डॉ. वेदप्रताप वैदिक पत्रकार, वक्ता और शोधार्थी के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने हिन्दी को उचित सम्मान देने के लिए भी कार्य किया। एक राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार के रूप में उनकी उपस्थिति प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों देखी जा सकती है। राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के जानकारों के रूप में उनकी ख्याति है। वे करीब १० साल तक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में कार्य कर चुके हैं। हिन्दी समाचार एजेंसी ‘भाषा’ के संस्थापक-सम्पादक के रूप में उन्होंने भाषा से जुड़े कई प्रयोग किए।
श्रवण गर्ग ने हिन्दी पत्रकारिता में दो योगदान दिए हैं। पहला तो उन्होंने सम्पादक नामक प्रजाति को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और दूसरा इस प्रजाति की कार्यशैली में आमूलचूल परिवर्तन की व्यवस्था की। अखबार के सम्पादक को उन्होेंने लाइब्रेरी से बाहर निकालकर न्यूज डेस्क की मैनस्ट्रीम में पहुंचाया और उसका दायरा अग्रलेख और सम्पादकीय पेज से बाहर पैâलाया। आज यदि हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार मध्यप्रदेश के बाहर पूरे देश में हो रहा है, तो इसके पीछे श्रवण गर्ग की मेहनत भी छिपी है। श्रवण गर्ग ने पत्रकारिता में हैँण्ड कम्पोजिंग से लेकर कम्प्यूटर नेटवर्विंâग तक के दौर में काम किया है।
वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक नई दुनिया के पूर्व संपादक, पद्मश्री अभय छजलानी अब हमारे बीच नहीं रहे। गुरुवार, 23 मार्च २०२३ को अल सुबह उनका निधन हो गया। वे लंबे समय से बीमार थे। वे मध्य प्रदेश टेबल टेनिस संगठन के अध्यक्ष रह चुके हैं। वे इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी (इलना) के पूर्व अध्यक्ष थे, इसके लिए उन्हें 2002 में चुना गया था। भारत सरकार ने उन्हें पत्रकारिता में योगदान के लिए 2009 में पद्म श्री के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया था। अभय छजलानी का जन्म 4 अगस्त 1934 में हुआ था।
राहुल बारपुते उन सम्पादकों में से हैं, जिन्होंने अपने खून-पसीने से हिन्दी पत्रकारिता की नींव की सींचा। उन्होंने आजाद भारत की नई विधा की हिन्दी पत्रकारिता की दिशाएं तय की और नई पौध तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह बाबा यानी राहुल बारपुते का ही कमाल था कि राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, शरद जोशी, आलोक मेहता, डॉ. रणवीर सक्सेना, नरेन्द्रकुमार सिंह जैसे सम्पादक तैयार हो सके।
7 अगस्त, जन्मदिन के अवसर पर...
आजकल अखबारों का सम्पादकीय पन्ना ‘वेस्ट मटेरियल' बनता जा रहा है, जिस पन्ने पर लोग सबसे ज्यादा भरोसा करते थे और जिसे पढ़ने के लिए न केवल आतुर रहते थे, बल्कि जिसके एक-एक शब्द को पाठ्यपुस्तक की तरह पढ़ा जाता था, वह अब न्यूजपेपर नाम के प्रॉडक्ट का लगभग अवांछित हिस्सा बन गया है।