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'व्हाय चीट इंडिया' फिल्म शुरू तो होती है शिक्षा व्यवस्था की खामियों को उजागर करने से, फिर वह खुद शिक्षा व्यवस्था जैसी भटकने लगती है। पहले लगा था कि इसमें व्यापम जैसे घोटाले बेनक़ाब होंगे, लेकिन नहीं होते। जैसे डिग्री लेते विद्यार्थी को पता नहीं होता कि वह डिग्री आखिर क्यों ले है, वैसे ही फिल्मकार को शायद पता नहीं कि फिल्म क्यों बना रहा है। इंतेहा यह कि फिल्म का खल पात्र अंत में विजेता साबित होता है। यूपी का ईमानदार पुलिस अफसर असम में यातायात संभालने पर मज़बूर नज़र आता है।

फिल्म की कहानी एक मासूम से परिवार से शुरू होती है। पिता बेटे को कोचिंग की मंडी कोटा भेजा जाता है, पौने छह लाख का खर्चा, दारोमदार बेटे के नतीजे पर है, बेटी की शादी करनी है, बूढ़ी मां का इलाज, घर के खर्च सभी कुछ करना है। बेटा एक्ज़ाम क्रेक करता है और फिर राह भटक कर वह सारे कृत्य करने लगता है, जो नहीं करने थे, अय्याशी, ड्रग्स और बहुत कुछ! फिल्म में गलत काम करनेवाला शख्स हर जगह माथे परटीका और जेब में प्रसाद लिए रहता है, वह दिलचस्प है। 

फिल्म में इमरान हाश्मी को देखकर इंदौर-भोपाल के व्यापम घोटाले के आरोपियों की छवि उभरती है, लेकिन फिल्म अपना ट्रेक बदलती है और फिर कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा! बीच में सब मसाला आ जाता है, ढिशुम-ढिशुम, प्यार, गाना-बजाना, धोखा, बदला, गिरोह, छल और कोटा की कोचिंग से शुरू सफ़र बिना इंजन की रेल बन जाता है। अच्छे पात्र खेत रहते हैं और बेईमान आदमी फिर खड़ा हो जाता है। शिक्षा व्यवस्था की खामी बताने वाली कहानी का पिघलकर गटर में !

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फिल्म का निर्देशन गुलाबी गैंग वाले सौमिक सेन ने किया है और इमरान ने फिल्म बनाई है तो वे तो वे तो हैं ही, हर जगह। स्निग्धदीप चटर्जी सचमुच के सत्तू और श्रेया धन्वन्तरि सचमुच की नुपूर लगी हैं। फिल्म के कुछ संवाद गज़ब के हैं। फिल्म दिलचस्प मोड़ लेती रहती है, इसलिए जिज्ञासा बनी रहती है।

 

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