धारणा है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग हो सकता है। बाबा आमटे इस धारणा को तोड़ते हैं। वे छोटी-बड़ी बीमारियों के १६ आपरेशन करवा चुके हैं-ब्रेन ट्यूमर से लेकर स्पाइलाइटिस तक के। वे बैठ नहीं सकते, लेट सकते हैं या खड़े रह सकते हैं। उनका शरीर बीमारियों का आरामगाह बना हुआ है और वे ७१ साल के बूढ़े भी हैं। मगर मन और दिमाग से वे १७ साल के ही लगते हैं।
कुष्ठरोगियों को जीवन समर्पित करने वाले बाबा आमटे को १९८५ का रैमन मैगसेसे पुरस्कार दिया जाने वाला है। इसके पहले उन्हें राजाजी रत्न पुरस्कार, राष्ट्र भूषण पुरस्कार, बजाज पुरस्कार, डेमियल डुट्टोन पुरस्कार वगैरह मिल चुके हैं। कुष्ठरोगियों के ‘सेवक’ बाबा आमटे का मत है-‘कर्म बनाता है, दया भाव खत्म करता है।’ वे ‘सेवक’ के बजाए ‘कर्मयोगी’ होना पसंद करते हैं।
समाज सेवक शब्द बहुत भ्रामक है। आजकल तीन किस्म के समाज सेवक पाए जाते हैं। पहले वे जो पूरी तरह समर्पित भाव से समाज सेवा में जुटे हुए हैं-कोई यश नहीं चाहते। दूसरे वे जो शौकिया समाज सेवक है-मसलन रोटरी क्लब वाले, लायंस क्लब वाले। इन लोगों के लिए सेवा करना पैâशन है। तीसरे वे लोग जो प्रोपेâशनल समाज सेवक हैं।
मसलन ‘आक्सपैâम’ और ‘ब्रेड फार द वल्र्ड’ जैसी अंर्तराष्ट्रीय दुकानों के नौकर। बाबा आमटे तीसरी किस्म के समाज सेवक तो निश्चित ही नहीं हैं।
कुष्ठ रोगियों के लिए किए गए उनके काम को नकारना मुश्किल है, लेकिन वे महात्मा गांधी की तरह ही प्रचारप्रिय हैं। जब कोई खबरनवीस उनके पास जाता है तो उनकी पहली टिप्पणी होती है-‘अखबार में छापने से क्या होगा?’ वे जानते हैं कि ऐसे बर्ताव से अखबारवाले खूब प्रभावित होते हैं। बाद में वे अखबार के लिए खूब मसाला दे देते हैं। छोटे अखबारों को वे ज्यादा घास नहीं डालते पर बड़े अखबार वालों को काफी तवज्जो देते हैं।
बाबा आमटे ने समाज के सबसे तिरस्कृत वर्ग कुष्ठरोगियों के लिए महाराष्ट्र के चन्द्रपुर जिले में ‘आनंदवन’ बसाया। ‘आनंदवन’ केवल अस्पताल या आश्रम नहीं, बल्कि एक ‘जीवनशैली’ बन गया है। वहां कुष्ठ रोगी खेती, बढ़ईगीरी,सिलाई, बुनाई, कताई, छपाई आदि काम करते हैं। वे वहां शादी करके रह सकते हैं। आनंदवन में अपंगों और अंधे बच्चों के लिए स्वूâल है। वहां अभागों की जिन्दगी को अर्थ देने का काम किया जाता है।
बाबा आमटे कुष्ठरोगियों और शरीर से निरोगी समाज में काफी समानता पाते हैं। कुष्ठ कोग का पहला लक्षण यह है कि शरीर पर कागज जैसे सपेâद दाग पड़ जाते हैं, उस जगह की स्पर्श संवेदना खत्म हो जाती है। दूसरा लक्षण है नसें मोटी होना। आज हमारे समाज में भी असमता, गरीबी, बेकारी और अज्ञान के गहरे दाग लगे हैं और हमारी संवेदना शून्य होती जा रही है। हमारी चमड़ी भी इतनी मोटी हो गई है कि इन बातों का उस पर कोई असर नहीं होता।
३४ साल पहले मुरलीधर देवीदास (बाबा) आमटे ने एक लंगड़ी गाय, एक कुत्ता, पत्नी साधना गुलेशास्त्री (आमटे) और दो बच्चों के साथ आनंदवन की स्थापना की थी। तब वे ३७ साल के थे। शुरू में वहां छह कुष्ठरोगी थे। बाद में उनकी संख्या बढ़ती गई। आज कुष्ठरोगी तथा अपंगो के लिए वे तीन ‘आनंदवन’ स्थापित कर चुके हैं। उनकी पत्नी, साधना ताई, दो डाक्टर बेटे विकास और प्रकाश तथा एक डाक्टर बहू ‘आनंदवन’ के पीड़ितों की सेवा में जुटी हैं।
बाबा आमटे मालदार परिवार के हैं। वे चाहते तो ऐशो-आराम से जिन्दगी काटते। उनके पिता उन्हें कलेक्टर या ऐसा ही रौब वाला अफसर बनाना चाहते थे और वे खुद डाक्टर बनने के इच्छुक थे। मगर बन गए वकील। वे वरोरा नगरपालिका के उपाध्यक्ष चुने गए थे। जब सफाई कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। तब उन्होंने खुद सफाई की और मैला ढोया। एक कुष्ठरोगी को देखकर उनके मन में दया उपजी और उन्होंने १९५० में महारोगी सेवा समिति बनाई।
आजादी की लड़ाई के दौरान १९४२ में बाबा आमटे को शस्त्रों की तस्करी के मामले में जोल हुई। जेल से छुटने के बाद वे १९४६ में अपनी बहन की शादी में गए। वहीं उनकी मुलाकात साधना गुलेशास्त्री से हुई। वे उनकी सादगी पर फिदा हो गए। बाद में उन्होंने साधना गुलेशास्त्री से शादी कर ली।
अरसा पहले अरूण शौरी ने बंबई में कहा था कि बाबा आमटे जैसे लोगों को राजनीति में आना चाहिए क्योंकि राजनीति में भी कुष्ठरोग पैâल गया है। अगर वे राजनीति में आएं तो नेताओं के दिमाग में बसा कोढ़ दूर करने में उन्हें सफलता मिल सकती है।
महाराष्ट्र में वृक्ष चेतना जागृत करने में उनकी अहमभूमिका रही है। वे मराठी के बेहतरीन कवि है। कविताएं उनके मुंह से करती है। आनंदवन के बारे में उनकी कविता के एक अंश का भावार्थ है - ‘यहां (आनंदवन) में सूर्योदय होता है, सूर्यास्त नहीं।’
प्रकाश हिन्दुस्तानी