फिल्म होटल मुंबई इसलिए देखनीय है कि इसमें 26 नवंबर 2008 को मुंबई में हुई आतंकवादी हमले का एक हिस्सा बेहद यथार्थ रूप में दिखाया गया है। यह पूरी फिल्म बंबई पर हुए हमले के बजाय ताज होटल पर हुए हमले और वहां के बचाव कार्यक्रम पर केन्द्रित है। फिल्म का हर दृश्य दहशत से भरा हुआ है और दर्शक चौकन्ना होकर सीट पर चिपका रहता है। आतंकियों के मनोविज्ञान और ताज होटल में बंधक बने करीब 1700 अतिथियों और कर्मचारियों की आपबीती का अंदाज इस फिल्म को देखकर होता है। यह भी समझ में आता है कि टीवी मीडिया ने किस तरह आतंकवादियों और उनके सरगनाओं की मदद की, क्योंकि टीवी पर लाइव कवरेज देखते हुए आतंकियों का सरगना दिशा-निर्देश देता रहा।
यह फिल्म बताती है कि आपातकालीन स्थितियों से जूझने के लिए हमें हर स्तर पर पूरी तरह तैयार रहना चाहिए। मुंबई पुलिस के कुछ अधिकारियों की जाबांजी भी सराहनीय है, जिनके कारण 1700 में से करीब 1600 अतिथियों को बचाया जा सका। होटल के कर्मचारियों ने जिस निष्ठा के साथ अपनी जान पर खेलकर अतिथियों को बचाया, वह अब एक इतिहास बन चुका है। इस हमले में ताज होटल को करीब 160 करोड़ रुपये का नुकसान भी हुआ था। जान और माल का नुकसान इससे कई गुना ज्यादा हो सकता था, अगर पुलिस के कुछ अधिकारी और होटल के कर्मचारी सक्रियता नहीं दिखाते।
फिल्म देखते हुए लगता है कि आप थिएटर में नहीं, बल्कि होटल के किसी कमरे में बंद हैं। होटल में आतंकवादी घुस आए हैं और उनके पास अत्याधुनिक हथियार हैं और वे केवल लोगों को मारने के लिए घुसे हैं। फिल्म का एक-एक चरित्र सवा दो घंटे में उभरकर सामने आ जाता है। आतंकियों के निशाने पर भारतीयों से ज्यादा विदेशी पर्यटक होते हैं और उनमें भी खासकर अमेरिकी। आतंकी हमले का उद्देश्य ही था कि अमेरिका को धमकाना। होटल के अतिथियों में सभी उम्र के लोग शामिल थे। आतंकियों ने अतिथियों को बचाने वाले होटल कर्मचारियों को गिन-गिनकर मारा। होटल में आग लगाई, बम विस्फोट किए और होटल के बाहर मौजूद सैकड़ों टीवी कैमरामैन और रिपोर्टरों को अपनी ताकत का एहसास कराते रहे। दिल्ली से स्पेशल कमांडों बल के आने के बाद ही हालात पर काबू पाया जा सका।
फिल्म की शुरुआत मुंबई के कफ परेड इलाके में घुसी मछलीमार नौका पर सवार होकर आए 10 आतंकियों से शुरू होती है। शुरू के कुछ मिनिट आतंकियों की गोलीबारी और हमले दिखाए जाते हैं। वीटी स्टेशन पर आतंकियों का हमला और उसके बाद होटल ताज महल में आतंकवादियों का घुसना। हो सकता है कि इस फिल्म के बनने तक होटल के कर्मचारियों को और विशेष प्रशिक्षण दे दिया गया हो, लेकिन यह बात स्पष्ट है कि जब जान पर बनती है, तब दुनिया के सभी देशों से आए लोगों की प्रतिक्रिया एक जैसी होती है। कुछ सनकी लोग भी होती है, जिन्हें केवल अपनी जान की पड़ी रहती है। कुछ बहादुर होते है, जिन्हें अपने साथ ही दूसरों की भी चिंता रहती है। ताज होटल में दुनिया के जाने-माने नेता, अधिकारी, उद्योगपति और अन्य विशिष्ट लोग ही ठहरते हैं। उन लोगों की सेवा के लिए होटल के स्टॉफ को कितनी मेहनत करनी होती है, इसकी झलक भी फिल्म में है।
यह फिल्म आतंकी हमले के एक साल बाद बनी एक डॉक्युमेंट्री ‘सर्वाइविंग मुंबई’ से प्रेरित है। इसे भारत, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के लोगों ने मिलकर बनाया है। ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में यह फिल्म 7 माह पहले ही रिलीज हो चुकी है। निजता का ख्याल रखते हुए किसी भी चरित्र को जीवित व्यक्ति से नहीं जोड़ा गया है। फिल्म में टीवी के कुछ फुटेज भी दिखाए गए है, जिससे फिल्म की विश्वसनीयता बढ़ गई है। काफी रिसर्च के बाद यह फिल्म बनाई गई है और इसमें कोई फॉर्मूला, गाने आदि नहीं है। ताज होटल के बारे में जिस तरह का विस्तृत विवरण दिखाया गया है, वह किसी भी प्रोफेशनल होटेलियर के लिए महत्वपूर्ण है। यह फिल्म किसी का पक्ष नहीं देती, बल्कि तटस्थ भाव से पूरी कहानी व्यक्त कर देती है। अनुपम खेर इस फिल्म में शेफ की भूमिका में है। उनका रोल फिल्म ए वेंसडे की भूमिका जैसा है। फिल्म के निर्माता ने फिल्म को माइक्रोस्कोपिंग चश्मे से भी देखा है और टेलिस्कोपिक लेंस से भी। यानी जहां बारिकी दिखानी है, वहां बारिकी और जहां विशालता दिखानी हो, वहां विशालता। फिल्म में किसी भी कलाकार के लिए कोई अतिरिक्त रोल नहीं जोड़ा गया है। मुंबई में हुए हमले में लोगों को जिस तरह हिला दिया था, वैसे ही यह फिल्म भी हिला देती है। फिल्म के अधिकांश कलाकार और निर्देशक भी विदेशी है। प्रमुख भूमिकाओं में अनुपम खेर और देव पटेल को ही लोग पहचानते है। आर्मी हैमर, नाज़नीन बोनेदी, टिल्डा कोहम, जैकब आईजैक आदि से शायद ही भारतीय दर्शक परिचित हो।
कुल मिलाकर देखने लायक फिल्म है। इसमें इतिहास भी है, सुरक्षा व्यवस्था बेहतर बनाने के संदेश भी है, मानवीय व्यवहार भी है और आतंक पर मानवीयता की जीत भी है। अंत का एक गाना भारतीयों को गर्व से भर देता है।
29 November 2019