हीरो तस्कर है। उसका बाप भी तस्कर है।उसका चाचा भी तस्कर है। हीरो को तस्करी, गुंडागर्दी और हिंसा में खूब मजा आता है, लेकिन वह तस्करी का धंधा छोड़कर शरीफ आदमी इसलिए बन जाता है क्योंकि उसका बाप नर बलि करने लगता है और उसकी जुड़वा बहन की ही बलि चढ़ा देता है। बाप से भागकर बेटा शरीफ लोगों की जिन्दगी जीने लगता है, पर वहां भी लफड़े ! हीरो तस्करी का धंधा मज़बूरी में छोड़ता है, नैतिकता में नहीं।
फिल्म में हिंसा और मारधाड़ के अलावा बेसिर पैर की कहानी, जबरन ठूंसे गए गाने और गले नहीं उतरनेवाले घटनाक्रम के अलावा कुछ नहीं है।
कश्मीर के पहलगाम, गुलमर्ग और सोनमर्ग की वादियों के नज़ारे और लर्निंग मशीन्स तथा ए आई जैसे मोकोबोट कैमरे से शूट किये गए फाइटिंग सीन भी ज्यादातर दर्शकों को लुभा नहीं पाएंगे।
विजय के अंधभक्त ही इसे पसंद कर सकते हैं।
विजय पहले इस फिल्म को हिंदी में नहीं बनाना चाहते थे, लेकिन निर्देशक के आग्रह पर उन्होंने इस फिल्म को हिंदी में भी बनाना स्वीकार किया। संजय दत्त को एक प्रमुख खलनायक की भूमिका दी, लेकिन फिर भी यह फिल्म हिन्दी भाषी दर्शकों को पसंद शायद ही आए।
फिल्म में हिंसा का अतिरेक है। जहां हिंसा की जरूरत नहीं थी, वहां भी एक्शन के नाम पर हिंसा ! चाहे वह लकड़बग्घा पकड़ने का दृश्य हो या नशा बनाने वाली फैक्ट्री में हुई मारपीट का। एक्शन के नाम पर हीरो को ही आदमखोर टाइप दिखाया गया है।
फिल्म में रोमांस है ही नहीं, क्योंकि कहानी की मांग रोमांटिक दृश्य की थी ही नहीं। गाने भर्ती के हैं। संगीत के नाम पर शोरगुल !
विजय होंगे दक्षिण भारत के सुपरस्टार! तृषा होगी दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय और प्रिया आनंद भी होगी तमिल की प्रिय कलाकार, लेकिन इनमें से कोई भी हिंदी के दर्शकों को प्रभावित नहीं कर पाता।
संजय दत्त को मुख्य खलनायक के रोल में लिया गया है और अनुराग कश्यप उनके गुर्गे के दो मिनट के रोल में हैं। हिंसक तस्कर के रूप में संजय दत्त राक्षसी व्यवहार करते नजर आते हैं।
फिल्म में गोली चलाना, खंजर भोंक देना, चाकू मार देना, हथौड़े से सिर फोड़ देना, बल्लम शरीर को आर पार कर देना तो ऐसे दिखाया गया है मानो कोई पॉपकॉर्न खा रहा हो।
हीरो अपने कैफे में आए पांच डाकुओं से अपनी इकलौती कर्मचारी और बेटी को बचाने के लिए 5 अपराधियों को गोली मार देता है। थोड़े ही दिन में फैसला आ जाता है और वह बेगुनाह साबित हो जाता है।
इस फिल्म में तर्क की कोई जरूरत है ही नहीं। बात बात पर हिंसा दिखाई गई है। कुछ दृश्य तो होम अलोन फिल्म की नक़ल लगते हैं। लकड़बग्घे को पालतू जानवर जैसा दिखाया गया जो संभव नहीं है। फिल्म कानून और व्यवस्था का मजाक बनाती है।
तमिल के सुपरस्टार थलापति विजय की 'लियो' फिल्म वैसी ही है जैसे कोई काजू दिखाकर मूंगफली टिका दे। डिब्बा काजू कतली का हो और अंदर सोनपापड़ी निकले! निहायत ही बकवास फिल्म है। बेसिर पैर की। अगर आपको पागल कुत्ते ने काटा हो तो आप यह फिल्म देखने जा सकते हैं।
डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
खीर में हींग का छौंक है 'गणपत'