वे फिल्म दर्शक, जिन्हें हिन्दी फिल्मों के स्तर से शिकायतें हैं, इस बात से और भी निराश होंगे कि मराठी फिल्मों के सुपर स्टार दादा कोंडके अब हिन्दी फिल्मों में आ रहे हैं। दादा कोंडके मराठी फिल्मों के सुप स्टार भले ही हों, मराठी दर्शकों का कहना है कि दादा कोंडके की फिल्मों पूâहड़न, द्विअर्थी संवाद और घटिया हास्य के सिवाय कुछ नहीं होता।
दादा कोंडके हास्य कलाकार हैं और दर्शकों को उनका काम इतना अच्छा लगता है कि दादा कोंडके के नाम से वे फिल्में देखने जाते हैं। अब तक उन्होंने कुल ९ फिल्मों में काम किया है और ये सभी नौ फिल्में सुपर हिट रही हैं। हर फिल्म ने गोल्डन जुबली मनाई है। जब दादा कोंडके की सात मराठी फिल्मों ने गोल्डन जुबली मनाई, तभी उनका नाम ‘गिनीज बुक्स ऑफ वल्र्ड रेकाड्र्स’ में दर्ज हो गया। उसके बाद उनकी दो और मराठी फिल्मों ने गोल्डन जुबली मनाई है।
दादा कोंडके हिन्दी फिल्मों के लिए दो तरह से खतरा हैं। पहला तो यह कि यदि हिन्दी फिल्मों में वे सफल रहे तो हिन्दी के कई प्रसिद्ध अभिनेताओं की छुट्टी हो जाएगी। इस खतरे में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि दर्शक को तो केवल फिल्मों से मतलब है। वे मनोरंजक होनी चाहिए।
दादा कोंडके के हिन्दी फिल्मों में आने से दूसरा सबसे बड़ा खतरा है, हिन्दी फिल्मों के स्तर को। मराठी में दादा कोंडके की फिल्में अश्लील हरकतों और द्विअर्थी संवादों के कारण ही चली हैं। यह बात उनकी फिल्मों के नाम से भी साफ है। मसलन उनकी मराठी फिल्मों के नाम हैं, ‘आली अंगावर’ यानी शरीर से चिपकने वाली, ‘तुमचं अमचं जमहं’, यानी तुम्हारी-हमारी जम गई, ‘बोट लाबिन तिथं गुदगुल्या’, यानी जहां छुओ, वहीं गुदगुदी, ‘ह्योच नवरा पाहयजे’, यानी मुझे यहीं पति चाहिए। उनकी पहली हिन्दी फिल्म का नाम हैं ‘तेरे मेरे बीच में’। यह फिल्मपहले वे मराठी में बना चुके हैं, लेकिन तब उसका नाम था ‘राम राम गंगा राम’ यह नाम हिन्दी के नाम ‘तेरे मेरे बीच में’ से तो बेहतर ही है। ‘तेरे मेरे बीच में’ को तो हिन्दी दर्शक शायद सहन भी कर लें, लेकिन आने वाली दो हिन्दी फिल्मों के नामकरण वे कर रहे हैं ‘दिया तेरे हाथ में, अंधेरी रात में’ और ‘मैं लेती हूं, तू देता जा’। इस बारे में दादा कोंडके ने कहा, ‘बेशक, इसके दो अर्थ होते हैं, लेकिन आप गलत अर्थ ही क्यों सोचते हैं?’
संयोगवश मुझे दादा कोंडके की पहली फिल्म तेरे मेरे बीच में के दो गाने कामाक्षी पिक्चर्स प्रा.लि. के संपादन कक्ष में देखने का अवसर मिला है। इस फिल्म का केवल नाम ही पूâहड़ नहीं, गाने भी पूâहड़ हैं और हरकतें अश्लील हैं। यदि इसके खिलाफ हिन्दी के सुरुचि संपन्न फिल्म दर्शकों ने जेहाद नहीं छेड़ा तो उन्हें भविष्य में और भी घटिया फिल्में देखनी पड़ेंगी। तेरे मेरे बीच में की शूटिंग हो चुकी है। पूरी फिल्म कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के ग्रामीण क्षेत्र में फिल्माई गई है। दादा कोंडके के अलावा अमजद खान की इसमें मुख्य भूमिका है। मदनपुरी, मोहन चोटी, बीरबल आदि ने भी इसमें काम किया है। पूरी फिल्म उनचास दिनों ही फिल्माई गई है। इस फिल्म की सफलता पर ही दादा कोंडके का हिन्दी फिल्म जीवन टिका है। मराठी में गोल्डन जुबली मनाने का मतलब यह नहीं है कि यह हिन्दी में भी हिट होगी ही।
‘द्विअर्थी संवादों से बुराई क्या हैं?’
आपने कॉमेडी कब शुरू की?
जब मैं चार दिन का था।
चार दिन! वैâसे?
हुआ यह था (हंसी) जब मैं पैदा हुआ, तब बहुत ही दुबला-पतला था। इतना ज्यादा कि किसी को मेरे बचने की उम्मीद नहीं थी। ऊपर से एक ज्योतिषी ने यह कह दिया था कि यह लड़का बचेगा नहीं। घरवाले, सभी मेरी जिंदगी की आस छोड़ चुके थे। बाड़ी अस्पताह में मेरी जिंदगी का चौथा दिन था कि मेरे मामा आ गए। मेरे पिता मिल में वीविंग मास्टर थे। मेरे पिता के पास घरवालों ने सूचना भिजवाई कि तुम्हें बुलाया है। जब मेरे तिा ने मिल के शोर-शराबे में यह सुना कि उन्हें बुलाया गया है तब वे सकते में आ गए। उन्हें लगा कि मैं मर गया शायद, वे वीविंग मास्टर थे, उस कारण मिल में कामकाज बंद हो गया और लोग घर पर जमा होने लगे। फिर वे लोग इकट्ठे घर से अस्पताल आए। मां अचरज में पड़ गई कि अरे! इतनी भीड़। बाद में पता चला उन्हें कि मां ने मेरे पिता को इसलिए बुलाय ता कि मामा आए थे। इसलिए नहीं कि मैं मर गया था। जिंदगी की यहीं एक कॉमेडी मैंने सबसे पहले की!
सुना है कि आप पहले शादी-ब्याह में बैंड बजाया करते थे। फिल्मों तक का यह सफर आपने वैâसे तय किया?
यह भी एक कहानी है। लम्बी और दिलचस्प। मैं दुबला-पतला तो बचपन से ही था। चिड़चिड़ा और गुस्सैल भी था। पढ़ाई-लिखाई से मुझे नफरत ही थी। किताबी कीड़ा बनने का ख्याल मुझे नहीं आया। मैं दिनभर आवारागर्दी करता। सत्रह-अठारह साल का होते-होते मैं मोहल्ले का दादा बन गया था। तभी नायगांव में श्री कृष्ण सेवा मंडल बना। उसमें मेरी उम्र के ही लोग थे। वे लोग दिन भर बाजा-बजाते रहते। शादी-ब्याह में भी जाते। एक दिन मैं दोपहर के वक्त मंडल के सामने ‘ओटले’ पर बैठा था कि एक ने आकर मुझे लाफड़ा (तमाचा) मार दिया। बोला, ‘साला, तुम कुछ करता-धरता है नहीं, फोकट का दादागिरी इधर नहीं चलेगा।’ कुछ काम-धाम करो। कुछ बजाओ...’ मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, ‘ठीक है, मैं जल तरंग बजाऊंगा।’ पर जल तरंग बजाना बड़ा कठिन था, लेकिन मुझे सनक चढ़ गई। दिनरात मैं उसे बजाता, फिर मैंने धीरे-धीरे सभी कुछ बजाना सीख लिया। आज कोई ऐसा वाद्य नहीं है, जो मैं बजा नहीं सकता...।
कुछ अर्सा बाद मैंने दादर स्थित ‘अपना बाजार’ में सेल्समैन की नौकरी कर ली। दिन भर नौकरी और शाम को बाजा बजाना। शादी ब्याह में जाना। फिर मुझे नाटक का चस्का लगा। पर स्टेज पर जाकर डायलॉग बोलने में डर लगता था। मैं नाटकों में भी काम करने लगा, लेकिन आमतौर पर पोस्टमैन, चपरासी, पुलिसवाला ऐसे ही काम करता था। इस तरह की भूमिका में डायलॉग नहीं होते थे। एक दिन हमारी मंडली का एक सदस्य नहीं आया। उसके बिना नाटक होना मुश्किल था। उसका काम मुझे करना था। बहुत डरते-डरते मैंने डायलॉग बोले, लेकिन सफल हो गया। मारे खुशी के मैं उछल पड़ा। इससे मुझमें आत्मविश्वास आ गया और फिर मैंने वसंत सवनीस का ड्रामा ‘इच्छा माझी पूरी करा’ मंचित किया और उससे लाखों रुपए कमाए।
उस नाटक की कितनी प्रस्तुतियां हुई हैं?
अब तक १,१९० से अधिक। पूरे महाराष्ट्र में हम इसे दिखा चुके हैं। इब्राहीम अल्काजी ने जब यह नाटक देखा तो उन्होंने मंच पर आकर मेरा चुम्बन लिया और बधाई दी। एक दिन भालजी पेंढारकर नाटक देखने आए। उन्होंने मुझ से कहा कि तुम फिल्मों में काम क्यों नहीं करते? मैंने कहा कि मेरे पास न शकल है, न अकल। वैâसे कर सकता हूं। उन्होंने प्रेरणा दी। फिल्म बनी, ‘सोगाड्या’ (बहुरुपिया)। इस फिल्म ने मुझे मुकद्दर के आगे खड़ा कर दिया। फिर मेरी फिल्में धड़ाधड़ सफल होती गर्इं।
हिन्दी फिल्म बनाने का ख्याल आपके दिमाग में वैâसे आया?
मैंने सुन रखा था कि हिन्दी में फिल्म बनाना बहुत मुश्किल और महंगा काम है। मुझे समझ में नहीं आया कि क्या कारण है। वहीं वैâमरे, वहीं लेबोरेटरी, वहीं एडिटिंग। फिर हिन्दी फिल्म बनाना कठिन क्यों है? हिन्दी वाले कहते हैं कि हिन्दी फिल्मों में बड़े-बड़े सैट लगते हैं। सुंदर चेहरे होते हैं। हमारे पास तो वह कुछ भी नहीं था, लेकिन हिन्दी फिल्में मैंने जब भी देखीं, तब निराश ही हुआ। मैंने पैâसला कर लिया कि यदि यहीं हिन्दी फिल्म बनाना कठिन है, तो इससे अच्छी फिल्म तो मैं ही बना सकता हूं।
आपकी फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि उनमें द्विअर्थी संवाद होते हैं। क्यों है ऐसा?
बेशक दो अर्थ होते हैं। लेकिन आप उसमें से दूसरा अर्थ ही क्यों सोचते हैं। सही अर्थ सोचिए न आ! सेंसर वाले भी यही कहते हैं। मैंने कहा, आप गलत अर्थ क्यों लेते हैं? बलात्कार, नंगेपन और वैâबरे के दृश्य तो आ पास कर देते हैं और हम पर आरोप लगाते हैं कि हम अश्लील फिल्म बनाते हिैं। अश्लीलता तो दिमाग में भरी होती है।
यह तो कोई तक नहीं है। अश्लीलता तो आंखों में भी दिखाई जा सकती है। हाथ की मुट्ठी बंद करने का तरीका भी अश्लील हो सकता है। यदि कहानी की जरुरत बलात्कार के दृश्य दिखाने की है, तब तो बात समझ में आती है। बिना बात के ऐसे दृश्य ठूंसना क्या उचित है?
मैं कहां कहता हूं कि है? मेरा तो कहना है कि मेरी फिल्म में ऐसे दृश्य नहीं होते। मेरी किसी भी फिल्म में बलात्कार, स्नान, वैâबरे आदि दृश्य नहीं हैं। मेरी फिल्म की नायिका नौवार की साड़ी पहनती है। एक फिल्म में हमने गाय का नाम इंदिरा रखा तो उस पर सेंसर को आपत्ति हो गई। यदि हम भैंस का नाम इंदिरा रखते तो आपत्ति की जा सकती थी, लेकिन ‘विधाता’ ल्मि का गाना ‘सात सहेलियां खड़ी-खड़ी’ क्या अश्लील नहीं था?
वह तो अश्लील था ही, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि आपकी फिल्में अश्लील नहीं हैं?
यदि मेरी फिल्में अश्लील होतीं तो इतने लोग उन्हें देखने नहीं आते। जिस दुकान पर खराब माल बिकता है, उस दुकान का कोई माल नहीं खरीदता।
किस तरह के लोग आपके दर्शक हैं?
खासकर ग्रामीण इलाके के। गांवों में मनोरंजन के साधन बहुत ही कम हैं। वहां पर न तो टीवी है, न वीडियो। मेरी फिल्में उन्हीं लोगों के लिए हैं।
लेकिन लोकनाट्य शैली का मतलब यह तो नहीं कि अश्लीलता दिखाई जाए?
आप मेरी फिल्मों के खिलाफ हैं, लेकिन सत्यजीत राय की फिल्मों क्या होता है? आर्ट फिल्मों में क्या होता है? आर्ट फिल्मों में गरीबी का गलत चित्रण ही क्यों होता है? सेंसर उसे क्यों नहीं काटता? क्या हिन्दुस्तान में केवल गरीबी ही है? क्या ऐसी फिल्में हमारे देश की खुद्दारी के खिलाफ नहीं हैं?
क्या आप इस बात से इनकार करते हैं कि हम एक गरीब मुल्क नहीं हैं?
यह मैंने कब कहा? लेकिन मैं यह कह रहा हूं कि अच्छी फिल्मों को सरकार पुरस्कार क्यों नहीं देती? फिल्मों का सबसे बड़ा निर्णायक तो दर्शक है। सरकार पांच लोगों को निर्णायक बनाकर पुरस्कार दे देती है। मेरी फिल्मों से सरकार को मेरी फिल्में पसंद नहीं हैं, तो वह सारा टैक्स वापस कर दे, क्योंकि जब किसी मां को लगता है कि उसके बेटे ने ईमानदारी से नहीं कमाया है, तो वह उस पैसे को लौटा देती है। अपने पास नहीं रखती।
आप प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में थे। क्या आप भी चुनाव लड़ेंगे?
नहीं, लेकिन यह तय हौ कि मैं किसी भी मिनिस्टर को महाराष्ट्र में किसी भी सीट पर हरा सकता हूं, हालांकि महाराष्ट्र में फिल्म वालों का वह ‘व्रेâज’ नहीं है, जो आंध्र या केरल में है।
आपने चार्ली चै्िलन की यह आदमकद तस्वीर क्यों लगा रखी है? क्या ये आपके आदर्श हैं?
जी हां, लेकिन मुझे राजकपूर भी बहुत अच्छे लगते हैं।
अश्लीलता की आपकी क्या परिभाषा है?
जब आर्ट खत्म हो जाता है, तब फिल्मों में नंगान आ जाता है। हिन्दी फिल्मों में आर्ट खत्म हो गया है, इसीलिए उनमें वैâबरे, बलात्कार आदि के दृश्य होते हैं। मैं इन्हीं चीजों को अश्लील मानता हूं।
हिन्दी फिल्म बनाने के आके अनुभव वैâसे रहे?
हिन्दी फिल्मों में अभिनय का पक्ष छोड़कर सारी तकनीकी बातों पर खूब ध्यान दिया जाता है। सेट्स पर फिल्म के अलावा सारी बातें होती हैं। अनावश्यक कट्स लिए जाते हैं। इससे खर्च बढ़ता है। मेरी फिल्म इसका अपवाद होगी। मैं हिन्दी फिल्म वालों को बता दूंगा कि फिल्म वैâसे बनती है।
भविष्य में आप क्या करना चाहते हैं?
मैं अपना खुद का स्टूडियो खोलना चाहता हूं। वह मैं पुणे में खोलूंगा।
-बंबई से प्रकाश हिन्दुस्तानी
(दिनमान में प्रकाशित)