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नवाजुद्दीन सिद्दीकी और दंगल गर्ल सानिया मल्होत्रा की फोटोग्राफ फिल्म नहीं, आपके धीरज की परीक्षा है। फिल्म इतनी मंथर गति से चलती है कि अगर आप नींद में हो तो ही इसे पसंद कर सकते हैं। गेट वे ऑफ इंडिया पर 50 रूपए में पर्यटकों के फोटो खींचने वाला हीरो एक लड़की का फोटो 30 रूपए में खींचने को तैयार हो जाता है। वह फोटो खींचता है और उसे पन्नी में डालने के लिए झुकता है, इतनी देर में लड़की चली जाती है। फोटो हीरो के पास ही रह जाती है। इसलिए कहानी शुरू हो गई फोटोग्राफ। अगर लड़की लंच बॉक्स भूल जाती, तो इसका नाम लंच बॉक्स - 2 हो सकता था।

यह फिल्म अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बनी है। एक साथ 65 देशों में रिलीज भी हुई है। निर्माता है अमेजन, जिसका ग्लोबल मार्केट है। उसे पता है कि दुनिया में कब, कहां, कैसे माल खपाना है। फोटोग्राफ उन्हीं दर्शकों की भावनाओं का ख्याल रखती है, हम जैसे भारतीय दर्शकों का नहीं, जो 100-150 रूपए मे टिकट लेकर उसकी पाई-पाई वसूलना चाहते हैं। इस फिल्म में नाच-गाना, चुम्मा-चाटी, ढिशुम-विशुम, एक्शन-धमाल कुछ भी नहीं है। फिल्म बिल्कुल सीधी-सपाट कहानी के साथ आगे बढ़ती है। अब अगर धीरज हो तो आखिर तक रुको और अंत में समझ लो कि फिल्म किसी भी मुकाम पर नहीं पहुंची है। फिर आप कल्पना कर लो कि क्या-क्या हुआ होगा?

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इसका मायना यह नहीं कि फिल्म में कुछ भी नहीं है। हो सकता है आपको यह फिल्म इतनी अच्छी लगे कि इसकी गहराई में खो जाएं। फिल्म का कलात्मक पक्ष आपकी भावनाओं को छू जाए। हो सकता है नवाजुद्दीन सिद्दीकी का यह डायलॉग कि - ‘फोटो खिंचवा लो, इस फोटो में जो धूप है, वह बरसों बाद भी चमकती रहेगी। फोटो में आपके बालों में जो हवा है, वो बरसों बाद भी सरसराती रहेगी और फोटो में जो आवाज है, वह आपके कानों में बरसों बाद भी गूंजती रहेगी।’ फिल्म का एक डायलॉग है कि - ‘जो कश्ती कभी किनारे नहीं लगती, वह आखिर में डूब जाती है।’ एक और डायलॉग है कि - ‘लंबी रेस का घोड़ा भी कभी न कभी थक जाता है।’

अगर आप खोजने बैठेंगे, तो फिल्म में बहुत सी चीजें मिलेगी। एक संघर्षशील फोटोग्राफर का अतीत जो मोहब्बत के लिए तरस रहा है। उसका सपना है अपनी कथित गर्लफ्रेंड के लिए कहीं से केम्पा कोला की एक बोतल खरीदकर ले आए। केम्पा कोला की फैक्ट्री बंद हुए बरसों हो गए। ऐसे में उसे केम्पा कोला के लिए भटकते देखना दिल को छू जाता है। इसमें उत्तरप्रदेश के एक गांव की एक ऐसी बूढ़ी दादी है, जो अपने पोते और पोती की फीस नहीं भर पा रही और उन्हें स्कूल से निकालने के बाद तीन दिन तक स्कूल के दरवाजे पर खड़ी रही कि उन्हें भर्ती वापस किया जाए। एक ऐसा जिम्मेदार व्यक्ति है, जो अपनी पूरी कमाई का मनीऑर्डर गांव भेज देता है और अपनी पसंदीदा कुल्फी वह महीने की आखिरी तारीख को ही खाता है, जब उसकी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है।

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इस फिल्म में सीए इंटर की टॉपर एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो अपनी जड़ों से कटी हुई लगती है और ऐसे बिखरे हुए बीजों की कहानियां है, जो भीड़ भरे रेगिस्तान में अंकुरित होने का प्रयास कर रहे है। फिल्म में नफरत की जगह मोहब्बत है और भविष्य की जगह वर्तमान। फिल्म में रेडियो पर बजते पुराने फिल्मी गाने सुमधुर लगते है। खासकर मोहम्मद रफी का गाया जानेमन, जाने जां, हमने तुम्हें देखा और नूरी आजा रे, नूरी। पूरी काव्यात्मकता से फिल्म रफ्ता-रफ्ता आगे बढ़ती है। जो दर्शक फिल्म में खो जाते है, वे फिल्म में ही खोए रहते है और बाकि के दर्शक अपने सहदर्शक में। अब अगर आप यह फिल्म देखना चाहे, तो देखें। हो सकता है आपको यह फिल्म बहुत अच्छी लगे या फिर बहुत ही पकाऊ, उबाऊ और झिलाऊ।

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