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अक्षय कुमार की फिल्म रक्षा बंधन का नाम होना चाहिए था -'दहेज का दानव' या 'दहेज की कु परंपरा' अथवा 'जानलेवा दहेज'। फिल्म में यही सब दिखाया गया है। रक्षा बंधन के दिन रिलीज इस फिल्म की मार्केटिंग बहुत ही अच्छे तरीके से की गई है।
फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज के अनुसार अक्षय कुमार ने लखनऊ, दिल्ली, कोलकाता, इंदौर आदि शहरों में रक्षा बंधन के ठीक पहले जाकर जिस तरह से खरीदारी की और आम लोगों के बाजारों में गए, वह फिल्म प्रमोशन का शानदार तरीका था। पर अक्षय कुमार का फार्मूला भी कोई बहुत काम नहीं आया. लाल सिंह चड्ढा का प्रदर्शन तो ख़राब रहा ही, इस फिल्म की शुरूआत तो उससे भी बुरी हुई।
दहेज़ समस्या को लेकर पहले भी कई फिल्में बनी हैं। 'दहेज', '100 दिन सास के', 'दावत ए इश्क', 'यह आग कब बुझेगी', 'दूल्हा बिकता है', 'लज्जा', 'अंतर्द्वंद' आदि फिल्में दहेज़ की समस्या पर ही बनी थीं। रक्षा बंधन भी इसी विषय पर है।
रक्षा बंधन में भाई बहनों के इमोशनल दृश्यों से अधिक कॉमेडी के दृश्य हैं। एक नौजवान को अपने चार बहनों की शादी करनी रहती है उसके बाद ही वह शादी करेगा, ऐसी कसम उसने अपनी माँ की मौत के पहले खाई थी. दहेज़ के कारण उसकी बहनों की शादी नहीं हो पाती तो उधर उसकी गर्ल फ्रेंड उस पर दबाव डालती है कि जल्दी शादी करो। इधर हीरो अपनी बहन के लिए दहेज जुटाने में ही जुटा रहता है. यही द्वंद और अंतर्द्वंद इस फिल्म को लेकर आगे बढ़ता है।
फिल्म की कहानी लचर है। दहेज जैसी कुप्रथा के खिलाफ फिल्म कोई आवाज नहीं उठाई गई है, बल्कि अक्षय कुमार एक ऐसे कमजोर व्यक्ति के रूप में उभरता है जो अपनी बहनों की शादी के लिए दहेज जुटाने की कोशिश में अपनी चलती हुई दुकान को गिरवी रख देता है और यहां तक कि अपनी एक किडनी भी बेच देता है। बहनों को शादी में दहेज देने के लिए वह विवाह में मध्यस्थता करनेवाली महिला की चापलूसी भी करता है, लेकिन दहेज़ का विरोध न तो वह करता है, न उसकी बहनें और न ही उसकी गर्लफ्रेंड ! बाद में जब उसकी एक बहन की लाश रक्षा बंधन के दिन आती है, तब कहानी में मोड़ आता है।
अझेलनीय, अतिरंजित लचर फिल्म है।
11 August 2022