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डिस्क्लैमर : किसी साहसी महिला को मर्दानी कहना उसकी प्रशंसा नहीं, एक लिंगभेदी टिप्पणी है। उसे प्रशंसा के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। इंदिरा गांधी के बारे में किसी ने कहा था कि उस दौर की राजनीति में वे इकलौती मर्द थीं। वास्तव में उन्हें लौह महिला या आयरन लेडी कहना उचित होता।
मर्दानी-2 फिल्म 2014 में आई मर्दानी की अगली कड़ी है। यह एक जांबाज आईपीएस अधिकारी की कहानी है, जो कोटा में एसपी हैं और उसे एक साइको किलर ने चुनौती दे रखी है कि अगर दम है, तो मुझे पकड़कर दिखा। इस फिल्म में पुलिस अधिकारी बनी रानी मुखर्जी का साबका एक ऐसे अपराधी से होता है, जो महिलाओं के प्रति क्रूरतम अपराध करता है और इसके साथ ही पुलिस को चुनौती देता जाता है।
करीब 259 साल पहले 14 जनवरी 1761 को पानीपत में मराठा योद्धाओं और अफगानिस्तान की सेना के बीच हुई तीसरी बड़ी लड़ाई को आशुतोष गोवारीकर ने अपने अंदाज में फिल्माया है। इतिहास के इस बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक दौर को फिल्माने के लिए निर्देशक ने रचनात्मक स्वतंत्रता खुद ही ले ली है। पानीपत में संजय दत्त ने अहमद शाह अब्दाली - दुर्रानी (1722 से 1772) का चित्रण किया है। उसे अफगानिस्तान में हीरो की तरह माना जाता है। भारत में अब्दाली को आने से रोकने के लिए पुणे से पेशवा राजा ने अपनी सेना भेजी थी, ताकि अफगानिस्तान की फौजें भारत में कब्जा न कर पाएं। लगान, स्वदेश, जोधा-अकबर आदि फिल्में बनाने वाले गोवारीकर ने फिल्म के ऐतिहासिक संदर्भों को दिखाने के साथ-साथ भारत में राजाओं के आपसी विवादों को भी दिखाने की कोशिश की है। संजय दत्त ने जिस अहमद खान अब्दाली का रोल किया है, उसे 25 साल की उम्र में ही सर्वसम्मति से अफगानिस्तान का राजा चुना गया था। अब्दाली को वहां के लोग विनम्रता और बहादुरी के लिए पहचानते है। उसे दुर-ए-दुर्रान का खिताब दिया गया था, जिस कारण उसका नाम दुर्रानी भी पड़ा।
फिल्म होटल मुंबई इसलिए देखनीय है कि इसमें 26 नवंबर 2008 को मुंबई में हुई आतंकवादी हमले का एक हिस्सा बेहद यथार्थ रूप में दिखाया गया है। यह पूरी फिल्म बंबई पर हुए हमले के बजाय ताज होटल पर हुए हमले और वहां के बचाव कार्यक्रम पर केन्द्रित है। फिल्म का हर दृश्य दहशत से भरा हुआ है और दर्शक चौकन्ना होकर सीट पर चिपका रहता है। आतंकियों के मनोविज्ञान और ताज होटल में बंधक बने करीब 1700 अतिथियों और कर्मचारियों की आपबीती का अंदाज इस फिल्म को देखकर होता है। यह भी समझ में आता है कि टीवी मीडिया ने किस तरह आतंकवादियों और उनके सरगनाओं की मदद की, क्योंकि टीवी पर लाइव कवरेज देखते हुए आतंकियों का सरगना दिशा-निर्देश देता रहा।
हे प्रभु, मुझे माफ़ कर, मैंने मरजाँवा फ़िल्म देख ली!
(तत्काल लिखने की हिम्मत नहीं हुई!)
मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा था, लेकिन फिर भी मैं मरजाँवा फिल्म देखने के लिए चला गया। आप किसी भी कारण से यह फिल्म देखने का जोखिम मत उठाइए। महाबकवास है!
पागलपंती फिल्म देखना वैसे ही है जैसे कि किसी बेवकूफी का ऐप डाउनलोड करना। मल्टी स्टारर पागलपंती के निर्देशक इसके पहले नो एंट्री, वेलकम, सिंग इज किंग, भूल भुलैइया, रेडी, मुबारका जैसी फिल्में बना चुके हैं, लेकिन पागलपंती में पागलपंती थोड़ी ज्यादा ही हो गई है। जॉन अब्राहम, अनिल कपूर, अरशद वारसी, पुल्कित सम्राट, सौरभ शुक्ला, कृति खरबंदा, उर्वशा रौतेला, इलियाना डिक्रूज जैसे अनेक कलाकारों के होते हुए भी फिल्म अतिरेक की शिकार हो गई है। ओवरएक्टिंग और हंसाने की जबरदस्ती कोशिश मजा किरकिरा कर देती है। इस फिल्म की कहानी और निर्देशन है अनीज बज्मी का। फिल्म में मुकेश तिवारी और डॉली बिंद्रा के भी छोटे-छोटे रोल है, लेकिन कोई भी फिल्म को बहुत प्रभावित नहीं कर पाया।
जो रोल अमिताभ बच्चन को मिलना चाहिए, वह अवतार गिल को मिल जाए, तो क्या होगा? अगर अमिताभ को दीवार और शोले की जगह अवतार में प्रमुख भूमिका निभानी होगी तो क्या होगा? यह हेयर लॉस नहीं आइडेंडिटी का ही लॉस हो जाएगा। पिछले हफ्ते ही फिल्म आई थी उजड़ा चमन और इस शुक्रवार को लगी है बाला। दोनों ही फिल्मों का विषय एक है। जवानी में गंजे होते युवाओं की समस्या। बाला ने उजड़ा चमन को बहुत पीछे छोड़ दिया है, क्योंकि इसमें कहानी और चरित्रों की प्रस्तुती इस तरह की गई है कि वह दिलचस्प और विचारोत्तेजक लगती है। उजड़ा चमन देखते हुए गिरते बालों की समस्या से परेशान व्यक्ति को खीज होने लगती है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने जैसे पात्र का उपहाश बर्दाश्त नहीं कर सकता। बाला में इसी बात को संजीदगी से प्रस्तुत किया गया है। उजड़ा चमन में गंजे होते युवा और रश्त-पुश्त होती युवती की कहानी थी। इसमें एक सुंदर युवती और गंजे होते युवक के साथ ही एक श्याम वर्ण युवती की कहानी भी जोड़ दी गई है।