सुनील दत्त की पदयात्रा एक अलग किस्म की पदयात्रा थी। उन्होंने बंबई से अमृतसर की २५०० किलोमीटर की ‘महाशांति यात्रा’ पूर्ण शांति के साथ पूरी कर ली। बीच-बीच में वे कार में बैठकर डाक-बंगलों में नहीं गए और न ही वे अपने साथ मालिश करने वालों, सेवकों और चमचों की फौज लेकर चले। लेकिन उनकी बेटी प्रिया दत्त उनके साथ थी। सुनील दत्त अभिनय से राजमीति के क्षेत्र में आए हैं। पर अगर कहा जाए कि वे अभिनय से सामाजिक क्षेत्र में आए हैं, तो ज्यादा ठीक रहेगा।
सांसद होने के बावजूद वे नेता कम ही हैं। उनका ज्यादातर वक्त सामाजिक कामों में जाता है। कहीं वे नशीली दवाओं के खिलाफ अभियान में जुटे होते हैं, तो कहीं वैंâसर रोगियों के लिए चंदा एकत्र कर रहे होते हैं। पिछले साल बंबई के एक सांध्य दैनिक ने सर्वेक्षण कराया कि कौन सा सांसद सबसे लोकप्रिय है तो छह सांसदों में से उन्हें ही सर्वाधिक मत मिले थे। पर कहनेवाले तो कहते हैं कि जिसका बेटा नसैड़ी हो वह दुनिया क्या सुधारेगा। जिसके चुनाव क्षैत्र की ४७ प्रतिशत आबादी झोपड़पट्टी में रहती हो, वह देश का क्या भला कर लेगा। उनके एक विरोधी का कहना है कि सांसद के रूप में उनकी एकमात्र उपलब्धि यह है कि उन्होंने अपने एक फिल्मी सहयोगी को एम.एल.ए. बनवा दिया, बस !
लेकिन ऐसी तोहमतों से उनका महत्व कम नहीं होता। वे एक सफल हीरो, सफल नेता, सफल कार्यकर्ता और सफल आदमी है। राम जेठमलानी को उन्होंने १ लाख ५५ हजार वोटों से हराया था। उनकी सफल फिल्मों की पेâहरिस्त काफी बड़ी है। वे अत्यंत मृदुभाषी, विनम्र और हंसमुख मिजाज के हैं।
१९८१ में सुनील दत्त को बंबई का शैरिफ मनोनीत किया गया था। शैरिफ के रूप में वे गंभीर मंत्रणाओं में शरीफ होते थे। फिल्म अभिनेता होने से उनके चाहनेवालों की संख्या अपार है, मगर दूसरे अभिनेताओं की तरह उनके घर के दरवाजे बंद नहीं रहे। कोई भी उनसे मिल सकता है।
फिल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक के रूप में उन्ंहोने अपनी खास जगह बनाई है। उन्होंने किसी भी भूमिका को निभाने से कभी मना नहीं किया, चाहे उनका रोल कितना भी छोटा ही क्यों न हो। ‘यादें’ फिल्म के वे एकमात्र कलाकार थे, जिस पर उन्हें ग्रां प्री अवार्ड भी मिला था। अपनी पत्नी नरगिस की वैंâसर से मौत के बाद उन्होंने ‘दर्द का रिश्ता’ फिल्म बनाई थी, जिसका सारा मुनाफा वैंâसर अस्पताल को दे दिया गया।
‘मदर इंडिया’ फिल्म की शूटिंग के दौरान एक दुर्घटना के बाद उन्होंने नरगिस से विवाह किया था। सुनील दत्त का नाम नरगिस के अलावा किसी अन्य के साथ नहीं जोड़ा गया।
पदमश्री सुनील दत्त ने अपने जीवन में कई पापड़ बेले। जब वे ६ साल के थे, तभी उनके पिता चल बसे। भारत का विभाजन हुआ, तब उन्होंने केवल मेट्रिक की परीक्षा पास की थी। विभाजन के बाद उनका पूरा परिवार पाकिस्तान के पैतृक खुर्द गांव को छोड़कर लखनऊ आ गया।
छोटे भाई बहन उन्हीं पर निर्भर थे। उन्होंने किसी तरह काम करके पैसा कमाया और अम्बाला जिले के मंडोली में जमीन खरीदी। फिर वे पढ़ाई के लिए आ गए। बंबई में उन्होें ‘बेस्ट’ में क्लर्वâ की नौकरी कर ली। फिर वे एक प्राइवेट वंâपनी में जूनियर एक्जीक्यूटिव बन गए। उन्होंने आकाशवाणी में भी काम किया और ‘प्रâी लांस’ फिल्म पत्रकार का भी काम किया।
अभिनेता संजय दत्त के पिता और अभिनेता राजेन्द्र कुमार के साड़ू सुनील दत्त की इस पदयात्रा से भले ही पंजाब समस्या का हल न निकले लेकिन उनकी नीयत का तो पता चलता ही है।
प्रकाश हिन्दुस्तानी