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डंकी कोई मास्टरपीस नहीं है, यह थोड़ी-थोड़ी राजकुमार हिरानी टाइप है, कुछ शाह रुख खान स्टाइल की है। हिंसा, सेक्स, फूहड़ता, कार रेस, भ्रूम भ्रूम नहीं है, थोड़ी ढंग की है। जिसमें रोचक कहानी, घिसे-पिटे जोक्स, शानदार अभिनय और इमोशन तथा देशप्रेम की चाशनी है। थोड़ी सी स्वदेश है, थोड़ी सी दंगल, थोड़ी सी कपिल शर्मा वाली अंग्रेज़ी, थोड़ी से आनंद का लेडी संस्करण है। मसाले सभी है। इच्छानुसार पसंद कर सकते हैं। डंकी चार पैरों वाले गधों के बारे में नहीं है, यह उन दो पैरों वाले गधों के बारे में है जो डंकी रूट यानी अवैध रूप से आप्रवासी होकर इंग्लैंड जाकर बस जाना चाहते हैं।अवैध रूप से जाने में रास्ते में आने वाली तकलीफों का उन्हें अंदाज नहीं है, लेकिन वे भारत में कुछ करने के बजाय विदेश जाकर ही कुछ करने में अपनी शान समझते हैं।
सैम बहादुर देखनीय फिल्म है। भारत के स्वर्णिम इतिहास की झलक इसमें है। विक्की कौशल ने मानेकशॉ के रोल में जान डाल दी। यह विक्की कौशल और डायरेक्टर मेघना गुलज़ार की फिल्म है।
सैम बहादुर भारत के पहले फील्ड मार्शल मानेकशॉ के जीवन पर आधारित फिल्म है, जिसमें विक्की कौशल ने मानेकशॉ का भूमिका की है। वे भारत के सबसे लोकप्रिय सेना नायकों में से थे और 1971 में बांग्लादेश के जन्म के समय भारत-पाक युद्ध के समय चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ थे। उनकी रणनीति के अनुसार ही भारत ने वह युद्ध लड़ा, जीता और पाकिस्तान का विभाजन करवाया। उनका नाम सैम मानेकशॉ था लेकिन लोग उन्हें सैम बहादुर इसलिए कहते थे, क्योंकि वे गोरखा राइफल्स के प्रभारी बनाये गए थे।
मैं नासमझ संदीप रेड्डी वंगा की कबीर सिंह को ही सबसे वाहियात फिल्म समझ रहा था, लेकिन जब एनिमल देखी तो लगा कि यह तो उससे भी आगे है। एनिमल मेरे जीवन की सबसे वाहियात फिल्मों में से है। आप इस फिल्म को जरूर देखिए ताकि पता चल सके कि फिल्में कितनी घटिया भी बन सकती हैं ! और ऐसी फिल्म बनाने के लिए इसके निर्माता का नाम इतिहास में दर्ज होना चाहिए। मैं न तो इसके निर्माता से मिला हूँ और न ही कलाकारों से। मेरे मन में उनके प्रति कोई आग्रह या दुराग्रह नहीं। न मेरा उन पर धेला बाकी है न उनका मुझ पर। मैं उनकी 'महानता' से भी प्रभावित नहीं हूँ।
पहले लगा कि मैं शायद गलती से किसी कोरियाई फिल्म को देखने आ गया हूं, जिसमें वैसी ही तर्कहीन बातें, हिंसा का अतिरेक, घटिया हाव भाव, संवाद और बेतुकी बातें हैं, लेकिन मीडिया से पता चला कि यह तो एक ऐसी फिल्म है जो सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके बनाई गई है और हिंदी के अलावा तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ में भी बनी है। यानी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक समान....है।
हीरो तस्कर है। उसका बाप भी तस्कर है।उसका चाचा भी तस्कर है। हीरो को तस्करी, गुंडागर्दी और हिंसा में खूब मजा आता है, लेकिन वह तस्करी का धंधा छोड़कर शरीफ आदमी इसलिए बन जाता है क्योंकि उसका बाप नर बलि करने लगता है और उसकी जुड़वा बहन की ही बलि चढ़ा देता है। बाप से भागकर बेटा शरीफ लोगों की जिन्दगी जीने लगता है, पर वहां भी लफड़े ! हीरो तस्करी का धंधा मज़बूरी में छोड़ता है, नैतिकता में नहीं।
फिल्म में हिंसा और मारधाड़ के अलावा बेसिर पैर की कहानी, जबरन ठूंसे गए गाने और गले नहीं उतरनेवाले घटनाक्रम के अलावा कुछ नहीं है।
कश्मीर के पहलगाम, गुलमर्ग और सोनमर्ग की वादियों के नज़ारे और लर्निंग मशीन्स तथा ए आई जैसे मोकोबोट कैमरे से शूट किये गए फाइटिंग सीन भी ज्यादातर दर्शकों को लुभा नहीं पाएंगे।
विजय के अंधभक्त ही इसे पसंद कर सकते हैं।
अगर स्वादिष्ट बनी खीर में कोई हींग का छौंक लगा दे तो? ... तो गणपत जैसी फिल्म बन जाती है। यह फिल्म केवल और केवल टाइगर श्रॉफ के लिए बनी है। टाइगर के एक्शन, डांस और फाइट के लिए। इसमें अमिताभ बच्चन और कृति सेनन फ़ोकट खर्च हो गए बेचारे!
इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी है कहानी में ! दर्शक उससे कनेक्ट ही नहीं हो पाता। निर्माता इस स्पोर्ट्स फिल्म कहकर प्रचार कर रहे हैं। 2070 की कहानी बनाई गई है। 'गणपत' डायस्टोपियन एक्शन फिल्म है। काल्पनिक दुनिया की कहानी। यहां दुनिया दो भागों में बँटी हुई है। अमीर और गरीब। अमीर भोग विलास में लिप्त हैं, ग़रीब रोते रहते हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि उनकी दुनिया में कोई गणपत आएगा और उद्धार कर देगा। अमीर भी बॉक्सिंग रिंग में, गरीब भी है। बॉक्सिंग रिंग के कारण ही उनकी दुनिया की बुरी गत हुई थी, बॉक्सिंग के कारण ही उनका उद्धार होता है। गणपत आता है, बॉक्सिंग करता है। गरीब अपना सब कुछ बॉक्सिंग के सट्टे में लगा देते हैं और जीत जाते हैं, उनकी दुनिया बदल जाती है।
साला बॉक्सिंग रिंग नहीं हुआ, रतन खत्री का अड्डा हो गया। बिना कुछ किये माल अंदर। गरीबी दूर!
अगर आप बाइकर हैं, बाइकिंग का शौक रखते हैं और हिमालय की वादियां आपको लुभाती हैं तो यह फिल्म ज़रूर देखें। मज़ा आ जाएगा। वरना चार खूबसूरत महिलाओं को ब्रूम ब्रूम करते बाइक दौड़ाते हुए देखना भी बुरा नहीं।
क्या फिल्म का भी मेल और फीमेल वर्जन होता है? यह फिल्म देखकर लगता है कि होता है भाई ! गत नवंबर में राजश्री की फिल्म ऊंचाई आई थी, जिसमें चार बुजुर्गों (अमिताभ, डैनी, अनुपम खेर और बोमन ईरानी) का लक्ष्य एवरेस्ट के बेस कैम्प तक पहुंचने का था। 'धक धक' उसी का फीमेल वर्जन लगती है।
फिल्म में चार सुन्दर महिलाएं दिल्ली से मोटर साइकल पर लद्दाख की यात्रा पर बाइकिंग करने निकल पड़ती हैं। धक धक करती एक साथ चार मोटर साइकलों के इंजन धड़धड़ाते हैं और वे सड़क की बाधाओं को चीरती हुई निकलती हैं तब लगता है मानो उन चारों के पंख निकल आये हैं।