एक अरसा पहले मशहूर मलयालम लेखक टी. शिवशंकर पिल्लै से बंबई में रूबरू होने का मौका मिला था। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित ‘सृजन पर्व’ में वे आये थे। पिल्लै साहब ने उसमें अपनी एक मशहूर कहानी का सारांश सुनाया था। ‘चेम्मीन’ यानी ‘झींगा मछली’ नाम था उस कहानी का। जलसे में कई नामी-गिरामी लेखक और भी थे। मगर पिल्लै साहब की कहानी ने श्रोताओं पर जरा ज्यादा प्रभाव छोड़ा था। अपने लेखन और व्यवहार में वे बहुत सीधे-सादे व्यक्ति हैं। लोग उन्हें लेखक मानते हैं पर वे अपने आपको किसान मानते हैं। भाषा के फालतू जंजाल में वे नहीं पड़ते।
किताब का माने उनके लिए कागज पर छापे काले अक्षर ही नहीं है। उनकी किताब दुनिया है और उसी को पढ़कर देखकर वे लिखते हैं।
जिन लोगों ने उनका साहित्य पेटभर पढ़ा है, वे उनके मानवीय नजरिए यछार्छ की पकड़ और प्रभावी चरित्रृचित्रण पर मुग्ध हैं। उनके पहले का मलयालम साहित्य खास तौर पर मध्यमवर्गीय पात्रों पर ही केन्द्रित था। उन्होंने मलयालम साहित्य की इस आदत को तोड़ा और पात्रों का संसार ज्यादा व्यापक रचा। निम्नवर्गीय पात्र, जिन्दगी के प्रति उनकी आस्था और उनके रोजमर्रा के संघर्ष उनके साहित्य की बुनियाद रही। आज केरल के जनजीवन को समझने के वास्ते उनका साहित्य पढ़ना एक जरूरी शर्त बन गया है।
उनकी साहित्यिक उपलब्धियों की शुरूआत १९३४ में हुई, जब उनका पहला कथा-संग्रह ‘पुथुमालाव’ (नव प्रस्फटिन) छपा। इसके बाद उनका उपन्यास ‘प्रतिफलम’ (पारितोषक) छपा जो उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर ले गया।
आजादी के साल १९४७ में उनका एक उपन्यास ‘थोटयु डे माकान’ (मेहतर का पुत्र) छपा। इस उपन्यास में नंगी वास्तविकताओं को पढ़कर पाठकों कोे गहरा धक्का लगा। १९४८ में उनका उपन्यास ‘रंतितान्ताजी’ (दो सेर धान) छपा। इसने उन्हें मलयालम के शीर्षस्थ उपन्यासकारों की पंक्ति में ला खड़ा किया। १९५६ में उनकी कथा-कृति ‘चेम्मीन’ (झींगा) छपी। उस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इस कहानी पर बनी फिल्म को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। इस उपन्यास में उन्होंने समंदर के किनारे के दो गांवो के मछुआरों और मछुआरिनों की जिंदगी का चित्रण किया था। उन्होंने इसमें पहली बार यथार्थवाद में स्वच्छन्दतावाद का हल्का सा पुट दिया था।
१९७८ में उनकी कृति ‘कायर’ छपी। यह ढाई सौ बरसों के कालखंड में पैâली ६ पीढ़ियों के तकरीबन सौ पात्रों की कहानी है। ढाई सौ साल पहले के भूमि अधिकारों के संघर्ष से लेकर आज तक के नक्सलवादी आंदोलन को उस कृति की पृष्ठभूमि बनाया गया है।
अपने ५५ साल के साहित्यिक जीवन में उन्होंने ३५ उपन्यास करीब ५०० कहानियां तथा निबंध, यात्रा-वृत्त और नाटकों की कई किताबें लिखी है। देश-विदेश की दर्जनों भाषाओं में वे अनुवादित होकर छप चुके हैं।
टी. शिवशंकर पिल्लै का जन्म अप्रैल १९१४ में केरल के अलप्पी से करीब १६ किलोमीटर दूर तकली गांव में हुआ था। वे अपने गांव के नाम से ही मशहूर हैं। उनके पिता का पेशा खेती था। वे कथकली के मर्मज्ञ और संस्कृत के विद्वान थे। उनके चाचा वुंâजू कथकली के मशहूर नर्तक थे। उनकी शुरूआती पढ़ाई पैतृक गांव में, बालखुआ और हरिपद कस्बे में हुई। त्रिवेन्द्रम में उन्होंने कानून की पढ़ाई की।
उन्हें १९८४ का भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। यह पुरस्कार भारतीय साहित्य में उनके योगदान के लिए दिया जाएगा। कहा जा रहा है कि इस निर्णय से श्री पिल्लै नहीं, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मानित हुआ है। जब भारतीय ज्ञानपीठ ने पुरस्कार की शुरूआत की थी, तब पुरस्कार एक लाख रूपए का था, आज डेढ़ लाख का है। पिछले ढाई दशकों में बढ़ी महंगाई को मद्दे नजर रखते हुए पुरस्कार की राशि कम से कम पांच लाख रूपए तो होनी, ही चाहिए।
प्रकाश हिन्दुस्तानी