मैं नासमझ संदीप रेड्डी वंगा की कबीर सिंह को ही सबसे वाहियात फिल्म समझ रहा था, लेकिन जब एनिमल देखी तो लगा कि यह तो उससे भी आगे है। एनिमल मेरे जीवन की सबसे वाहियात फिल्मों में से है। आप इस फिल्म को जरूर देखिए ताकि पता चल सके कि फिल्में कितनी घटिया भी बन सकती हैं ! और ऐसी फिल्म बनाने के लिए इसके निर्माता का नाम इतिहास में दर्ज होना चाहिए। मैं न तो इसके निर्माता से मिला हूँ और न ही कलाकारों से। मेरे मन में उनके प्रति कोई आग्रह या दुराग्रह नहीं। न मेरा उन पर धेला बाकी है न उनका मुझ पर। मैं उनकी 'महानता' से भी प्रभावित नहीं हूँ।
पहले लगा कि मैं शायद गलती से किसी कोरियाई फिल्म को देखने आ गया हूं, जिसमें वैसी ही तर्कहीन बातें, हिंसा का अतिरेक, घटिया हाव भाव, संवाद और बेतुकी बातें हैं, लेकिन मीडिया से पता चला कि यह तो एक ऐसी फिल्म है जो सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके बनाई गई है और हिंदी के अलावा तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ में भी बनी है। यानी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक समान....है।
फिल्मी मीडिया रिपोर्ट्स को देखा तो पता चला कि इसके निर्माता ने दर्शकों से वादा किया था कि वह एक 'असली वायलेंस' वाली फिल्म बनाएंगे। असली वायलेंस ! और वह उन्होंने बना ली। अपना वादा निभाया। यह वादा क्यों किया था, किससे किया था, किसके कहने पर किया था, पता नहीं, लेकिन वादा किया था, यह मीडिया रिपोर्ट्स में है। कितने महान है ! नेता वादा निभाएं या न निभाएं, फिल्म निर्माता ने निभाया। जनता को चाहिए कि उनका सम्मान करें। उन्हें पद्म सम्मान, भारत रत्न प्रदान करें। दादा साहब कोंडके सम्मान प्रदान करें। उन्हें 'गोल्डन बनाना' से नवाजे, क्योंकि फिल्म में मारधाड़ का एक सीक्वेंस 18 मिनट का है। पूरे 18 मिनट !
हर 5 मिनट में खून खराब होता है। हीरो के पास बंदूक है लेकिन वह गोली से नहीं मारता। किसी की आंख में चाकू मार देता है तो किसी का गला ज़िबह कर देता है। किसी को खंजर घुसेड़ देता है। 18 मिनट में हिंसक सीन में पहले चाकू-खंजर चलता है, फिर बंदूक और अंत में एक ऐसी मॉन्स्टर मशीन ले आता है जो एक सेकंड में 100 से अधिक फायर कर सकती है। वह सैकड़ों लोगों को भून देता है, पर पुलिस कभी नहीं आती। हीरो को छूट है कि वह भारत में कोई क्राइम करे या स्कॉटलैंड में, कानून और व्यवस्था कभी दिखाई नहीं देती।
फिल्म में 'आधे संवाद' पंजाबी में हैं और 'आधे अंग्रेजी' में ! हिंदी में भी कुछ संवाद होंगे, ऐसा मुझे एहसास हुआ। वैसे इस फिल्म में संवाद की जरूरत थी ही नहीं, क्योंकि हीरो कुछ समय बाद अपनी सुनने की शक्ति खो देता है और खलनायक गूंगा है। बेचारी हीरोइन के होंठ केवल किस करने के काम आते हैं!
इस फिल्म का हर नारी पात्र गरिमाहीन दिखाया गया है। उसकी कोई आवाज नहीं है। ना ही कोई नैतिकता है, ना ही परिवार के प्रति वह अपना दायित्व निभा पाती है। हर महिला पात्र किसी ने किसी पुरुष की कठपुतली है!
इस फिल्म को देखकर लगता है कि इस देश के जितने भी मालदार लोग हैं, सब गधे होते हैं। उनकी बात उनके बच्चे नहीं सुनते। वे अपने बच्चों की बात नहीं सुनते। उनके परिवार में दामाद और चाचा आदि का काम षड्यंत्र के अलावा कुछ नहीं होता।
समझ में नहीं आता कि फिल्म में भी जब किसी के साथ गलत होता है तो वह कानून का सहारा क्यों नहीं लेता? इस फिल्म में हिंसा, चुंबन दृश्यों, अश्लील संवादों की भरमार है। कबीर सिंह जैसी हिंसा भी इस फिल्म में है। फिल्म में सेक्स और हिंसा को लेकर जो फेंटेसी रची गई है, लगता है हमारे युवा दर्शक ऐसी ही फेंटेसी में जीना पसंद करते हैं। तभी तो यह फिल्म उन्हें पसंद आ रही है और वे इस फिल्म के लिए तालियां बजा रहे हैं। इस फिल्म में हीरो अपने प्राइवेट जेट को ऑटो पायलट मोड में ले जाकर हनीमून मनाता है ! धन्य है हमारे हीरो ! धन्य है ऐसे हनीमून मनाने वाले ! धन्य है फेंटेसी रचनेवाले !
-डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
1-12-2023
मेरे जीवन की सबसे वाहियात फिल्म Animal