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'बत्ती गुल मीटर चालू' फिल्म एक ऐसी कार की तरह है,जिसके हॉर्न को छोड़कर सबकुछ बजता है।  कुछ अच्छे संवाद, गाने, लोकेशन और शाहिद कपूर का डांस के स्टेप्स अच्छे हैं, लेकिन टॉयलेट वाली प्रेम कहानी के नारायण सिंह की यह पूरी फिल्म सरकार के विकास के बजाते ढोल की बैंड बजा देती है। भाषण पर भाषण, भाषण पर भाषण; मोदी जी कहते कि देश के हर गाँव में बत्ती लगा दी गई है, फिल्म कुछ और कहानी कहती है। पूरे देश में बिजली उपभोक्ता किस तरह परेशान हैं, इसमें उसकी झलक है। 

 
यह कोई राजनैतिक फिल्म नहीं है, यह प्रेम त्रिकोण पर बनी फिल्म है। प्रेम त्रिकोण को शोखी में जन समस्या का शबाब डालकर बनाई इस फिल्म में मोहब्बत का जूना-पुराना फार्मूला ! मुलम्मा नया! कुछ संवाद और गानों के बोल बहुत अर्थपूर्ण हैं जैसे लड़ाई में जीतना ज़रूरी नहीं है, ज़रूरी है लड़ना। लेकिन यह कहानी लड़नेवाले की नहीं,भागनेवाले की है।  टॉयलेट और सेनेटरी पैड के बाद इस फिल्म में फ़्यूज्ड बल्ब से क्रांति लाने की कोशिश की गई है। जान समस्या को आगे लाने का इरादा नेक है, लेकिन निर्वाह पलायनवादी है। इससे दर्शकों को फिल्म में मज़ा नहीं आ पाता।
 
फिल्म का कमज़ोर पक्ष इसकी कहानी है। नई टिहरी की कहानी शुरू  करने के ऋषिकेश, मसूरी, नैनीताल आदि की लोकेशंस सुंदर लगी, लेकिन कुमाऊंनी के इस्तेमाल के चक्कर में इतनी बार 'बल' बोला जाता है कि हंसी आती है। नैनीताल के हाई कोर्ट के दृश्य इतने नकली और हास्यास्पद हैं कि विषय गंभीरता ख़त्म कर देते हैं।  
 
21 sept 2018

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