शारदा प्रसाद सत्ता के गलियारे में रहे। उनके लिए मंत्री बनना कभी कोई कठिन बात नहीं थी। वे चाहते तो बिना मंत्री बने भी सत्ता के केन्द्र के रूप में धाक जमा सकते थे। अपने प्रिय लोगों का गिरोह बनाकर उसे स्थापित करना भी उनके लिए आसान था। मगर उन्होंने यह नहीं किया। वे चुपचाप अपना कार्य करते रहे। श्रीमती इंदिरा गांधी स्मृति न्यास से एम.वाय. शारदा प्रसाद का अलग होना त्रासदी ही कही जाएगी।
श्री होलेनरसीपुर योगनरसिम्हम् शारदा प्रसाद ने श्रीमती गांधी के प्रधानमंत्री बनने के दिन से लेकर उनके जीवन के आखिरी दिन तक उनके साथ काम किया है। वे इंदिरा गांधी के अत्यन्त विश्वासपात्र थे। सुना जा रहा है कि वे हटे इसलिए कि श्रीमती गांधी की २१ साल की उम्र की एक तस्वीर मिल नहीं रही है और सोनिया गांधी इससे खफा हैं।
शारदा प्रसाद सत्ता के गलियारे में रहे। उनके लिए मंत्री बनना कभी कोई कठिन बात नहीं थी। वे चाहते तो बिना मंत्री बने भी सत्ता के केन्द्र के रूप में धाक जमा सकते थे। अपने प्रिय लोगों का गिरोह बनाकर उसे स्थापित करना भी उनके लिए आसान था। मगर उन्होंने यह नहीं किया। वे चुपचाप अपना कार्य करते रहे।
शारदा प्रसाद ने इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई और राजीव गांधी-तीनों ही प्रधानमंत्रियों के प्रेस सलाहकार के रूप में काम किया है। वे तीनों के विश्वासपात्र रहे, लेकिन तीनों से उन्होंने एक गरिमामय दूरी भी बनाए रखी।
उन्होंने अपना सबसे ज्यादा वक्त इंदिरा गांधी के सलाहकार के रूप में बिताया। इंदिरा गांधी के कई महत्वपूर्ण भाषण उन्होंने लिखे हैं। एक बार इंदिरा गांधी को स्टॉकहोम में पर्यावरण पर भाषण देना था। उनके लिखे भाषण इंदिरा गांधी रद्द कर देतीं। एक दर्जन से भी अधिक बार शारदा प्रसाद को वह भाषण लिखना पड़ा, तब कहीं स्वीकृत हुआ। उस एक भाषण को लिखने में ही करीब पचास घंटे लगे। वे श्रीमती गांधी की पसंद-नापसंद का इतना ध्यान रखते थे कि भाषण तो उनका लिखा हुआ होता था, पर लगता था जैसे इंदिरा गांधी ने खुद लिखा हो।
प्रधानमंत्री के प्रेस सलाहकार के रूप में वे अपने आप को प्रधानमंत्री का तबलची कहा करते थे। ऐसे भी मौके आए जब प्रधानमंत्री प्रात: दर्शन के वक्त लोगों ने उन्हें चमचा तक कह डाला। पर वे अविचलित रहे। प्रधानमंत्री की निकटता का उपयोग उन्होंने किसी को अपमानित करने के लिए कभी नहीं किया, बल्कि उन्होंने इससे दूसरों की प्रतिष्ठा बचाने में मदद ही की। एक बार इंदिरा गांधी ने मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो एक मंत्री को हटा दिया। वह मंत्री शारदा प्रसाद के पास पहुंचे और कहने लगे कि मुझे अभी मंत्री बनवा दीजिए। दो हफ्ते बाद मैं खुद ही किसी बहाने से हट जाऊंगा। शारदा प्रसाद की सिफारिश पर उस मंत्री को शपथ दिलवाई गई और बाद में वे खुद ही मंत्री पद से हट गए। इस तरह उन मंत्री महोदय की छवि अच्छी बन रही।
१५ अप्रैल १९२४ को जन्मे शारदा प्रसाद विद्यार्थी जीवन में ही लेखन की तरफ प्रवृत्त हुए। वे छात्र थे तभी कन्नड़ में उनके कई लेख छप चुके थे। वे भारत छोड़ो आंदोलन में डेढ़ साल जेल में रहे। मद्रास के इंडियन एक्सप्रेस में उप सम्पादक के रूप में उन्होंने पत्रकारिता में प्रवेश किया। यह १९४५ का वह दिन था, जब ब्रिटेन में लेबर पार्टी जीती थी।
एक साल बाद उनका तबादला बंबई कर दिया गया। छह साल में ही वे समाचार सम्पादक बन गए। वे अ.भा. श्रमजीवी पत्रकार महासंघ में भी सक्रिय थे और एक विवाद के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा। १९५५ में उन्हें हार्वर्ड विश्वविद्यालय की पैâलोशिप मिली। जब वे १९५६ में भारत लौटे तो केन्द्रीय सूचना सेवा में शामिल हो गए। खुशवंतसिंह के बाद उन्हें योजना का प्रधान सम्पादक बनाया गया। नेहरूजी के अवसान के बाद उनके जीवनन पर आयोजित एक प्रदर्शनी के आयोजन के दौरान उनका सम्पर्वâ श्रीमती इंदिरा गांधी से हुआ। श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बनीं- उसी दिन वे उनके प्रेस सलाहकार नियुक्त हो गए।
शांत, सौम्य, अल्प और मृदुभाषी शारदा प्रसाद अंतर्मुखी हैं। वे कभी पार्टियों में नहीं जाते। शाकाहारी हैं और चाय तक से परहेज करते हैं। राजाराव, आर.के. नारायण जैसे लेखक उनके घनिष्ठ मित्र हैं।