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Atal-ji

अटलबिहारी वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के सबसे लोकप्रिय अभिनेता और नेता है। वे भाजपा के ट्रेडमार्वâ हैं। वे रोमांटिक मिजाज के हाजिर जवाब और ऊर्जावान नेता है। वे कवि, नेता, पत्रकार, अभिनेता ओर अविवाहित हैं।अब वे फिर कस रहे हैं कि वे भाजपा का झंडा थामकर और आगे नहीं जाएंगे। न ही वे लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहेंगे। पहले भी एक बार उन्होंने कहा था कि वे लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ना चाहते।

शायद उनकी बात ग्वालियर के मतदाताओं ने सुन ली थी तभी तो उन्होंने पिछले चुनाव में उनकी जगह माधवराव सिंधिया को लोकसभा में भेज दिया।

अहमदाबाद में पिछले हफ्ते हुए भाजपा के मजमे में उन्होंने फिर गांधीवादी समाजवाद का पक्ष लिया और इस बात की पूरी कोशिश की कि भाजपा अपनी हिन्दूवादी छवि बदले और गांधीवादी समाजवाद का ही रास्ता चुने।

उनकी पार्टी के दूसरे लोग चाहते थे कि भाजपा वापस जनसंघ बन जाए और हिन्दुओं के हितों की बात करके वोट मांगे।

पिछले ढाई दशक से अटलबिहारी वाजपेयी अपनी पार्टी पर हावी है। जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक का सफर उन्होंने किया है। पार्टी और सरकार में उन्होंने बड़े ओहदे संभाले हैं और अनुभवों से सीखा है कि अगर भाजपा को व्यापक जनाधार चाहिए तो उसकी नीतियां उदार होनी चाहिए। वे उन्हीं नीतियों की बातें करते हैं। नगर उन्नीसवीं सदी का चिन्तन करने वाले लोग भी उनकी पार्टी में बड़ी तादाद में है।

अल अगर वे भाजपा का झंडा किसी और को थमा दें तो ठीक ही होगा। आजकल उनकी पार्टी भी बेरोजगार है। असम, पंजाब, गुजरात और जम्मू-कश्मीर के बारे में वे आजकल बयान तक नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि वहां की समस्याएं लगभग निपट ही टुकी हैं। पाकिस्तान के बारे में राजीव गांधी ही इतना कुछ कह देते हैं कि पूर्व विदेशमंत्री के नाते कहने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचता। संसद में वे हैं नहीं। मंत्री थे, तब तो संपादक लोग कविताएं मंगवा कर कृत कृत्य हो जाते थे। अब पीछते नहीं। इक्कीसवीं सदी की बात वे कर नहीं सकते, क्योंकि उनकी पार्टी तो उन्नीसवीं सदी की है।

‘अटलजी’ के नाम से मशहूर अटलबिहारी वाजपेयी ने विदेशमंत्री के रूप में बहुत नाम कमाया। न्यायमूर्ति एम.सी. छागला ने उन्हें भारत का सबसे ,सफलतम विदेश मंत्री कहा था। विदेशमंत्री के रूप में उन्होंने भारतीय विदेश नीति को अस्मत को बचाया। शिमला समझौते के वक्त उनकी पार्टी उसके विरोध में थी, मगर विदेशमंत्री बनने पर उन्होंने शिमला समझौते का सम्मान किया। रूस से दोस्ती बनाए रखी और मध्यपूर्व के बारे में भारतीय नीति में हेरपेâर नहीं होने दिया। जनता पार्टी के अन्य धड़ों के लोग उनसे बहुत चिढ़ने लगे थे और वे इन सब बातों का श्रेय मोरारजी देसाई को दे रहे थे। मगर ‘अटलजी’ ने श्रेय पाने की कोई कोशिश नहीं की। संयुक्त राष्ट्र में उन्होंने हिन्दी में भाषण दिया।

१९२६ में क्रिसमस के दिन जन्मे अटलबिहारी वाजपेयी की पढ़ाई ग्वालियर और कानपुर में हुई। छात्र जीवन में ही उन्होंने राजनीति, कविता और पत्रकारिता के क्षेत्र ैें काम शुरू कर दिया था।

१९५२ में वे दैनिक वीर अर्जुन के संपादक बने थे। जब जनसंघ का गठन हुआ तो उनका नाम जनसंघ के नेताओं के जहन में आया और वे राजनीति में सक्रिय हो गए। भाषण जेने की उनकी कला ने उन्हें राजनीति में ऊंचा स्थान दिलाने में मदद की।

१९५७ में वे पहली बार बलरामपुर से लोकसभा के लिए चुने गए थे। लोकसभा में उन्होंने अपने भाषणों से धाक जमा की। उनका रवैया शुरू से ही उदारवादी रहा हम, जिसे बलराम अशोक नापसंद करते थे।

इमर्जेन्सी में वे नानाजी देशमुख की तरह सक्रिय नहीं रहे। उन्हें उनके बंगले में ही नजरबंद कर दिया गया था।

अटलबिहारी वाजपेयी आम आदमी की बातें ही नहीं करते, वे खुद भी आम आदमी जैसे ही हैं। उनके पिता स्वूâल में अध्यापक थे। भारतीय संस्कृति, भाषा और रहन-सहन को उन्होंने अपनाया है। वे धोती कुर्ता पहनते हैं। (बुलैट प्रूफ जैकेट भी नहीं) ऊपर से छुरी कांटे से खाना उन्हें नहीं आता। उनके चेहरे पर रेडीमेड मुस्कान सदा चिपकी रहती है।

उन्हीं की लिखी एक कविता का अंश जो वे बेहद पसंद करते हैं :

राह कौन सी जाऊँ मेैं
चौराहे पर लुटा चीर
प्यादे से पीट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल
या बाजी छोेड़
विरक्ति रचाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं?

प्रकाश हिन्दुस्तानी

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