कर्पूरी ठाकुर बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से फिर हटा दिए गए हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। १९८२ में भी वे विधानसभा में विपक्ष के नेता थे और विधानसभा अध्यक्ष ने उन्हें उनके पद से हटा दिया था। तब वे उच्च न्यायालय में गए थे और इस पैâसले को चुनौती दी थी। उन्होंने उस पैâसले को अवैधानिक, दुर्भावनापूर्ण और राजनैतिक मकसद से किया गया काम बताया था।
यह मात्र संयोग नहीं होगा कि फिर उन्हें इस पद से हटाया गया है। कर्पूरी ठाकुर विपक्ष के नेता रहे या न रहें।
व्यक्तिगत रूप में उनकी क्षमता से तो सभी परिचित ही है।
लोग कहते हैं कि वे केवल दो जातियों के नेता हैं। उन पर दल तोड़ने और दल के भीतर गुटबाजी करने के भी आरोप है। यह भी कहा जाता है कि उनकी बिहार विधानसभा अध्यक्ष से व्यक्तिगत अनबन है। उन पर नक्सलवादियों को समर्थन देने के भी आरोप है और प्रेमलता नामक एक नेपाली महिला ने उन पर बलात्कार के आरोप में मुकदमा भी चलाया था ,जिसे बाद में न्यायालय ने ‘श्री कर्पूरी ठाकुर के चरित्र हनन का मामला पाया था।’
कर्पुरी ठाकुर चालीस साल से भी ज्यादा अरसे से अखबारों की खबरों का विषय है। वे एक ओघड़ किस्म के जुझारू जननेता है। जिद्दी और मेहनती। देश की राजनीति के कई उतार-चढ़ाव उन्होंने देखे हैं और बिहार ने उनकी राजनीति के कई उतार-चढ़ाव को भुगता है।
जयप्रकाश नारायण से प्रेरणा पाकर उन्हंोने १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी और दो साल जेल में बन्द रहे थे। जब वे जेल से छूटे तब पूरे समाजवादी कार्यकर्ता बन चुके थे। फिर वे किसान मोर्चे में सक्रिय हो गए। १९४७ में उन्होंने बटाईदारों के समर्थन में आन्दोलन चलाया था।
१९५२ में वे विधायक बने। उन्होंने विधानसभा में झारखंड मोर्चे की मदद से एक विधेयक रखा था, जिसमें भूमि सुधार और जमीन की सीलिंग सीमा १५ एकड़ रखी थी। वह विधेयक तो पारित नहीं हो सका, पर रर्पुरी ठाकुर को किसानों का बहुत समर्थन मिला।
जयप्रकाश नारायण के अलावा वे राममनोहर लोहिया के भी करीबी रहे हैं। जब राममनोहर लोहिया समाजवादी पार्टी की जिंदगी मामलों की समिति के अध्यक्ष थे, तब पचास के दशक में उन्होंने युगोस्लाबिया जाने वाले एक दल में कर्पुरी ठाकुर को भी शामिल किया था।
जब समाजवादी पार्टी टूटी तब वे लोहिया के साथ नहीं गए। बल्कि प्रजा समाजवादी दल में ही रहे। १९६५ में वे लोहिया के करीब आए और तब समाजवादी और प्रजा समाजवादी दल मिलकर संयुक्त समाजवादी दल बना।
१९६७ देश में भारी राजनैतिक उथल-पुथल का साल था। संयुक्त समाजवादी दल को तब ६९ सीटें मिली थी, मगर मिली-जुली सरकार में कई लोग उन्हें नेता मानने को राजी नहीं थे। इस कारण वे मुख्यमंत्री नहीं बन सके मगर उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाया गया।
१९७४ में जब जयप्रकाश नारायण में बिहार में अपना आन्दोलन चलाया था, तब कर्पुरी ठाकुर पहले विधायक थे, जिन्होंने विधानसभा छोड़ी थी। यह संयोग ही था कि जिस दिन इमर्जेन्सी लगी, उसके ठीक एक दिन पहले ही वे एक शादी में शरीक होने नेपाल गए थे। बाद में वे भारत आकर भूमिगत हो गए थे।
१९७७ में वे लोकसभा के लिए चुनें गए थे। मगर बाद में वे मुख्यमंत्री बने। उनकी आरक्षण नीति पर खूब ुववाद हुआ। जनता पार्टी टूटी और फिर उनकी चरण सिंह से ठनती रही। दोनों नेता एक-दूसरे को अपनी पार्टी से बाहर निकालते रहे।
अब तक वे बिहार विधानसभा में विपक्ष के एकगुट का नेतृत्व कर रहे है। उनकी ईमानदारी और लगन से कोई इन्कार नहीं कर सकता। पर सवाल यह है कि उनकी दिशा कौन सी है?
प्रकाश हिन्दुस्तानी