मकबूल फिदा हुसेन कला जगत के शोमैन हैं। ऐसे कलाकार, जिनका काम तो हमेशा चर्चा में रहता ही है, वे खुद उससे ज्यादा चर्चाओं में रहते है। लाखों रूपयों में अपनी चित्रकृतियां बेचनेवाले हुसेन के पिता इन्दौर की एक मिल में टाइमकीपर थे। अपनी आजीविका के लिए हुसेन ने कभी सिनेमा के होर्डिंग्स और बच्चों के फर्नीचर की डिजाइन बनाने का काम करीब दस साल तक किया।
३२ साल की उम्र में उनकी पहली चित्र प्रदर्शनी बम्बई में हुई। यह १९४७ का वर्ष था। आजादी का वर्ष। इसके बाद उनकी कुछेक कृतियां बड़ी चर्चित हुई। या यों कहे कि उन्होंने अपनी कृतियों को और खुद को किसी न किसी बहाने चर्चित बनाये रखा, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन चर्चा में बने रहने के बावजूद उन्होंने बरसों बरस कोई नुमाइश नहीं की। जैसे कोई गायक अपने घर में बैठकर घंटों रियाज करता है, वैसे ही हुसेन घंटों रंगों और वैâनवास से खेलते रहते। यहीं चमत्कार है कि जिस कलाकार की पहली कृति दस रूपये में बिकी थी, आज उसकी कृति उससे एक लाख गुना ज्यादा में बिकना आम बात है।
हुसेन की चर्चाओं का सबसे जोरदार दौर आया इमर्जेन्सी में, जब उन्होंने इंदिरा गांधी को दुर्गा के रूप में विचित्र किया था। वे फिर कला के अलावा भी अखबारों की सूर्खियों में रहे। कभी किसी क्लब में नंगे पांव जाकर निकाले जाने पर, कभी सफदर हाशमी की मौत के पहले उनका चित्र बनाकर, कभी हिन्दूजा परिवार की शादी का निमंत्रण कार्ड बनाकर, कभी भीमसेन जोशी के सुर पर चित्र बनाकर, कभी ‘हिना’ जैसी फिल्म के प्रीमियर का निमंत्रण कार्ड बनाकर, कभी पुनरावलोकन नुमाइश के नाम पर सपेâद लठ्ठा लगवाकर उसे श्वेताम्बरा नाम देकर, कभी अपनी सालगिरह पर घर में वैâबरे करवाकर, कभी सुनील गावसकर, कभी अमिताभ बच्चन और कभी सत्यजित रे के चित्र बनाकर, कभी किसी हिन्दू देवी-देवता का चित्र बनाकर और फिर उसे मिटाकर, कभी रेल्वे के टाइम टेबल का कवर बनाकर, कभी अपने बेटे को देश का सबसे प्रतिभावान कलाकार बताकर, कभी अपनी कार को रंगों में पोतकर, कभी ‘हुसेन की सराय’ बनाकर और अखबार वालों को कोई सुरी देकर विदेश में जाकर बैठे रहने पर वे चर्चाओं में रहे है।
अपनी असाधारण ‘प्रतिभा’ के बल पर वे ‘राज्यसभा’ में भी नामजद किये गये। वहां उनका कार्यकाल उपलब्धि के नाम पर जीरो रहा। लेकिन उनकी दूसरी उपलब्धियां इतनी महत्वपूर्ण हैं कि वे अपने आपमें ही मिथक बन गये है।
नवभारत टाइम्स 10 जनवरी 1993