जगमोहन को दिल्ली विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष के रूप में ‘मास्टर प्लानर’ के रूप में जाना जाता है। उन्होंने दिल्ली को सलीके से बसाने के लिए कई काम किए हैं। नगर नियोजन पर उनकी चार किताबें भी छपी है। ये किताबें हैं ‘आईलैण्ड ऑफ टुथ’, ‘द तैलैन्ज ऑफ अवर सिटीज’, ‘रिबिल्डिंग शाहजहांनाबाद’ और ‘द वाल्ड सिटी आफ डेल्ही।’
पंवार को पार्टी तोड़ने और बनाने का अच्छा अनुभव है। अगर इस कार्य के लिए कोई विश्वविद्यालय डिग्री देता तो वे ‘डॉक्टरेट’ के पात्र होते। मौके का फायदा वैâसे उठाया जाता है ‘इसके श्रेष्ठतम उदाहरण शरद पंवार ने पेश किए हैं। वे जानते हैं कि अफवाहों की शुरूआत वैâसे की जाती है और उनसे फायदे किस तरह उठाए जाते है। वे ‘परपेâक्ट प्रोपेâशनल राजनीतिज्ञ’ है।
जनता पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रशेखर, सपनों में जीने वाले ऐसे नेता है, जिनके पांव जमीन पर भी है। वे कल्पनाशील, मृदुभाषी अच्छे वक्ता और परिश्रमी नेता है। वे आदर्शवादी है और अपनी सीमाओं से वाकिफ है। जनता पार्टी के भीतर और बाहर उनके दोस्त बहुत कम है। एक जमाना था, जब वे धूमकेतू थे और इंदिरा गांधी उनकी चमक से परेशान थी।
जॉनी वॉकर स्कॉच के विज्ञापन का एक मशहूर वाक्य है - ‘बोर्न इन 1915 एंड स्टिल गोइंग स्ट्रांग’। यह बात सरदार खुशवन्त सिंह पर खरी उतरती है। 71 वर्षीय सरदारजी का ‘बल्ब और बोतल’ कालम दुर्भावनाओं और सदभावनाओं सहित अब भी लोकप्रिय है। उनका बल्ब बूझा नहीं, कागज का बंडल खत्म नहीं हुआ और स्कॉच की बोतल सूखी नहीं। मजेदार बात यह कह रही कि पिछले सोमवार को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने उनके बारे में जो संपादकीय छापा वह उनके कालम की ही तरह जगह-जगह छपा और चिर्चित रहा।
पहले प्रणव मुखर्जी को मंत्रिमंडल से हटाया गया। फिर उन्हें कांग्रेस संसदीय दल से अलग किया गया। फिर उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति से निकाला गया। अब उनकी जान पर खतरा मंडरा रहा है। कभी उनके घर में बम पूâटता है, कभी उनकी पत्नी की कार चुराई जाती है। धमकी भरे पत्रों ओर टेलीफोनों का सिलसिला तो चल ही रहा है। इस सबसे दुखी होकर प्रणव मुखर्जी, गुण्ड राव ओर जगन्नाथ मिश्र जैसे असंतुष्टों को लेकर कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाने के मूड में थे। मगर अब मामला टांय-टांय फिस्स हो गया लगता है।
प्रधानमंत्री कई मामलों में अपने विचार बदल रहे हैं। ओर अब शायद सलाहकार भी। अब अरूण नेहरू वे अरूण नेहरू नहीं है, जो कांग्रेस में दूसरे नंबर के नेता थे। अब अरूण नेहरू के अधिकार काफी कम हो गए हैं और प्रधानमंत्री उन्हें वैसा महत्व नहीं दे रहे है, जैसा पहले दिया करते थे।