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एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा फिल्म का 25 साल पहले आई 1942 : ए लव स्टोरी फिल्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। उसके गाने की लाइन को फिल्म का नाम बनाया गया है और अनिल कपूर एक ऐसी लड़की का पिता है, जिसे एक लड़की से ही मोहब्बत हो जाती है और वह उसके साथ रहना चाहती है। भारत के महानगरों में रहने वाले युवाओं के लिए यह एक क्रांतिकारी विषय है। कुछ लोग इसे भारतीय संस्कृति का मखौल भी मान सकते है, लेकिन फिल्म का विषय ऐसा चुना गया है, जिसमें फिल्म चले या न चले, प्रचार तो मिलना ही है।
'व्हाय चीट इंडिया' फिल्म शुरू तो होती है शिक्षा व्यवस्था की खामियों को उजागर करने से, फिर वह खुद शिक्षा व्यवस्था जैसी भटकने लगती है। पहले लगा था कि इसमें व्यापम जैसे घोटाले बेनक़ाब होंगे, लेकिन नहीं होते। जैसे डिग्री लेते विद्यार्थी को पता नहीं होता कि वह डिग्री आखिर क्यों ले है, वैसे ही फिल्मकार को शायद पता नहीं कि फिल्म क्यों बना रहा है। इंतेहा यह कि फिल्म का खल पात्र अंत में विजेता साबित होता है। यूपी का ईमानदार पुलिस अफसर असम में यातायात संभालने पर मज़बूर नज़र आता है।
पुलिस वाले जोकर नहीं होते। सिम्बा में इंटरवल के पहले जिस तरह पुलिसवाले को जोकर जैसा दिखाया गया है, वह अटपटा लगता है। पुलिसवाले इमोशनल हो सकते हैं, भ्रष्ट भी हो सकते हैं, लेकिन मजाक का विषय नहीं हो सकते, जैसा कि फिल्म की शुरूआत में है। फिल्म में थाने में दो बलात्कारी गुंडों का एनकाउंटर दिखाया गया है और एनकाउंटर से जुड़ी दूसरी कहानियां भी बताई गई हैं। एनकाउंटर तो मुख्य खलनायक सोनू सूद का दिखाना था, लेकिन दिखाया गया, उसके फिल्मी भाईयों का। निर्देशक ने सिम्बा की अगली कड़ी के लिए सोनू सूद को छोड़ दिया। रणवीर सिंह ने फिल्म में चिरकुट पुलिसवाले की ओवरएक्टिंग की है और सारा अली खान को कुछ करने के लिए मिला नहीं।
संजय बारू सवा चार साल तक तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया एडवाइजर रहे, लेकिन कहानी उन्होंने 10 साल की बयां कर दी। फिल्म देखते हुए लगता है कि इसका मकसद कांग्रेस और राहुल का मजाक उड़ाना और मीडिया एडवाइजर को प्रधानमंत्री से बड़ा दिखाना है। पूरी फिल्म में प्रधानमंत्री और मीडिया एडवाइजर की बॉडी लैंग्वेज ऐसी है, जिससे लगता है कि प्रधानमंत्री तो संजय बारू थे और मनमोहन सिंह उनके स्टॉफर। फिल्म ने यह बताने की कोशिश की कि डॉ. मनमोहन सिंह द्रोणाचार्य की तरह हैं और कांग्रेस कौरवों की तरह। एक परिवार के लिए समर्पित। फिल्म में मीडिया से जुड़े लोगों की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण बताई गई है कि लगता है कि पीएमओ तो कुछ है ही नहीं। फिल्म में 4-5 लोगों को पीएमओ की जिम्मेदारी दिखाई गई है, जो सही नहीं लगता।
4 फुट 2 इंच के आधे हीरो की जीरो फिल्म में डायरेक्टरों के नाम है - अनुभव सिन्हा, फरहा खान, राहुल ढोलकिया, इम्तियाज अली और आनंद एल. रॉय। 5 डायरेक्टर मिलकर भी एक सुपरस्टार और दो बड़ी अभिनेत्रियों की फिल्म को औसत से ज्यादा नहीं बना पाए। फिल्म में ऐसी फैंकी है, ऐसी फैंकी है, ऐसी फैंकी है कि हंसी भी आती है और रोना भी। शाहरुख खान जबरदस्त एक्टर है और पिछली पांच फिल्मों से उनके सितारे अच्छे नहीं चल रहे। जीरो में वे तो प्रभावित करते हैं, लेकिन कहानी में इतने झोल है कि इंटरवल के बाद दर्शक पकने लगता है। इसके पहले कमल हासन अप्पू राजा फिल्म में बौने हीरो की भूमिका कर चुके हैं।