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ज्योति प्रकाश दत्ता सरहद, बॉर्डर, रिफ्यूजी, एलओसी कारगिल जैसी फिल्में बना चुके हैं, अब वे पल्टन लेकर आए हैं। इस फिल्म में उन्होंने नाथू ला दर्रे के पास की हुई झड़प को सिनेमा के पर्दे पर उतारा है। सिक्किम को बचाने के लिए भारतीय सेना चीन की सेना से टकराई थी, उसी के असली किरदारों को लेकर यह फिल्म बनाई गई है। सैनिकों और देशप्रेम से जुड़ी इस फिल्म में नए पन की कमी अखरती है। 1962 के युद्ध में शहीदों के घर आने वाले तार इस तरह वितरित करते दिखाए गए है, मानो अखबार बांटे जा रहे हो। शुरूआत के इस दृश्य से ही फिल्म अतिरंजना की शिकार लगती है।
क्या आपको पैसे देकर बेवकूफ बनने का शौक हैं? क्या आप केवल कलाकारों के नाम जानकर फिल्म देखने चले जाते हैं? क्या आपके पास बहुत ज्यादा फालतू वक्त हैं? हां भई हां। तो यह फिल्म आप ही के लिए है। स्त्री नाम देखकर यह मत सोचिये की यह फिल्म महिलाओं के जीवन पर आधारित है या उनके लिए बनाई गई है या इसमें आधी दुनिया की परेशानियां चित्रित की गई है। यह एक नये जोनर की फिल्म है, वह जोनर है मूर्खता!
हैप्पी 2016 में भागी थी। दो साल बाद फिर भाग गई। पहली बार भागी, तो दर्शक उतना अनहैप्पी नहीं हुए, जितना अब हो गए। पिछली बार वह भागकर गलती से पाकिस्तान पहुंच गई थी। इस बार बाप को मुंबई का बोलकर चीन चली गई। दोनों बार प्रेमी के चक्कर में भागी थी। जिम्मी शेरगिल पिछली बार भी कुंवारा रह गया था, इस बार भी। पिछली बार हैप्पी का भागना थोड़ा तर्क संगत लगा था, इस बार निहायत बेवकूफी भरा। भागने के बाद भी वह गलती पर गलती किए जाती है और असंभव से अंत तक कहानी को पहुंचाकर ही दम लेती है।
विश्वरूपम-2 को विवादों में घसीटना गलत है, क्योंकि इस फिल्म में विवादास्पद कुछ भी नहीं। इस फिल्म की आलोचना करना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यह आतंकवाद के खिलाफ फिल्म बनी है, जिसमें यह डायलॉग दोहराया गया है कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं। थकेले कमल हासन की यह थकेली फिल्म है, जिसमें कमल हासन के अलावा शेखर कपूर, राहुल बोस, वहीदा रहमान जैसे कलाकार भी हैं, जो सब थकेले लगते है। कमल हासन ने फिल्म बनाई है, पैसे लगाए है, तो पर्दे पर उनका कल्पना से परे एक्शन करना और रोमांस करना तो बनता है। अब यह आपका दुर्भाग्य की आप उसे सह पाए या नहीं।
सन 2007 में आई चक दे इंडिया और इसी वर्ष आई सूरमा की तरह गोल्ड भी हॉकी के मैदान में खेल की कहानी है। तीनों ही फिल्मों में हॉकी मैच को देशभक्ति से जोड़कर देखा गया। सूरमा संदीप सिंह के जीवन पर आधारित थी, तो गोल्ड 1948 के लंदन ओलम्पिक में भारत की टीम द्वारा स्वर्ण पदक जीतने को लेकर है। चक दे इंडिया में कोच प्रमुख था, सूरमा में खिलाड़ी और गोल्ड में टीम का असिस्टेंट मैनेजर। १५ अगस्त को रिलीज करने के पीछे भी दर्शकों की भावनाओं को भुनाना उद्देश्य रहा है।
फन्ने खां में एक गाना है – मेरे अच्छे दिन कब आएंगे। आश्चर्य हुआ कि ऐसा गाना सेंसरबोर्ड ने पास कैसे कर दिया? सवा दौ घंटे की फिल्म खत्म होते-होते गाना बन जाता है – मेरे अच्छे दिन आ गए। तब समझ में आता है कि सेंसर वालों ने इसे क्यों रिलीज हो जाने दिया। अब राजकुमार राव जैसे कलाकार को ऐश्वर्या राय जैसी हीरोइन मिलेगी, तो उसके अच्छे दिन तो आ ही गए।