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ताजमहल बहुत सुंदर है, हमने सुना है, उसे देखा नहीं। हवाई जहाज में बैठने में बहुत मजा आता है, हमने सुना है पर हम कभी हवाई जहाज में नहीं बैठे। समंदर में बहुत ज्यादा पानी होता है, हमने सुना है पर हमने उसे देखा नहीं, लेकिन हमारे बच्चे यह सब देखेंगे। हमारी बेटियों के नाखूनों पर गोबर लगा है, लेकिन वहां भी कभी नेल पॉलिश लगेगी। यही मूल स्वर है सांड की आंख फिल्म का। जेंडर इक्वेलिटी पर बनी यह फिल्म अतिनाटकीय है। फिल्म मन को छूं जाती है और छोटी-मोटी कमियों को भुला दें, तो यह एक शानदार फिल्म है। 

आमिर खान के सत्यमेव जयते कार्यक्रम में शामिल होने वाली बागपत के जौहर गांव की दो दादियों की विस्तृत कहानी है यह फिल्म, जिन्होंने 60 साल की उम्र में निशानेबाजी सीखना शुरू किया और फिर कई अवार्ड जीते। बागपत के उस गांव में महिला और पुरुषों के काम तय है। महिलाएं घर का सारा काम करती है। खाना बनाती है, पति की सेवा करती है, खेती का भी पूरा काम करती है, इसके अलावा ईंट भट्टे का काम भी करती है और अपने परिवार को मोहल्ले में तब्दील करने के लिए लगातार बच्चों को जन्म भी देती है। मर्दों के काम हैं दिन भर हुक्का पीना, पत्नियों पर हुक्म चलाना और वंश को आगे बढ़ाने के लिए कार्य करना। फुरसत मिलने पर वे अपने पत्नियों पर कंट्रोल करने के लिए सारे जतन भी करते है। जब दोनों दादियां शूटिंग में विजेता होती हैं, तब उनसे पूछा जाता है कि वाह दादी आप क्या खाती है? तब दादी का जवाब होता है - गाली। यह एक शब्द ही यहां पूरी कहानी कहने के लिए पर्याप्त है। 

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चंद्रो तोमर बनी भूमि पेडनेकर और प्रकाशी तोमर बनी तापसी पन्नू ने बहुत अच्छी एक्टिंग की हैं, लेकिन वे दादी जैसी लगती नहीं। उनका मेकअप इतना भद्दा है कि वे युवा भी नहीं लग पाती। दोनों दादियों की कहानी को नाटकीयता से पेश किया गया है। साथ ही महिला और पुरूष की समानता का मुद्दा भी उसमें जोड़ दिया गया है। हंसी मजाक के प्रसंग के लिए कहानी में टि्वस्ट दिया गया है और इमोशन का तड़का भी लगा दिया गया है। प्रकाश झा इस फिल्म में बूढ़े ताऊ बने है, जो पूरे दिन कुर्सी या खटिया पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते है और अपनी सरपंची का रौब जमाते है। 

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फिल्म के गानों में कुछ बोल द्विअर्थी भी है। तोमर परिवार की बहूएं घूंघट रखती है और उन्हें पहचानने के लिए उन्होंने अपनी पसंद के कपड़े के रंग तय कर रखे है, ताकि फिल्म में तीनों भाइयों की पत्नियां बिना घूंघट हटाए पहचानी जा सकें। इन महिलाओं को पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिला और गांव से बाहर जाने की नौबत भी नहीं आई। घर और खेत खलियान ही पूरी जिंदगी है। परिवार की नई बच्चियों के लिए भी यही बंधन हैं। ऐसे में 60 वर्ष की उम्र में ये दादियां गांव में ही एक डॉक्टर से शूटिंग कोच बने विनित कुमार से शूटिंग की ट्रेनिंग लेती है। कहानी के अनुसार 4 साल तक दादियां निशानेबाजी सीखती और प्रतियोगिताओं में भाग लेती है, लेकिन आधुनिकता उन्हें छू नहीं पाती। अव्वल तो निशानेबाजी कोई आम खेल नहीं है, उसमें काफी संसाधन जुटते है। ऐसे में कहानी न्याय नहीं कर पाती। परिवार के सभी मर्द एक जैसे हो, यह बात भी अटपटी लगती है। पितृसत्तात्मक परिवार के मुद्दों को दिलचस्प तरीकों से उठाया गया है। साथ ही गांव की राजनीति की भी झलक फिल्म में दिखती है। फिल्म का एक डायलाग है, तन बुड्ढा होता है, मन बुड्ढा नहीं होता। फिल्म में बुजुर्ग खिलाड़ियों का मजाक उड़ाते दूसरे खिलाड़ियों को दिखाया गया है। आमतौर पर ऐसा नहीं होता। सार्वजनिक रूप से तो सभी खिलाड़ी एक-दूसरे का सम्मान करते है। भारत विविधता वाला देश है। इसमें बुजुर्गों का मजाक नहीं उड़ाया जाता। नाटकीय बनाने के लिए तैयार किए गए ऐसे दृश्य अटपटें लगते हैं। 

तीरंदाजी या राइफल शूटिंग में लक्ष्य के सबसे छोटे बीच वाले गोल बिंदू को बुल्स आई कहा जाता है, जिस पर निशाना लगाने के सबसे अधिक अंक मिलते है। इस बुल्स आई का अनुवाद सांड की आंख किया गया है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसी अर्जुन की चिड़िया की आंख थी। मनोरंजक और सौद्देश्य फिल्म है। पैसे वसूल हो जाते है। अवश्य जा सकते हैं। 

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