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बिहारी केवल ओरिजनल होते हैं। उनकी नकल कोई नहीं कर सकता। ऋतिक रोशन भी नहीं। यह बात सुपर 30 में साबित हो गई। ऋतिक ने भले ही श को स, छह को छौ और नर्वस होने को नरभस होना उच्चारित किया हो, वे आनंद कुमार कही से नहीं लगे, वे ऋतिक रोशन ही लगते रहे। बाॅयोपिक के दौर में आनंद कुमार की इस बॉयोपिक में बहुत सारे झोल हैं, लेकिन फिल्म तो फिल्म ही है। निर्देशक विकास बहल ने क्वीन फिल्म में अपने निर्देशन का जादू दिखाया था। इसमें वैसा जादू नहीं बना पाए, जो कुछ जादू है, वह आनंद कुमार का ही है और बिहार के लोग जानते हैं कि आनंद कुमार के बारे में वे कौन से तथ्य हैं, जो फिल्म में नहीं दिखाए गए। इस फिल्म में बताया गया है कि कोचिंग कोई शिक्षा दान नहीं और न ही कोई कारोबार है। यह एक संगठित माफिया है। पर्सनल ट्यूशन तो पहले भी पढ़ाई जाती थी और शिक्षकों को उसकी फीस भी मिलती थी, लेकिन अब जो कोचिंग क्लासेस का कारोबार है, उसमें षड्यंत्र, खून-खराबा, कालाधन और राजनीति सभी कुछ है। कोचिंग माफिया जिस तरह पेपर सेट करवाते है, टेस्ट पेपर की मार्किंग में पक्षपात की साजिशें रचते है और प्रतिस्पर्धी संस्थानों को बदनाम करते हैं, उसकी मामूली झलक इस फिल्म में है।
इस शुक्रवार कुछ नया नहीं घटा। न निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत बजट में, न बॉक्स ऑफिस में। बजट 90 के दशक का है और फ़िल्म भी। संजय लीला भंसाली की भानजी और जावेद जाफरी के बेटे को लेकर गुलशन कुमार के भाई किशन कुमार ने 15 साल पुरानी तमिल फिल्म '7जी रेनबो कॉलोनी' का जो रीमेक बनाया है उसे देखना न देखना बराबर है।
जो लोग केवल मनोरंजन के लिए फिल्में देखते है, वे आर्टिकल 15 न देखें। इसमें आम मसाला फिल्मों जैसा कोई मसाला नहीं है। न फूहड़ता, न किसिंग सीन, न फाइटिंग, न नाच-गाने, लेकिन फिर भी यह फिल्म देखने लायक है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि इस देश में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी एक के भी आधार पर किसी भी व्यक्ति से कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद देश में भेदभाव जारी है। यही बात फिल्म कहती है।
सलमान खान की भारत में अति की भी अति कर दी गई है। इमोशन की अति, रोमांस की अति, देश प्रेम की अति, सांप्रदायिक सौहार्द्र की अति, स्लो मोशन की अति, एक्शन की अति, ट्रेजेडी की अति, फ्लैशबैक की अति, अति अति अति! लेकिन फिल्म परिवार एक साथ देखी जा सकती है। फूहड़ फिल्म नहीं है। चुम्बन दो सलमान परदे पर देते नहीं हैं, इसमें उन्होंने फाइटिंग में शर्ट भी नहीं उतारी है। कहते हैं कि यह एक कोरियन फिल्म ओड टू माय फ़ादर का अडॉप्शन है, कोरियन फिल्म में 1950 के का विभाजन था, इसमें 1947 का विभाजन है। दर्शकों को देखा कि उन्हें फिल्म पसंद आई। ईद के मौके पर एंटरटेनमेंट ठीक है। अधिकांश दर्शकों की आँखें फिल्म में भीगती हैं, कई की तो एकाधिक बार !
कबीर सिंह देखकर निकलते वक्त दो दर्शक बात कर रहे थे कि बन गए ना ट्रेलर देखकर उल्लू। 3 घंटे पका दिया। तेलुगु फिल्म अर्जुन रेड्डी का रिमेक कबीर सिंह बेहद इरीटेटिंग फिल्म है। पता नहीं तेलुगु में यह हिट क्यों हुई? अच्छा हुआ जो रणवीर सिंह और अर्जुन कपूर ने इससे कन्नी काट ली। करीब 3 घंटे की फिल्म इंटरवल के बाद तो बेहद पकाऊ लगती है, जिसमें हीरो के पास यही काम रहता है - शराब पीना, सिगरेट पीना, ड्रग्स लेना और अपने पिता, मां, दादी, भाई और दोस्तों की बेइज्जती करना। अरे भाई, तुझे शराब पीना है तो पी ले, हमारे दिमाग का दही तो मत कर। हीरो भी एमएस डॉक्टर है, विशेषज्ञ है। बिना दारू पिये ऑपरेशन थिएटर में नहीं जाता, लेकिन अगर कोई नर्स लिपस्टिक लगाकर आ जाए, तो उसे आउट कर देता है। नशे में वह ऑपरेशन थिएटर में थड़ाम हो जाता है और फिर भी नर्सों को इंस्ट्रक्शन देते हुए ऑपरेशन खत्म करवाता है।
अच्छा हुआ कि चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव के पहले फिल्म पीएम नरेन्द्र मोदी के प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी, वरना एनडीए को इतने वोट नहीं मिलते। विवेक ओबेरॉय किसी कोण से नरेन्द्र मोदी नहीं लगते हैं। फिल्म कहीं पर डाॅक्युमेंट्री लगती है और कहीं पर बायोपिक। डिसक्लैमर में पहले ही कह दिया गया था कि यह फिल्म नरेन्द्र मोदी के जीवन पर आधारित है, लेकिन उसमें रचनात्मकता बनाए रखने के लिए कुछ चरित्र जोड़ दिए गए है और कल्पनाशीलता का उपयोग किया गया है, लेकिन कुल मिलाकर यह फिल्म नरेन्द्र मोदी की मिमिक्री बनकर रह गई है।