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पहले प्रणव मुखर्जी को मंत्रिमंडल से हटाया गया। फिर उन्हें कांग्रेस संसदीय दल से अलग किया गया। फिर उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति से निकाला गया। अब उनकी जान पर खतरा मंडरा रहा है। कभी उनके घर में बम पूâटता है, कभी उनकी पत्नी की कार चुराई जाती है। धमकी भरे पत्रों ओर टेलीफोनों का सिलसिला तो चल ही रहा है। इस सबसे दुखी होकर प्रणव मुखर्जी, गुण्ड राव ओर जगन्नाथ मिश्र जैसे असंतुष्टों को लेकर कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाने के मूड में थे। मगर अब मामला टांय-टांय फिस्स हो गया लगता है।

विदेशमंत्री के पद में जितनी चमक और गृहमंत्री के पद में जितनी ताकत है, वैसी ही खनक वित्तमंत्री के पद में होती है। अर्थशास्त्र या राजनीति के धाकड़ लोग ही इस पद पर रहे है, मगर ज्यादातर की नियति अच्छी नहीं रही। शप्मुखम चेट्टी को विवादों के कारण जाना पड़ा। जान मथाई को नेहरू से मतभेद ले डुबे। चिन्तामणि द्वारकानाथ देशमुख ने संयुक्त महाराष्ट्र छोड़ दिया था। मूंदड़ा से संबंधों के कारण छागला आयोग के निर्णय के बाद टी.टी. कृष्णामाचारी को हटाना पड़ा था। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कारण मोरारजी देसाई छिटक गए। इस सबको देखते हुए प्रणव मुखर्जी काफी टिकाऊ वित्तमंत्री माने जा सकते थे। मगर उनका पद स्थायी नहीं रह सका। राजीव गांधी से मतभेदों के कारण वे अलग कर दिए गए और अब किसी घाट के नहीं रहे हैं।

 

करीब दस साल तक प्रणव मुखर्जी ने मंत्री पद भोगा। इंदिरा गांधी के प्रति वफादारी और पश्चिम बंगाल में अपना कोई प्रभाव नहीं होना - दोनों बातें राजनीति मैें उनकी उपलब्धि थी। श्रीमती गांधी ऐसे लोगों को चाहती थी, जिनका अपने इलाके में कोई वर्चस्व न हो।

इंदिरा गांधी के प्रति उनकी वफादारी का पहला नमूना लोगों ने १९६९ में कांग्रेस विभाजन के वक्त देखा था। तब वे राज्यसभा में थे और राष्ट्रपति पद पर इंदिरा गांधी के उम्मीदवार वी.पी. गिरि के समर्थन में उन्होंने अभियान चलाया था। १९७५ में जब आलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ पैâसला दिया, तब कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूवा के यहां बैठक हुई, जिसमें सिद्धार्थ शंकर राय तथा प्रणव मुखर्जी भी थे। बैठक में प्रस्ताव रखा गया कि इंदिरा गांधी को इस्तीफा दे देना चाहिए और प्रणव मुखर्जी को अंतरिम प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। मगर प्रणव मुखर्जी ही थे, जिन्होंने इस प्रस्ताव का विरोध किया।

उसके बाद वे इंदिरा गांधी के प्रिय मित्रों में गिने जाने लगे। इमर्जेन्सी में वे राज्यमंत्री थे और सी. सुब्रह्ममण्यम केबिनेट मंत्री। मगर पूरा मंत्रालय उनके जिम्मे था। इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा पर थी, तब प्रणव मुखर्जी ने एक मर्तबा केन्द्रीय मंत्रि परिषद को भी संबोधित किया था। जनता पार्टी के शासन में उन्होंने शाह आयोग की वैधानिकता को चुनौती दी थी और खुले आम इमर्जेन्सी की वकालत की थी। कई राजनैतिक मामलों में इंदिरा गांधी उनकी राय को सम्मान देती थी।

प्रणव मुखर्जी ने १९६६ में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की थी। इसके पहले वे कालेज में पढ़ाया करते थे। १९६७ में उन्हें प्रदेश कांग्रेस के सचिव का पद मिला। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री अक्षय मुखर्जी ने उन्हें आगे बढ़ाया। १९६९ में वे राज्यसभा के लिए चुने गए।

१९८० में वे लोकसभा का चुनाव हार गए थे। दिल्ली में कांग्रेस मंत्रिमंडल का शपथ समारोह था और वे दर्शकों के बीच बैठे थे। कहते हैं कि जब इंदिरा गांधी की नजर उन पर पड़ी, तब उन्होंने मुखर्जी को बुलाया और राज्यमंत्री के पद की शपथ दिलवाने की व्यवस्था की। मंत्रियों की सूची में उनका नाम नहीं था, मगर वे मंत्री बनाए गए। बाद में उन्हें गुजरात से राज्यसभा में भिजवाया गया। जनवरी १९८२ में वे वित्तमंत्री बनाए गए, तब उनकी उम्र ४६ साल की थी। वे भारत के युवतम वित्तमंत्री रहे हैं।

नाटे कद के प्रणव मुखर्जी हमेशा जोधपुरी कोट तथा पतलून पहनते हैं। वे पाइप पीते हैं। वे अध्यापन के अलावा पत्रकारिता भी कर चुके हैं। वे कुशल प्रशासक रहे हैं। भारत की आजादी के वक्त वे १२ साल के थे।

प्रकाश हिन्दुस्तानी

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