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''बेटी खड़ी होगी, तभी तो जीत बड़ी होगी !"  ना ना, इस बात का प्रियंका गांधी वाड्रा या आगामी लोकसभा चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है।  यह तो केवल एक फ़िल्मी डॉयलॉग है।  मणिकर्णिका फिल्म का। इसी फिल्म का एक और संवाद है  -- ''सिंधिया - मातृद्रोही, कायर !" ऐसे ही संवाद हैं इस फिल्म में। इस फिल्म का नाम 'मणिकर्णिका : झांसी की रानी' की जगह 'मणिकर्णिका : बॉलीवुड की रानी' होना चाहिए था। क्योंकि जब नीता लुल्ला की डिज़ाइनर ड्रेस पहनकर झाँसी की रानी बनी कंगना रनौत फिल्म में कहीं भी नाचने-गाने लगती है, तब लगता है कि कुछ न कुछ गड़बड़ ज़रूर है।
 
पूरी फिल्म में रानी लक्ष्मीबाई को सुन्दर दिखाने में खर्च कर दिया गया है, उन्हें बहादुर तो  दिखाया गया है, लेकिन युद्ध के दौरान कुशल रणनीतिकार के रूप में नहीं।   लक्ष्मीबाई की खूबसूरती, साहित्य-कला प्रेम और बहादुरी के पर  बॉलीवुड की चलताऊ गाने की डांस हावी होते लगते हैं।  एक-दो गानों के बोल चलताऊ भी हैं। फिल्म के अंत में लक्ष्मीबाई की शहादत पर भी कुछ लोगों को एतराज़ हो सकता है। वे अपनी झांसी के लिए लड़ी थीं या भारत के लिए? 
 
आमिर खान को छोड़कर कोई  भी कलाकार फिल्म का का निर्देशक हुआ तो वह खुद को अधिकाधिक समय परदे पर दिखाने से नहीं रोक पाता। फिल्म में झांसी के बहाने बार-बार भारत की बात कही गई है, जबकि वर्तमान भारत की तब तो परिकल्पना ऐसी नहीं थी। असली मणिकर्णिका की शादी केवल चौदह साल की उम्र में हो गई थी और झलकारी बाई उनकी ऐसी सहायक थी, जो हर समय उनकी तरह पोशाक पहनकर दुश्मनों को झांसा देती थी, फिल्म में उसे बहुत कम मौका मिला। कंगना की पूरी कोशिश रही की वे झांसी की रानी के बहाने खुद का महिमामंडन करें, इसलिए ऐसे दृश्यों को फिल्म में ज़्यादा रखा गया है जो सिर्फ और सिर्फ कंगना पर केंद्रित रहें। 
 
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मणिकर्णिका केवल देशप्रेम के लिए देखी जा सकती है। झाँसी और  काशी (वाराणसी) को सुन्दर तरीके से दिखाया गया है।  कई बार कंगना की ओवरएक्टिंग चिढ़ाती है। डेनी, कुलभूषण खरबंदा, अतुल कुलकर्णी, अंकिता लोखंडे आदि को बहुत देखना अच्छा लगता है। कुछ संवाद तो बहुत ही अजीब हैं जैसे लक्ष्मीबाई के गर्भवती  होने की घोषणा यह कहकर की जाती है कि 'आज झांसी उम्मीद से है!' अंग्रेज़ों की कुटिलता को सपाट तरीके से दिखाया गया है, उन्हें भारत में व्यक्तिगत खुन्नसों से ज़्यादा अपने धंधे की चिंता रहती थी। 
 
फिल्म के कुछ सीन्स में  बाहुबली की छाप है। फ़िल्म जगह-जगह बनावटीपन का अहसास कराती है। यही कच्ची कड़ी है।  वीएफएक्स के इस्तेमाल से ही से कोई फिल्म महान नहीं बन जाती। यह फिल्म ऐतिहासिक के बजाय मनोरंजन का देशप्रेमी डोज़ ज़्यादा है। कमज़ोर निर्देशन आम दर्शक को भी खटकता है, पर देश प्रेम के ज़ज़्बे में वह कई बार ताली  भी बजाता है। ये तालियां झाँसी की रानी के लिए हैं, कंगना रनौत के लिए नहीं। छुट्टी के दिन आप  फिल्म देखें और अमर चित्र कथा या कक्षा आठ की पाठ्यपुस्तक को याद करें तो कोई ज़्यादा बुरा नहीं लगेगा। 

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