जिंदगी में खुशियां ही सबकुछ नहीं होती। कभी पैसे खर्च करके भी रोने का मन करें, तो प्रियंका चोपड़ा की नई फिल्म हाजिर है। फिल्म देखकर लगा कि जायरा वसीम ने हिन्दी फिल्म दर्शकों पर बड़ा उपकार किया कि अभिनय की दुनिया त्याग दी। अगर आपके पास दिल्ली के पास छतरपुर में स्वीमिंग पुल वाला शानदार फॉर्म हाउस है, पैसे की कोई कमी नहीं है, घर नौकर-चाकरों से भरा पड़ा है, तनख्वाह पाने के लिए बॉस से डांट नहीं खानी पड़ती या कारोबार में कोई झिकझिक नहीं करनी पड़ती, भूतपूर्व मिस वर्ल्ड जैसी बीवी, दो बच्चे और एक कुत्ता आप अफोर्ड कर सकते है, तो आपको पूरा हक है कि इमोशनल हुआ जाए। अगर आपके पास यह सब नही और जबरन इमोशनल होना ही हो, टसुएं बहाने का मूड हो, तब प्रियंका चोपड़ा के नाम पर 200-500 रुपये स्वाहा किए जा सकते हैं।
थीम अच्छी है। परिवार का महत्व फिल्म में समझ आता है। अस्पताल में और अस्पताल के इर्द-गिर्द चक्कर काटने वालों की जिंदगी का एहसास करना चाहते हैं, तो यह फिल्म दर्शनीय है। 37 साल की प्रियंका चोपड़ा की फिल्मी उमर 16 साल है, लेकिन इसमें उन्होंने 50 साल की, दो बच्चों की मां की भूमिका सजीव कर दी है। प्रियंका इसके पहले कई फिल्मों में अपनी एक्टिंग का लोहा मनवा चुकी है। मैरीकॉम, बर्फी, सात खून माफ, फैशन, अंदाज आदि की तरह ही इसमें भी प्रियंका का शानदार अभिनय है। उनके पति की भूमिका में फरहान अख्तर भी कम नहीं हैं। एक बायोपिक के रूप में यह फिल्म दर्शकों को रोने पर मजबूर कर देती है। कई बार तो इमोशन की अति हो जाती है। जिंदगी और मौत जीवन की सच्चाई है, जो व्यक्ति इस बात को जानता है, वह इसमें ज्यादा इमोशनल नहीं होगा। मृत्यु एक तरह से एक्सटेंडेड जीवन की तरह ही है। उसके बारे में कोई नहीं जानता।
एक छोटी बच्ची को स्कूल में ड्राइंग टीचर सजा इस बात की देती है कि बच्ची ने ड्राइंग में आकाश का रंग गुलाबी चित्रित कर दिया। कहानी कहती है कि हर बच्चे का अपना आकाश है और वह उसमें अपनी मनपसंद के रंग भरता है। आकाश को सिर्फ नीला कहना शायद उचित नहीं होगा। शानदार फलसफा। इसके आगे यह कहा जाना चाहिए कि जब सबका आकाश अलग-अलग रंगों का है, तो यह आग्रह भी नहीं करना चाहिए कि सभी एक रंग में अपने आकाश को रंगे या दूसरे आकाश के रंग को भी स्वीकार कर लें। जिंदगी में सभी को अपने-अपने सलीब ढोना हैं। हर माता-पिता के लिए उनके बच्चे सबसे अहम होते हैं, लेकिन जिनके पास साधन और सुविधाएं नहीं हैं, क्या वे अपने बच्चों से कम लगाव रखते है? कहानियां राजा-रानियों की होती है, लेकिन जो राजा-रानी नहीं है, क्या उनकी कहानी कहानी नहीं होती? हर व्यक्ति के लिए तो दिल्ली और लंदन, ठाणे और मुंबई की तरह नहीं हो सकता। फिल्म में नायिका की बेटी की मौत होना तय है, लेकिन मृत्यु के पहले ही पूरा परिवार मौत के साये में जी रहा है। जिस परिवार में सभी पात्र असामान्य हो, वह फिल्म दुखी कर देती है। जानलेवा बीमारी और मृत्यु का इंतजार करते पात्र की कहानियों में आनंद सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली फिल्म है।
एक छोटी बच्ची जो आईसीआईडी नामक गंभीर बीमारी से त्रस्त है और उससे लड़ते-लड़ते उसे पलमोनरी फाइब्रोसिस नामक लाइलाज बीमारी हो जाती है। इंफेक्शन का इतना डर है कि वह खुलकर कही आ-जा नहीं सकती। ऐसे में उसकी मां चाहती है कि वह सामान्य जिंदगी जिए, पढ़ाई करें, पेंटिंग करें, ब्वाॅयफ्रेंड बनाए, पिकनिक करें, हर वह काम करें, जो सामान्य बच्चे करते है। इस सबके बीच घुटती हुई उस लड़की के बारे में कम सोचा जाता है। एक स्थिति आती है, जब उसके फेफड़े ठीक से काम नहीं करते, तब फेफड़े ट्रांसप्लांट करने तक को उसके पिता राजी हो जाती है, ताकि उसकी उम्र 10 साल और बढ़ सकें। ये 10 साल अस्पताल के बिस्तर पर ही बीत सकते है। एक संपन्न परिवार अपने बच्चों की हर जरूरत को पूरी कर सकता है। उस बच्ची की जरूरत भी पूरी की जाती है और फ्लैशबेक में बच्ची की माता-पिता की लव स्टोरी के सीन चिपके हुए मिलते है। इस फिल्म में प्रियंका के बेटे का रोल निभाया है रोहित सराफ ने और इस युवा कलाकार ने अच्छी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है।
फिल्म समीक्षकों ने फिल्म की बहुत प्रशंसा की है। अगर आप यह फिल्म देखने जाएं, तो शुद्ध मनोरंजन के बजाय एक इमोशनल फिलिंग को देखने के अंदाज से जाएं। फिल्म के कई दृश्य आपको अनावश्यक भी लगेंगे।