गुलशन नंदा से प्रकाश हिन्दुस्तानी की बातचीत
कुछ दिनों पहले एक बयान में आपने दावा किया था कि आप प्रेमचंद से ज्यादा लोकप्रिय हैं। ऐसे दावे का आधार क्या है?
मैंने कभी कोई ऐसा दावा नहीं किया। ज्यादातर अखबार वाले मेरे बारे में पूर्वाग्रह रखते हैं। खासकर आप लोग। आप लोगों ने मेरे बयान को कुछ उलट-पुलट कर छाप दिया था। मेरे ख्याल से आजकल पत्रकारों का काम केवल निंदा करना ही रह गया है। यह अच्छी बात नहीं है।
आप पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि आप उपन्यास बाद में लिखते हैं, पहले उस पर फिल्म बनवाने की व्यवस्था कर लेते हैं। यह बात कहां तक सही है?
आप पढ़ते हैं मेरे उपन्यास?
नहीं। कुछ फिल्में देखी हैं- ‘आराधना’, ‘खिलौना’, ‘काजल’ आदि, सबकी कहानियां एक जैसी ही हैं।
मैं आपसे दो बातें कहना चाहता हूं। पहली बात तो यह कि जब भी मैं कोई उपन्यास लिखना शुरू करता हूं तो मुझे लगता है कि यह घटना मेरी आंखों के आगे घट रही है। मैं किसी कल्पना को अपनी कहानी का विषय नहीं बनाता। उस पर बाद में फिल्म बन जाती है तो यह मात्र संयोग ही है।
दूसरी बात यह कि मेरे ज्यादातर उपन्यास सामाजिक होते हैं, लेकिन समीक्षक उन्हें ‘रोमांटिक’ उपन्यास का नाम दे देते हैं।
आपके उपन्यास युवा-पीढ़ी में बहुत लोकप्रिय हैं, लेकिन आप पाठकों को यथार्थ से दूर ले जाते हैं, जिससे बाद में उन्हें व्यावहारिक दुनिया में परेशानी होती है।
आपका आरोप कोई नया नहीं है। मैं आपसे उस युवक या युवती का नाम जानना चाहता हूं, जो मेरे उपन्यास पढ़कर भटक गए हों। यदि ऐसा एक भी नौजवान हो तो उसे ले आइए, मेरे सामने। सबका सोचने का अलग-अलग तरीका होता है। चाहे वह नेता हो, व्यवसायी हो या लेखक हो। मैं अपने विषय घटनाओं से चुनता हूं- इसलिए वे कल्पना नहीं हो सकते। वे पाठकों को यथार्थ में ही रखते हैं।
‘महबूबा’ और ‘नीलकमल’ फिल्मों की कहानियां आपने लिखी हैं, जिनमें पुनर्जन्म की दास्तान है। यह भी यथार्थ है क्या?
मैं पुनर्जन्म में यकीन करता हूं।
आपकी लोकप्रियता किशोर उम्र के लोगों में, खासकर किशोरियों में ही क्यों है?
ऐसा नहीं है। सभी उम्र के लोग मेरे उपन्यास पढ़ते हैं। बासु चटर्जी मेरे उपन्यासों पर फिल्म नहीं बनाते, लेकिन कहते हैं, ‘तुम्हारे उपन्यास मेरी मां, मेरी बीवी और मेरी बेटी सभी पढ़ते हैं’। तीनों पीढ़ियो के लोग मुझे पढ़ते हैं।
मेरा सबसे बड़ा गुनाह ही यह है कि मैं बहुत ज्यादा लोकप्रिय हूं, और मेरी किताबें लाखों में बिकती हैं। इसलिए समीक्षकों और संपादकों ने मुझे खारिज कर दिया है। हिन्दी पत्रिकाओं के संपादकों को मुझसे ईष्र्या होती है कि मैं इतना खुद्दार क्यों हूं। मैं उनके पास कभी क्यों नहीं जाता कि मेरी कहानी या धारावाहिक उपन्यास छाप दीजिए।
मैं मानता हूं कि मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण मेरे पाठक ही हैं। मैं उनके लिए लिखता हूं। संपादकों के लिए नहीं। मुझे न तो अखबारों के सहारे की जरुरत है और अवॉर्ड पाने का लालच। मैं उन लेखकों में से नहीं, जो केवल अवॉर्ड पाने के लिए लिखते हैं। कई लेखक अवॉर्ड पाने के लिए अखबारों में अच्छी समीक्षा छपवाने के लिए चक्कर काटते हैं, लेकिन अच्छी समीक्षा और अवॉर्ड के बावजूद जब लोग उन्हें नहीं पढ़ते तो मुझ पर तोहमत लगाते हैं कि मैं अश्लील बातें लिखता हूं, सेक्स के बारे में लिखता हूं, जबकि ऐसा नहीं है। मैंने कभी यह चिंता नहीं की कि मेरी किताबें लायब्रेरियों में जाती हैं या नहीं। कोई अवार्ड पाने का सपना मेरे मन में कभी नहीं होता। मेरा सबसे बड़ा अवॉर्ड तो मेरे पाठक ही हैं। क्या केवल इसीलिए मेरे उपन्यास घटिया हो गए?
कई फिल्मों की कहानियां आपने लिखी हैं, लेकिन फिल्म निर्माता-निर्देशक बनने का ख्याल आपको कभी नहीं आया, ऐसा क्यों?
कई बार मुझे लगता है कि यदि अच्छी फिल्म बनाना हो तो उसका निर्माता-निर्देशक खुद ही होना चाहिए। फिल्म निर्माता हमारी कहानियों को इतना तोड़-मरोड़ देते हैं कि उसकी सारी जान ही खत्म हो जाती है, लेकिन कुछ वर्षों से स्वास्थ्य अच्छा न रहने के कारण मैं अब फिल्म नहीं बना सकता। मुझे न फिल्में देखने में लुत्फ आता है, न लिखने में। लगता है हम दर्शकों का जायका बिगाड़ रहे हैं। मैं वास्तव में बेहद साफ सुथरी फिल्म लिखना चाहता हूं, लेकिन वह तभी बन सकती है, जबकि हमारे आज के निर्देशक और निर्माता भी ऐसा ही सोचें। सेक्स और हिंसा यदि कहानी का हिस्सा हो तो वह कहानी ही नहीं बिगड़ती, बल्कि लेखक जो कहना चाहता है, वह भी दब जाता है।
आप केवल रोमांटिक उपन्यास ही क्यों लिखते हैं?
रोमांटिक ही नहीं, सामाजिक भी। कोई भी लेखक अपनी दिशा खुद नहीं चुन सकता, समय के साथ हर लेखक को चलना पड़ता है। जो मैं आज लिख रहा हूं, वह बीते कल के लेखक शायद न लिख सवेंâ। जो वह लिख गए, वह अब मौं नहीं लिख सकता।
जाली उपन्यासों के जंजाल से आपने मुक्ति वैâसे पाई?
पाठकों की चिट्ठियों से मुझे अक्सर पता चल जाता है कि मेरे नाम से क्या-क्या छप रहा है? जाली उपन्यास छापने वालों पर मैंने मुकदमे चलाए और सीबीआई की मदद भी ली। उनके सहयोग से ही मैं उन भ्रष्ट लोगों के खिलाफ लड़ सका।
कहानियों के लिए ‘कच्चा माल’ आप कहां से पाते हैं?
मैं बहुत अनुभव संपन्न व्यक्ति हूं। जिंदगी में मैंने बहुुत से तजुबात हासिल किए हैं। बहुत यात्राएं और लम्बा संघर्ष मैंने किया है। मेरे ज्यादातर उपन्यास उन्हीं घटनाओं पर आधारित होते हैं। कभी-कभी अखबारों में छपी खबरें भी मेरे लिए ऐसी सामग्री दे देती हैं। मेरे उपन्यास ‘लरजते आंसू’ की थीम एक खबर पर ही आधारित है।
आपकी राजनैतिक विचारधारा कौन सी है? आप उस पर क्यों नहीं लिखते?
राजनीति में मेरी रुचि नहीं है। लेकिन एक सच्चा भारतीय मैं जरुर हूं। कोई भी नेता यदि अच्छा काम करें तो मैं उसका समर्थन करता हूं। पण्डित नेहरु जब तक जिंदा थे, वहीं मेरे आदर्श पुरुष थे। गांधीजी के दर्शन को भी मैंने खूब पढ़ा है, लेकिन मुझे लगता है कि नेहरुजी के जाने के बाद राजनीति का स्तर बहुत नीचे गिर गया है। फिर भी मैं राजनीति पर लिखना चाहता हूं और वह मैं लिखूंगा भी, लेकिन मुझे लगता है कि डर कर लिखने से तो न लिखना ही बेहतर है।
(दिनमान 6-12 मार्च, 1983)