जॉनी वॉकर स्कॉच के विज्ञापन का एक मशहूर वाक्य है - ‘बोर्न इन 1915 एंड स्टिल गोइंग स्ट्रांग’। यह बात सरदार खुशवन्त सिंह पर खरी उतरती है। 71 वर्षीय सरदारजी का ‘बल्ब और बोतल’ कालम दुर्भावनाओं और सदभावनाओं सहित अब भी लोकप्रिय है। उनका बल्ब बूझा नहीं, कागज का बंडल खत्म नहीं हुआ और स्कॉच की बोतल सूखी नहीं। मजेदार बात यह कह रही कि पिछले सोमवार को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने उनके बारे में जो संपादकीय छापा वह उनके कालम की ही तरह जगह-जगह छपा और चिर्चित रहा।
खुशवंत सिंह ने किसी के बारे में लिखते समय शब्दकोषों से अच्छे शब्द चुनने में सदा परहेज रखा। उनके बयानों से लगता है कि उनकी मौत कभी स्थिर नहीं रही। वे मानते रहे कि हिन्दू धर्म के बजाय मुस्लिम धर्म सिख धर्म के ज्यादा करीब है। उन्होंने वैश्यवृत्ति को कानूनी रूप देने की वकालत की। उन्होंने इमर्जेन्सी में प्रेस पर सैंसरशिप का तो विरोध किया लेकिन इमर्जेन्सी के जुल्मों का नहीं। उन्होंने भिंडरावाले के कृत्यों का तो विरोध किया मगर ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में पदमभूषण का सम्मान लौटा दिया।
वे जहां भी रहे अपने शरीर की भंगिमाओं के कारण चर्चित होकर रहे। उन्होंने तौलिए के कपड़े से बनी कमीजें पहनी। पहनी। अपने हाथ का पकाया भोजन खाया। नौ साल तक बम्बई में आर्थर बंदर रोड़ से बी.टी. स्थित दफ्तर तक पैदल आए गए। वे बी.बी.सी. की खबरें सुनते हुए दिन शुरू करते हैं। अपनी हर किताब लिखने के पहले वे कीमती पेन खरीदते है और किताब पूरी हो जाने पर कीमती घड़ी। हालांकि ये सूरापान के लिए मशहूर है मगर एक बैठक में तीन पैग से ज्यादा उन्होंने कभी हलक के नीचे नहीं उतारे।
वे अपने आपको धर्म से अलग कहते हैं पर उन्होंने जरूरत के मुताबिक कभी खुद को सिख माना और कभी-कभी नहीं। मेनका गांधी से उनके अच्छे संबंधों का कारण दोनों का सिख होना ही रहा है। राज्यसभा के लिए नियुक्त होने में उन्हें अल्पसंख्यंक सिख होने का लाभ मिला। वे भिंडरावाले और खालिस्तान के विरूद्ध बयान देते रहे मगर स्वर्ण मन्दिर में सेना के जाते ही उनका सिख धर्म जाग उठा। मगर पौने दो साल में ही उनका विचार बदल गया और वे दूसरे ऑपरेशन ब्लू स्टार की वकालत करने लगे।
खुशवंत सिंह ने विविध विषयों का व्यापक अध्ययन किया है। वे देश-विदेश में बहुत घूमे-फिरे हैं। हर तरह के लोगों में वे घुल-मिल जाते हैं। वे जो भी लिखते हैं वह आसान भाषा में होता है और उसमें हिन्दी, उर्दू या पंजाबी के शब्द घुले होते हैं। इस कारण भी उनका लेखन काफी लोकप्रिय है। लोगों को यह गलतफहमी है कि उन्होंने केवल पूâहड़ बातें ही लिखी है। दरअसल खुशवंत पहले अंग्रेजी में कहानियां लिखा करते थे। उनकी कहानियां की किताब ज्यादातर विदेशों में छपी है और उन्हें कई महत्वपूर्ण विदेशी पुरस्कार मिले है। उन्होंने सिख धर्म का इतिहास भी लिखा है और उर्दू तथा पंजाबी की कई कहानियां अंग्रेजी में अनुवादित की है।
1969 के मध्य में वे इलेस्ट्रेटेड वीकली आफ इंडिया के संपादक बनाए गए। आहिद ब्यूरो आफ सर्वुâलेशन की रिपोर्ट के मुताबिक उनके संपादक बनने के चार साल के भीतर ‘वीकली’ की बिक्री 80 हजार से बढ़कर तीन लाख से ज्यादा हो गई। 9 साल बाद उन्हें वीकला के संपादक पद से हटा दिया गया। उन्होंने आनंद बाजार प्रकाशन समूह की पत्रिका ‘न्यू डेल्ही’ का संपादन किया मगर पुस्तिका सफल नहीं रही। फिर वे दिल्ली के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के संपादक रहे।
खुशवंत सिंह ने 1939 से 47 तक लाहौर हाईकोर्ट में वकालत की। 1947 से 51 तक ओटावा और लंदन में वूâटनीतिक पद पर रहे। ब्रिटेन और अमेरिका के विश्वविद्यालय में वे विजिटिंग प्रोपेâसर रहे। वे प्रेस गिल्ड आफ इंडिया के अध्यक्ष रह चुके हैं। 1974 में उन्हें पदम भूषण दिया गया था। जनता शासन के बाद जब श्रीमती गांधी सत्ता में आई तब उन्हें राज्य सभा में मनोनीत किया गया।
प्रकाश हिन्दुस्तानी