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शिवचरण माथुर १०६२ दिन की जोड़तोड़ के बाद फिर से राजस्थान के मुख्यमंत्री बन गए। १३१९ दिन तक मुख्यमंत्री कहने के बाद २२ फरवरी १९८५ को जब उन्होंने इस्तीफा दिया था, तब वे यही सोच रहे होंगे कि उन्हें वापस मुख्यमंत्री बनना है। यह महज संयोग ही नहीं है कि फिर मुख्यमंत्री बने है।

शिवचरण माथुर की खूबी है कि अपनी खूबियों को प्रचारित नहीं करते। वे अक्लमंद, घाघ और मृदुभाषी हैं। वे राजनीति की रेल के पुराने यात्री हैं और जानते हैं कि कब रेल का डिब्बा बदलना चाहिए और कब उतरना चाहिए। अपने राजनैतिक जीवन में तो उन्होंने यहीं किया है।

१९६९ में शिवचरण माथुर मोहनलाल सुवाड़िया क साथ थे। लेकिन जब राष्ट्रपति चुनाव में श्रीमती गांधी ने ‘अंतरात्मा की आवाज’ सुनने के लिए कहा तब श्री माथुर ने सुखाड़िया का नहीं, बरकत उल्ला का साथ दिया। तब उन्होंने वी.वी. गिरी का समर्थन किया, न कि नीलम संजीव रेड्डी का। श्रीमती गांधी ने पुरस्कार के रूप में उन्हें राजस्थान का केबीनेट मंत्री बनवा दिया। बरकत उल्ला मुख्यमंत्री बनाए गए। बरकत उल्ला की मौत के बाद हरिदेव जोशी मुख्यमंत्री बने। उन्हें शिवचरण माथुर से बड़ा खौफ था। तब हरिदेव जोशी ने उन्हें मंत्री तो बनाया था, पर धीरे-धीरे उनसे सारे विभाग छीन लिए। बचा रहा तो बस योजना विभाग।

१९७७ में दूसरे कांग्रेसियों की तरह शिवचरण माथुर भी चुनाव हार गए। १९८० में जब शिवचरण माथुर चुनाव में जीते, तब संजय गांधी राजनीति में छाए थे। तब उनकी पसंद के ही लोग मुख्यमंत्री बने थे महाराष्ट्र में अंतुले, कर्नाटक में गुंडुराव, उड़ीसा में पटनायक। पर संजय गांधी ने शिवचरण माथुर के बजाए जगन्नाथ पहाड़िया को पसंद किया। पर पहाड़िया राजस्थान को ठीक से चला नहीं सके और अंतत: शिवचरण माथुर १४ जुलाई १९८१ को मुख्यमंत्री बने।

तब शिवचरण माथुर की छवि अपेक्षाकृत उजली थी और वे किसी खास गुट के नेता नहीं थे। उनका अपना भी तब कोई गुट नहीं था। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद वे विवादों में घिर गए। पहला आरोप तो यह लगा कि वे नितांत नौकरशाह किस्म का बर्ताव करते हैं और अपने साथियों के बजाए अफसरों पर ज्यादा निर्भर रहते हैं। अफसरों पर उनका विश्वास इस कदर था कि एक पुलिस सब इंस्पेक्टर से विवाद होने के कारण किसी विधायक को पुलिस लाकअप में बंद रहना पड़ा। उन पर किसी एक जाति को बढ़ावा देने का इल्जाम भी लगाया गया।

कुल मिलाकर उनका पहला मुख्यमंत्रित्व काल अच्छा रहा। सहकारी संस्थाओं और पंचायतों के चुनाव कराए गए।। उनके कार्यकाल के पहले ही साल राजस्थान में रेकार्ड गोबर गैस संयंत्र लगे। हजारों गांवो में पीने का पानी मुहैया किया गया। हरिजन-सवर्ण फसार नहीं हुए। लेकिन सरकारी और बिजली बोर्ड के कर्मचारियों की हड़ताल ने उन्हें काफी बदनाम किया। अंतत: राजा मानसिंह के पुलिस के हाथों मारे जाने के बाद उन्हें अपने पद से हटना पड़ा था। यों उन पर पहले छोटी सादड़ी स्वर्ण कांड में शामिल होने का आरोप भी लग चुका था, जो सच साबित नहीं हो सका। उनकी पत्नी सुशीला देवी माधुर और साले दीनबंधु वर्मा पर जमीन हड़पने के आरोप भी लगे थे, जिन्हें बाद में जांच में गलत पाया गया।

१९८५ में मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद श्री माथुर विवादों से दूर रहे और राजीव गांधी के करीब आने तथा उनका और उनके दोस्तों का विश्वास पाने में लगे रहे। पिछले कुछ महीनों से वे कांग्रेस संगठन में सक्रिय थे और एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि पार्टी के पद इज्जत और जवाबदारी के पद हैं, उसलिए पार्टी चुनाव शीघ्र होने चाहिए। उनका मानना है कि सरकार को वे काम प्राथमिकता से करने चाहिए, जो आम आदमी से ताल्लुक रखते हैं।

मध्यप्रदेश के गुना जिले के एक गांव कानूनों में श्री माथुर की पैदाइश हुई। उन्होंने उदयपुर में बी.ए. की पढ़ाई की और बंबई में लेबर वेल्पेâयर का डिप्लोमा पाया। वे भीलवाड़ा में नगर पालिका तथा जिला परिषद के अध्यक्ष रह चुके हैं। बाद में वे भीलवाड़ा संसदीय क्षेत्र से ही चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे।

प्रकाश हिन्दुस्तानी

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