बेशक एस.एम. जोशी नंबर एक समाजवादी नेता है। वे व्यापक जनाधार वाले ट्रेड यूनियन लीडर तथा रचनीत्मक कार्यकर्ता हैं। मगर महाराष्ट्र, कर्नाटक सीमा विवाद में उलझकर वे वही कर रहे हैं, जिसे मराठी में कहा जाता है - ‘आपले नाक कापून दसयीला अपशकुन’ अर्थात अपनी नाक कटवाकर दूसरों के लिए अपशकुन करना। अब एस.एम. जोशी बेलगांव को कर्नाटक से महाराष्ट्र में मिलाने की मांग पर शरद पवांर के साथ आंदोलन में जुटे हैं। इस आन्दोलन को वे बेलगांव के मराठीभाषियों से किए गए वादे की पूर्ति मानते है।
एस.एम.जोशी अब महाराष्ट्र की मुख्य समस्याओं से दूर हट गए लगते हैं और उस मजदूर नेता की तरह अड़े है, जो अपने साथी मजदूर को दस रूपये की जगह दो रूपये की मजदूरी मिलने पर तो एतराज नहीं करता, बल्कि इस बात पर एतराज करता है कि उसे मजेदूरी में मिला दो रूपए का नोट पुराना और मुड़ा तुड़ा है।
कर्नाटक में कन्नड़ की अनिवार्य शिक्षा का आदेश चार साल पुराना है, मगर इसके विरोध में आंदोलन अब किया जा रहा है। अब वे ऐसे अड़े है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री की बातचीत की अपील को भी उन्होंने खारिज कर दिया। वे कहते हैं कि आन्दोलन गांधीवादी तरीके से होगा। गांधीजी तो आन्दोलन के एक घंटा पहले भी वायसराय से बातचीत करने में नहीं हिचकते थे। जो समस्या बातचीत से हल हो सकती है, उसके लिए आन्दोलन करना लोगों को गुमराह करना ही है।
सिद्धान्त के रूप में एस.एम. गांधी की यह बात सही है कि भारत का संविधान बदली हुई दशाओं में राज्यों को उचित आजादी नहीं दे रहा है। राज्यों को अपने विकास कार्यों के लिए वित्त आयोग और योजना आयोग पर निर्भर रहना पड़ता है। मुख्यमंत्री किसी बड़ी नगर पालिका के अध्यक्ष से ज्यादा महत्व नहीं रखते।
एस.एम. जोशी मानते हैं कि मनु स्मृति और शरीयत ोदनों ही बराबर प्रतिक्रियावादी है। लेकिन उनका कहना है कि जिस तरह हिन्दू, लोग मनुस्मृति में संशोधन करते रहे है, वैसे ही मुसलमानों को शरीयत में संशोधन करते रहना चाहिए।
८१ वर्षीय एस.एम. जोशी का जीवन बहुरंगी रहा है। विविध क्षेत्रों में उन्होंने काम किया है। उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए हैं। स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद वे घोर हिन्दूस्तानी हो गए थे और यह मानने लगे थे कि हिन्दुओं को भी आत्मरक्षा के लिए संगठित होना चाहिए और हथियार रखने चाहिए। महात्मा गांधी के कार्यक्रम उन्हें अधूरे लगने लगे, मगर युसुफ मेहर अली, आचार्य नरेन्द्र देव और आचार्य जाबड़ेकर ने उन्हें समाजवाद की दीक्षा दी। मराठी और हिन्दी में प्रकाशित अपनी आत्मकथा उन्होंने युसुफ मेहर अली को समर्पित की है।
अक्टूबर १९२९ में ‘ए,.एम.’ ने पुणे में पार्वती सत्याग्रह शुरू किया। यह सत्याग्रह हरिजनों को मंदिर में प्रवेश की इजाजत के लिए किया गया। जिसे व्यापक सफलता मिली। बाद में उनका सत्याग्रह छुआछूत विरोधी आन्दोलन में बदल गया। १९३० में वे नमक सत्याग्रह के कारण तीन साल के लिए जेल में गए। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वे भूमिगत हो गए और बम्बई के मुस्लिम बहुल इलाके खेतबाड़ी में मलिषी बनकर रहने लगे। तभी उन्होंने उर्दू सीखी। वे भूमिगत थे, उन्हीं दिनों उनकी मां का स्वर्गवास हो गया। पिता पहले ही गुजर चुके थे।
आजादी के बाद एस.एम. ने कई आन्दोलन सफलतापूर्वक चलाए। उनमें संयुक्त महाराष्ट्र और गोवा मुक्ति आन्दोलन प्रमुख है। वे पृथक तेलंगाना के समर्थक है। वे एक समाजवादी पार्टी चाहते है। एस.एम. में मजदूर आन्दोलनों का नेतृत्व किया और जेल गए। उन्होंने कोढ़ियों की सेवा की। वे विधायक, सांसद और भारतीय रिजर्व बैंक के संचालक मंडल के सदस्य रह चुके हैं औैर जनता पार्टी के शासन काल में बिहार के राज्यपाल बनने का प्रस्ताव ठुकरा चुके हैं।
एस.एम. हमेशा अपनी कक्षा में फस्र्ट आते रहे, हालांकि वे एन.जी. गोरे जैसे स्कालर नहीं है। एस.एम. बहुत ही सादगीप्रिय है। वे अपनी सफलता मों अपनी पत्नी ताराबाई पैंडर्स का अपार, योगदान मानते हैं उनके दो बेटे हैं एक डाक्टर है, दूसरा वायुसेना में अफसर। एस.एम. वैंâसर रोगी है, लेकिन दृढ़ निश्चयी एस.एम. के कार्यों में वैंâसर रूकावट नहीं बनता। आज भी वे महीने में २० दिन यात्रा में बिताते है। असम आन्दोलन के दौरान वे वहां भी गए थे। जब वे श्रीलंका जाकर शांति की स्थापना में मदद करना चाहते हैं।
करीब ३० साल पहले जब वे पृथक महाराष्ट्र के लिए आन्दोलन कर रहे थे, तब प्रजासोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने उनमें आन्दोलन न करने को कहा था। मगर उन्होंने आन्दोलन में हिस्सा लिया। अब जनता पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रशेखरचाहते हैं कि वे आन्दोलन से अलग हो जाएं मगर वे उससे जुड़े हैं। क्योंकि वे मानते व्यक्ति को अपने सिद्धान्तों के साथ समझौता नहीं करना चाहिए।
प्रकाश हिन्दुस्तानी