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सलमान खान की भारत में अति की भी अति कर दी गई है। इमोशन की अति, रोमांस की अति, देश प्रेम की अति, सांप्रदायिक सौहार्द्र की अति, स्लो मोशन की अति, एक्शन की अति, ट्रेजेडी की अति, फ्लैशबैक की अति, अति अति अति! लेकिन फिल्म परिवार एक साथ देखी जा सकती है। फूहड़ फिल्म नहीं है। चुम्बन दो सलमान परदे पर देते नहीं हैं, इसमें उन्होंने फाइटिंग में शर्ट भी नहीं उतारी है। कहते हैं कि यह एक कोरियन फिल्म ओड टू माय फ़ादर का अडॉप्शन है, कोरियन फिल्म में 1950 के का विभाजन था, इसमें 1947 का विभाजन है। दर्शकों को देखा कि उन्हें फिल्म पसंद आई। ईद के मौके पर एंटरटेनमेंट ठीक है। अधिकांश दर्शकों की आँखें फिल्म में भीगती हैं, कई की तो एकाधिक बार !
अच्छा हुआ कि चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव के पहले फिल्म पीएम नरेन्द्र मोदी के प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी, वरना एनडीए को इतने वोट नहीं मिलते। विवेक ओबेरॉय किसी कोण से नरेन्द्र मोदी नहीं लगते हैं। फिल्म कहीं पर डाॅक्युमेंट्री लगती है और कहीं पर बायोपिक। डिसक्लैमर में पहले ही कह दिया गया था कि यह फिल्म नरेन्द्र मोदी के जीवन पर आधारित है, लेकिन उसमें रचनात्मकता बनाए रखने के लिए कुछ चरित्र जोड़ दिए गए है और कल्पनाशीलता का उपयोग किया गया है, लेकिन कुल मिलाकर यह फिल्म नरेन्द्र मोदी की मिमिक्री बनकर रह गई है।
उथली कहानी, छिछला मनोरंजन। अजय देवगन, तबु और रकुल प्रीत सिंह की दे दे प्यार दे फिल्म को कॉमेडी रोमांस फिल्म कहा जा रहा है, लेकिन इसमें कॉमेडी का पार्ट उतना ही है, जितना इसके प्रोमो में दिखाया गया है। फिल्म में दो अर्थों वाले संवाद, पुराने गानों के रिमिक्स और प्यार के नाम पर उल-जलूल हरकतें है। वाहियात लगता है जब रकुल प्रीत और तब्बू नई और पुरानी गाड़ी की तुलना बीवी या प्रेमिका के संदर्भ में करते हैं। रईस अधेड़ और नौजवान युवती की कहानियों पर पहले भी फिल्म बनी है, पर शायद ही कोई इतनी वाहियात हो। फूहड़ फिल्में पसंद करने वाले दर्शकों को फिल्म अच्छी लगेगी। गंभीर मुद्दों को एकदम वाहियात तरीके से व्यक्त करना कोई इस फिल्म के निर्देशक लव रंजन से सीखे, जिन्होंने पहले भी आकाशवाणी, प्यार का पंचनामा, प्यार का पंचनामा 2 और सोनू के टीटू की स्वीटी जैसी फिल्में बनाई है। इस फिल्म को आकिव अली ने डायरेक्ट किया है। फिल्म का अंत आते-आते कुछ अनपेक्षित घटता है। शायद युवा दर्शकों को ध्यान में रखकर ही यह टि्वस्ट दिया गया है। पूरी फिल्म में शराब पानी की तरह बहती दिखती है।
फिल्म प्रमाणन बोर्ड को ‘पी’ सर्टिफिकेट भी देना चाहिए, जिसका अर्थ होगा - ‘पकाऊ’। कलंक कोई पीरियड ड्रामा नहीं, बल्कि पीरियड कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्म है। दर्जियों को यह फिल्म बहुत पसंद आएगी। बॉलीवुड की फिल्मों का स्तर दिन प्रतिदिन 'सुधरता' जा रहा है। अब आप फिल्म कैसी होगी, इसका अंदाज उसके नाम से ही लगा सकते है। जैसे - शाहरुख खान की फिल्म 'जीरो' आई थी, वह नाम के अनुरूप थी और अब 'कलंक'। इसमें रत्तीभर भी शक नहीं कि यह करण जौहर की सबसे घटिया फिल्म है। इस फिल्म में वैसे तो क्या नहीं है? हुस्नाबाद है, हिन्दू-मुस्लिम दंगे है, विवाहेतर संबंध है, नाजायज़ औलाद है, हिन्दू-मुस्लिम दंगा है, प्रेमियों का मिलन और जुदाई है, भारत का बंटवारा है, अख़बार का मालिक है, जो स्टील फैक्ट्री लगाने की तैयारी में है। आलिया भट्ट की ग़लत उच्चारण वाली हिन्दी है। बड़े-बड़े महलों से भी भव्य और विशाल कोठे है। संगीत का तालीम देने वाली तवायफ़ें है और यह सब करने वाले आलिया भट्ट, सोनाक्षी सिन्हा, माधुरी दीक्षित, आदित्य राय कपूर, शाहिद कपूर और संजय दत्त आदि-आदि इत्यादि हैं।
अपने बच्चों को कही भी पढ़ने भेज देना, टाटपट्टी वाले स्कूल में भेज देना पर देहरादून मत भेजना। देहरादून में भी संत टेरेसा कॉलेज तो कभी भी नहीं। वहां के विद्यार्थी पढ़ाई में 5 प्रतिशत समय भी नहीं लगाते। पूरा टाइम लड़कियों को इंप्रेस करने में, मारपीट करने में, नाचने-गाने और खेल-कूद में लगाते हैं। खेल के नाम पर मुख्यत: कबड्डी। बचे समय में रोमांस और घर वालों से तनातनी। वे अपने शिक्षकों और स्पोर्ट्स कोच को जोकर समझते हैं (फिल्म में हैं भी) और प्रिंसिपल को संस्था चलाने वाले ट्रस्ट का दलाल। उन्हें लगता है कि पढ़ाई से ज्यादा जरूरी दूसरी चीजें हैं। यह बात सच हो भी सकती है, लेकिन स्टूडेंट ऑफ द ईयर तो एक ही विद्यार्थी हो सकता है। मैरिट में एक ही संस्था के कई विद्यार्थी आ सकते हैं।
द ताशकंद फाइल्स का डायलॉग है - ट्रूथ इज़ ए लग्ज़री। फिल्म यह लग्जरी बर्दाश्त नहीं कर पाई। दूसरे डायलाॅग भी कम दिलचस्प नहीं है। जैसे टीवी के सामने बोलने के लिए नहीं, चुप रहने के लिए करेज की जरूरत होती है। राजनीति में कुछ भी सच नहीं होता, लोग सच नहीं, सच की कहानी सुनना पसंद करते है। एक अन्य जगह गृह मंत्री कहते है कि सच से नहीं, अफवाहों से डरना चाहिए, क्योंकि अफवाहें इस तरह फैलती है कि लोग अफवाहों को ही सच समझने लगते है। फिल्म कहती है कि ग्लोबलाइजेशन केवल कार्पोरेट गुलामी है और कुछ नहीं। लोकतंत्र वोट से नहीं विवेक और विचार से चलता है। ऐसे ही डायलाॅग्स को मिलाकर शास्त्रीजी की मृत्यु के 53 साल बाद एक फिल्म बनाई गई है, जिसका मकसद मोटे तौर पर यही नजर आता है कि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं हुई, उनकी हत्या की गई और उनकी हत्या में कुछ खास लोगों को फायदा हुआ। अब आप अंदाज लगाइए कि किन्हें फायदा हुआ था। फिल्म इस तरह जलेबी की तरह घुमा कर बातें कहती है कि खत्म होते-होते दर्शक को लगता है कि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी का षड्यंत्र थी। फिल्म यह भी कहती है कि लाल बहादुर शास्त्री अगर जीवित होते, तो 10-15 साल उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता था। वे भारत को सुपर पॉवर बनाना चाहते थे और परमाणु कार्यक्रम को आगे ले जाना चाहते थे। वहीं यह फिल्म यह भी बताती है कि विजय लक्ष्मी पंडित लाल बहादुर शास्त्री के विरुद्ध संसद में अविश्वास प्रस्ताव लेकर आई थीं।