। प्रख्यात फेमिनिस्ट और एडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायमूर्तिगणों ने प्रमुख न्यायमूर्ति से प्रार्थना की है कि सुप्रीम कोर्ट की तमाम महिला कर्मचारियों को कहीं और भेज दिया जाए और भविष्य में किसी भी महिला को इंटर्न न रखा जाए।
वीकेंड पोस्ट के 26 अक्तूबर २०१३ के अंक में मेरा कॉलम
( नोट : यह लेख महिलाओं के प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए भारतीय समाज में पुरुषों की दशा बताने के लिए है, कृपया इसे नारी के सम्मान-असम्मान से जोड़ने का की कोशिश नहीं करें। )
कई बार लगता है कि पुरुष होकर कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है। कोई भी अखबार, रिसाला, वेबसाइट पर जाओ, पुरुषों को हर तरह से गैर-ज़िम्मेदार और स्वार्थी बताने के साथ ही बलात्कारी-व्यभिचारी, शोषक, नीच, दम्भी, कुटिल, धूर्त, परजीवी और न जाने क्या-क्या बताना फैशन हो गया है.
वीकेंड पोस्ट के 30 नवम्बर 2013 के अंक में मेरा कॉलम
मीडिया कहा जाता है उसमें ज़्यादातर सामग्री या तो पर्सनल है अथवा एंटी सोशल। सोशल तो दो-चार फीसद भी नहीं। पर सोशल मीडिया का जिक्र ऐसे होता है मानो ज्ञान की गंगोत्री वहीँ से हो रही हो। लोग-लुगाइयां लिखते हैं ''फीलिंग स्लीपी, फीलिंग हंग्री, फीलिंग वावो !'' या फिर ''आज पोहे का आनंद लिया, आज पित्ज़ा खाया, आज बियर पी ''. तुम्हें कुछ महसूस हो रहा है वह समाज के लिए, दूसरों के लिए नहीं है. मुझे क्या फर्क पड़ता है अगर किसी ने पोहे खाये, लड्डू बाफले सूते या फिर वह 2 नंबर जाने के लिए तड़प रहा है।
('वीकेंड पोस्ट' के 19 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)
भारत में सब काम मुहूर्त देखकर शुरू होते हैं। लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों, ज़्यादातर काम बिगड़ ही जाते हैं। हर फिल्म का मुहूर्त होता है पर ऐसी फ़िल्में दस प्रतिशत ही बनती हैं जो हिट होती हैं। हर मकान का निर्माण मुहूर्त देखकर शुरू होता है, और अधिकांश मकान, मकान ही रह जाते हैं घर नहीं बन पाते। वाहन खरीदनेवाले भी मुहूर्त देखकर जाते हैं। पर क्या ऐसे वाहनों से कभी कोई दुर्घटना नहीं होती? दुकानें , कारखाने, फैक्टरियां आदि भी मुहूर्त देखकर शुरू होती हैं , 80 फ़ीसदी ठप हो जाती हैं.
वीकेंड पोस्ट के 23 नवम्बर 2013 के अंक में मेरा कॉलम
खेड़ा से लेकर नरेन्द्र मोदी तक एक ही डॉयलॉग सिखा हैं, --यस, आइ कैन, वी कैन। यानी मैं कर सकता हूँ, हम कर सकते हैं। कर तो सकते हैं , पर मेरा सवाल है … बट, व्हाय शुड आइ डू ? कर सकते हैं , पर करें क्यों? नहीं करना, हमारी मर्ज़ी ! करने को तो हम बहुत कुछ कर सकते हैं, पर करते हैं क्या? आप कर सकते हो तो कर डालो , हमें नहीं करना, करना होता तो अब तक कर नहीं डालते? हमारे पिताजी, दादाजी और उनके भी पिताजी-दादाजी भी बहुत कुछ कर सकते थे, उन्होंने करने लायक नहीं समझा होगा, नहीं किया; तो हम भी नहीं ही करेंगे।
('वीकेंड पोस्ट' के 5 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)
फेसबुकी दोस्तों का सन्देश था कि बहुत दिनों से फेसबुक पर दिखाई नहीं दे रहे हो, क्या सब ठीक तो है? बिलकुल ठीक है भय्या। पर क्या करूँ , दोस्त लोग जैसे फोटो चिपकाते हैं, जैसे कमेन्ट लिखते हैं, अगर मैं उसके जवाब में मन की बातें लिखने लग जाऊं तो एक भी मित्र फेसबुक पर बचेगा नहीं।
वीकेंड पोस्ट के 16 नवम्बर 2013 के अंक में मेरा कॉलम
में ऐसे-ऐसे चुनाव चिह्न दिए गए हैं कि उनसे पूरी गृहस्थी ही बस जाए ! हाँ, बेचारे बीजेपी-कांग्रेस, सपा-बसपा वालों को ज़रूर दिक्कत होगी, जिन्हें केवल कमल, हाथ के पंजे, साइकिल और हाथी से काम चलाना होगा। असली मज़े तो निर्दलीय उम्मीदवारों के हैं, जिनके पास गृहस्थी का सामान भी है और पिकनिक का भी। वे अपने चुनाव चिह्न को लेकर रोज़गार-धंधा भी चला सकते हैं।
दीपावली के पहले घर की पुताई शुरू हुई ही थी कि श्रीमतीजी ने कहा --दीवार पर लगा टीवी सेट उतरवा दो, वर्कर लोग गन्दा न कर दें ; पुताई के बाद फिर लगा देना। आज्ञाकारी पति के रूप में मैंने तत्काल हाँ भरी और लगा टीवी सेट को उतारने. पर यह क्या, वो तो दीवार में नट - बोल्ट से पक्का फिट किया हुआ था. मैं समझ गया कि अपने बूते की बात नहीं है. मौका मुआयना करने के बाद मैंने जवाब दिया -- बहुत भारी है, कुछ टूट फूट गया तो फालतू नुक्सान हो जाएगा, इलेक्ट्रिकवाले को ही बुलाना पड़ेगा।