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फिल्म प्रमाणन बोर्ड को ‘पी’ सर्टिफिकेट भी देना चाहिए, जिसका अर्थ होगा - ‘पकाऊ’। कलंक कोई पीरियड ड्रामा नहीं, बल्कि पीरियड कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्म है। दर्जियों को यह फिल्म बहुत पसंद आएगी। बॉलीवुड की फिल्मों का स्तर दिन प्रतिदिन 'सुधरता' जा रहा है। अब आप फिल्म कैसी होगी, इसका अंदाज उसके नाम से ही लगा सकते है। जैसे - शाहरुख खान की फिल्म 'जीरो' आई थी, वह नाम के अनुरूप थी और अब 'कलंक'। इसमें रत्तीभर भी शक नहीं कि यह करण जौहर की सबसे घटिया फिल्म है। इस फिल्म में वैसे तो क्या नहीं है? हुस्नाबाद है, हिन्दू-मुस्लिम दंगे है, विवाहेतर संबंध है, नाजायज़ औलाद है, हिन्दू-मुस्लिम दंगा है, प्रेमियों का मिलन और जुदाई है, भारत का बंटवारा है, अख़बार  का मालिक है, जो स्टील फैक्ट्री लगाने की तैयारी में है। आलिया भट्ट की ग़लत उच्चारण वाली हिन्दी है। बड़े-बड़े महलों से भी भव्य और विशाल कोठे है। संगीत का तालीम देने वाली तवायफ़ें है और यह सब करने वाले आलिया भट्ट, सोनाक्षी सिन्हा, माधुरी दीक्षित, आदित्य राय कपूर, शाहिद कपूर और संजय दत्त आदि-आदि इत्यादि हैं।

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फिल्म में इंदौर के लाल बाग के कई दृश्य है, जो होल्करों का महल था। महेश्वर का नर्मदा घाट भी है और महेश्वर का किला भी। फिल्म में एक से बढ़कर एक भारी-भारी डायलॉग है, जो मौके पर फीट नहीं बैठते। फिल्म के दो पात्र कहते है कि अगर जिंदगी दुखों से भर जाए, तो जोर-जोर से चीखना चिल्लान चाहिए, ताकि हल्कापन महसूस हो। मेरी इच्छा हुई कि मैं जोर-जोर से चीखूं-चिल्लाऊं, पर डर लगा कि मल्टीप्लेक्स के बाउंसर मुझे उठाकर बाहर न फेंक दें।

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फिल्म में अखबार के मालिक या संपादक को जिस तरह सनकी बताया गया है, वैसा दुर्लभ संपादक मिलना मुश्किल है, जो अपनी स्टोरी के लिए पूरे शहर को ही नर्क बना दें। फिल्म के अधिकांश दृश्य रबर की तरह खींचे हुए है। फिल्म की भव्यता और स्टार कास्ट को छोड़ दें, तो कमजोर कहानी, कमजोर क्लाइमेक्स, कमजोर एडिटिंग फिल्म को देखने लायक बनने से रोकती है। कैंसर पीड़ित पत्नी अपनी सौत लेकर आ जाती है, ताकि उसकी मौत के बाद पत्नी की सेवा हो सकें। नायक भी अपनी प्रेमिका और उसके पति के लिए बलिदान करने के लिए आमादा रहता है। झोलकर कहानी और झोलदार गाने। ऐसी फिल्म को झेलना हर एक के बस की बात नहीं है।

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कहते है कि इस फिल्म की कहानी करण जौहर के पिता यश जौहर के दिमाग की उपज है। कहानी को फिल्म में बदलते-बदलते 10 साल से भी अधिक लग गए। इसके बाद भी फिल्म अझेलनीय है। किसी फिल्म को बनाने में लंबा समय लगना उसके अच्छे होने का सबूत नहीं होता। निर्देशक अभिषेक वर्मन ने पका दिया। फिल्म में आलिया माधुरी से कहती है कि इस गुफ्त गूं से हम थक गए। पौने तीन घंटे से भी ज्यादा की इस फिल्म को देखते-देखते जब दर्शक पक गए, तब उसके कलाकारों से सहानुभूति ही हो सकती है।

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