खान अब्दुल गफ्फार खां भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से केवल पांच साल छोटे हैं। कांग्रेस के तमाम नेताओं की तरह उन्होंने सत्ता का स्वाद तो नहीं चखा, मगर सेवा की सजा जरूर भुगती है। सेवा और संघर्ष के उनके काम में भारत, पाकिस्तान या अफगानिस्तान की दीवारें रूकावट नहीं बन पाई। कांग्रेस शताब्दी समारोह के बहाने बंबई को उनकी मेजबानी का सौभाग्य मिला है।
खान अब्दुल गफ्फार खां के कई नाम हैं। बादशाह खान, सीमांत गांधी, सरहदी गांधी, बाचाखान आदि। मगर इन नामों से बढ़कर इस उपमहाद्वीप के सच्चे नागरिक है। तीन देशोें की जनता को उन पर नाज है। वे वे सच्चे अर्थों में कांग्रेसी है-सत्य और अहिंसा प्रांत निष्ठावान। जन्मजात सत्याग्रही।
जेलखाने उनके घर है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान जितने साल अंगे्रजों की जेल में रहा, उससे ज्यादा साल मैंने पाकिस्तान की जेल में काटे हैं। फिरंगियो की सरकार ने हमारे साथ जितना बुरा बर्ताव किया, पाकिस्तान की इस्लामी हुवूâमत ने उससे दस गुना ज्यादा बुरा बर्ताव हमारे साथ किया है।
भारत में है तो पाकिस्तान का ‘मुस्लिम’ अखबार फिर उनके बारे में कुछ लिखेगा जरूर। पहले ‘मुस्लिम’ ने लिखा था कि भारत उनका उपयोग पाकिस्तान के खिलाफ प्रचार करने में कर रहा है। दरअसल पाकिस्तान की फौजी हुवूâमत चाहती है कि बादशाह खान पाक में तानाशाही बरकरार रखने में उसकी मदद करे। बादशाह खान यह वैâसे कर सकते हैं? वे ही तो है जिन्होंने लड़ावूâ पख्तुनों के हाथों से बंदूके पिंâकवा दी थी और उनके दिलों में खुदाई-खिदमतगारी यानी मानव मात्र की सेवा का भाव जगाया था।
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बादशाह खान १९२० में सक्रिय हो गए थे। तब उन्होंने एक जुझारू संगठन बनाया था, जो कांग्रेस की मदद करता था। १९३० में उन्हें पेशावर में रायल एयर फोर्स पर बम पैंâकने के मामले में पंâसा दिया गया और वे तीन साल तक जेल में रहे। १९३२ में वे छुटे और फिर दूसरे मामले में पकड़ लिए गए। अलग-अलग मामलों में पंâसा कर अंग्रेजों ने उन्हें १५ साल तक काल कोठरियों में डाले रखा। जब भी उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया, उन्होंने पुलिसकर्मियों से न तो कोई बातचीत की और न ही कोई चीज मांगी।
राजनीति में सीधेपन के कारण उन्हें कई असफलताएं मिली। उन्हें केवल पख्तुनों का नेता ही माना गया। उनकी सबसे बड़ी असफलता यह थी कि भारत विभाजन के पैâसले के थोड़ा अर्से पहले ही उन्होंने पख्तुनिस्तान बनाने की पेशकश की थी, जिसे न तो भारतीय नेताओं ने माना और न ही लाई माउटबैटन ने। जहां पख्तुन ज्यादा थे, वह हिस्सा पाकिस्तान में चला गया। देश विभाजन के बाद पाकिस्तान की हुवूâमत ने उन्हें जेल में डाल दिया और बेचारे पख्तून विभाजन के कारण सबसे ज्यादा तबाह हुए।
बाद में वे बार-बार बयान देते रहे कि उन्होंने कभी पख्तूनिस्तान बनाने की मांग नहीं की थी, मगर उसका कोई अंजाम नहीं हुआ। उनके भाग्य में जेल की दीवारें ही बची थी।
पाकिस्तान की सरकार ने पख्तूनों को कभी चेन से नहीं जीने दिया। खान अब्दुल गफ्फार खां पर पाकिस्तानी हुवूâमत ने आरोप लगाया कि वे कबाईली लोगों से मिलकर सरकार के विरूद्ध षंडयंत्र कर रहे हैं। जब भी वे जेल से छुटते किसी दूसरे मामले में उन्हें पंâसा दिया जाता।
बीमारी के कारण उन्हें ३० जुलाई की रिहा कर दिया गया। वे इलाज कराने लंदन गए और तीन महीने बाद वहां से काबुल (अफगानिस्तान) चले गए। वहां से वे १९७२ में पाकिस्तान लौटे, मगर पाकिस्तान सरकार ने उन्हें जेल में बंज करने की आदत नहीं छोड़ी। १९८० में वे इलाज कराने भारत आए थे।
खान अब्दुल गफ्फार खां का जन्म १८९० में ‘उतमान जड़ु’ गांव में हुआ था। उनके दादा का नाम खान बहादुर खां दादा का नाम सेपुâल्लाह खां और परदादा का नाम अबीबुल्लाह खां था। उनकी शुरूआती पढ़ाई पेशावर में हुई थी। उनका कद छह पुâट चार इंच है और वे सभी व्यसनों से अछूते हैं।
प्रकाश हिन्दुस्तानी