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कांग्रेस में इस्तीफों का मानसून है, मान-मनोव्वल की झड़ियां लग रही हैं, पार्टी के संविधान के अनुसार कार्यसमिति किसी को स्थायी अध्यक्ष नियुक्त नहीं कर सकती। ख़ुशामद चल रही कि कोई गैर-गांधी अध्यक्ष नहीं चल पाएगा। यह सब उस पार्टी में हो रहा है, जिसका गौरवशाली अतीत रहा है।

एक इंटरव्यू में राहुल गांधी ने कहा था कि देश अगर एक कम्प्यूटर है, तो कांग्रेस को उसका डिफाल्ट प्रोग्राम कहा जा सकता है। डिफ़ॉल्ट प्रोग्राम वह प्रोग्राम होता है, जिसका उपयोग विंडोज तब करता है जब आप एक विशेष प्रकार की फ़ाइल खोलने के लिए डबल क्लिक करते हैं। यदि आपके कंप्यूटर पर एक से अधिक वेब ब्राउज़र हैं, तो आप उनमें से एक को डिफ़ॉल्ट के रूप में चुन सकते हैं। कई प्रकार की कम्प्यूटर फाइलें खोलने के लिए डिफ़ॉल्ट प्रोग्राम आवश्यक हैं।

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अब अगर कांग्रेस देश के लिए एक डिफ़ॉल्ट प्रोग्राम है तो वह यूँ ही नहीं है। डिफ़ॉल्ट प्रोग्राम की अपनी महत्ता है। मान लीजिए कि देश नहीं, कांग्रेस एक कम्प्यूटर है तो उसका डिफ़ॉल्ट प्रोग्राम क्या है? गांधी परिवार ? राहुल गांधी? प्रियंका गांधी वाड्रा? या कोई गैर गांधी? 1885 में जब इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना की गई थी तब तब इसका उद्देश्य ब्रिटेन से भारत की आजादी की लड़ाई लड़ना नहीं, प्रबुद्ध लोगों को एक मंच पर साथ लाना था ताकि देश के लोगों के लिए नीतियों के निर्माण में मदद मिल सके। थियोसॉफिल सोसायटी के 17 सदस्यों को साथ लेकर एओ ह्यूम ने पार्टी बनाई। 1885 में बोमेश चंद्र बनर्जी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। वह एक सुधारवादी संगठन था। किसी एनजीओ की तरह। 1920 के दशक में वह गांधीजी के 'नेतृत्व' में धीरे-धीरे स्वदेशी को बढ़ावा देनेवाला संगठन बन गया था।

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जलियांवाला बाग़ में जघन्य हत्याकांड के बाद कांग्रेस संगठन अवज्ञा आंदोलन की तरफ मुड़ा। सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के भीतर ही इण्डिपेण्डेंस लीग शुरू की थी । 1927 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाए । कोलकाता में सुभाष चंद्र बोस ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाष उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने खाकी गणवेश धारण करके पार्टी अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी थी। गाँधी जी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की माँग के पक्ष में नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। 20 जनवरी 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया था।

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इसका उद्देश्य था कि अंग्रेजी हुकूमत से भारतीयों को आजादी दिलाना। यह आजादी राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक थी। 1930 में नमक सत्याग्रह के साथ कांग्रेस के आंदोलन को धार मिली। दूसरे विश्वयुध्द के शुरू होने के बाद 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था। लक्ष्य था भारत से ब्रितानी साम्राज्य को समाप्त करना।

आज़ादी के पहले गांधीजी की पार्टी में तूती बोलती थी। ऐसे कम मौके ही आये, जब उनका चहेता नेता अध्यक्ष की कुर्सी पर नहीं बैठ पाया हो। गांधीजी कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता होते हुए भी आलोचना के शिकार होते रहे। 28 अगस्त 1893 को श्री अरबिन्दो ने कहा था कि कांग्रेस अपने लक्ष्य से भटक गई है। वह अपने लक्ष्य को पाने के लिए सही तरीका भी नहीं अपना रही। 1918 में श्री अरबिन्दो ने कहा था कि कांग्रेस आंदोलन पूरी तरह से अंग्रेज़ी विचारधारा वाले लोगों का आंदोलन बन गया है। ये लोग अंग्रेज़ी इतिहास पढ़ते हैं और यूरोप की सभ्यता से नाता रखते हैं ।

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27 दिसंबर 1938 को श्री अरबिन्दो ने ही कहा था कि वर्तमान समय में कांग्रेस एक फासिस्ट संगठन बन गया है। मैं हिटलर तो नहीं कहूंगा, लेकिन यह ज़रूर कहूंगा कि गांधी, स्टालिन की तरह बर्ताव करने लगे हैं। गांधी जो कहते हैं, वह पार्टी को स्वीकार करना पड़ता है और कार्यसमिति को उसे फॉलो करना होता है। इसके बाद वही बात अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी तक जाती है, जो उसे स्वीकार करती है और फिर पूरी कांग्रेस उसे स्वीकार कर लेती है। यहां विचारों से मतभेद का कोई स्थान नहीं है। समाजवादी इससे अलग मत रखते है, लेकिन उनकी सुनता कौन है। कोई भी बात जनता तक जाने के पहले तय कर ली जाती है। यही पूरी पार्टी का भविष्य हो गया है।

पहले कांग्रेस का अधिवेशन हर साल होता था। हर साल अध्यक्ष बदलता। किसी-किसी साल तो दो लोगों को अध्यक्ष की कुर्सी मिल जाती। कई बार एक नेता घूम फिरकर कुछ साल बाद फिर अध्यक्ष की कुर्सी पर जम जाता। जवाहरलाल नेहरू आठ साल तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। सोनिया गांधी ने 1997 में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और उसके 62 दिनों के अंदर 1998 में कांग्रेस की अध्यक्ष चुन ली गईं। इस पद पर वे करीब 19 साल तक रहीं। 16 दिसंबर 2017 राहुल गांधी ने अपनी मां से पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी का दायित्व संभाला था। कांग्रेस के 87 अध्यक्षों में से 6 नेहरू-गांधी परिवार से रहे। कांग्रेस पार्टी के 87वें अध्यक्ष पद का दायित्व संभालते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी ही मेरा जीवन है। भारत के लोग मेरे प्राण हैं और मैं अपने देश और कांग्रेस पार्टी के लिए पूरी जिंदगी संघर्ष करूंगा। राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि मेरा एक लक्ष्य है। मेरे दिमाग में वह लक्ष्य स्पष्ट है। भारतीय राजनीति में अभी जो कुछ हो रहा है, वह जनता के अनुकूल नहीं हो रहा। देश में जो भ्रष्टाचार है, उसका सबसे ज्यादा वजन गरीब लोगों पर आ रहा है।

अप्रैल 2018 में दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई जनआक्रोश रैली में राहुल गांधी ने अपना सारा भाषण इन्हीं बातों पर केन्द्रित रखा था - मोदी सरकार ने दो करोड़ रोजगार का वादा किया था, वे कहां है? बेरोजगारी हद से ज़्यादा बढ़ गई है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं और भाजपा इस बारे में कुछ भी नहीं कर रही है। विद्यार्थी एज्युकेशन लोन ले रहे हैं और उसे चुकाने के लिए उनके पास कोई रोजगार नहीं है। बिना कांग्रेस पार्टी के भारत के किसान जी नहीं सकते। राहुल गांधी ने कहा था कि मोदी सरकार किसानों की जमीन छीनने पर आमादा है। आरएसएस हमारे सभी प्रमुख शिक्षा संस्थानों पर कब्जा करने के लिए तत्पर है। चीन की निगाहें हमारी सीमाओं पर हैं। 30 मिनिट के भाषण में राहुल गांधी ने 17 बार नरेन्द्र मोदी का नाम लिया था।

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2019 में कांग्रेस की दुर्दशा के बाद आईसीयू में पड़ी पार्टी अभी भी चेतनाशून्य है। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा। कारण यह है कि कांग्रेस में कोई दूसरी, तीसरी, चौथी और पांचवीं पंक्ति बनाई ही नहीं गई। केवल शीर्ष पद रहा और बाकी अनुगामी। यह ऐसा ही है जैसे सेना में एक जनरल हो और बाकी सब सिपाही। कांग्रेस पार्टी ने अपने लेफ्टिनेंट जनरल, मेजर जनरल, ब्रिगेडियर, कर्नल, लेफ्टिनेंट कर्नल, मेजर, कैप्टन आदि नियुक्त ही नहीं किए, जो अधिकारी थे, वे भी दिखावे के थे। उन सब ने अपनी-अपनी छोटी-मोटी जागीरें बांट रखी थी।

2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद एक पत्रकार के रूप में मैं दिल्ली में कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता से मिला। उनकी योजनाएं पूछने पर उन्होंने कहा कि अब हम विपक्ष में हैं । हमें करना क्या है? सरकार जो करेगी, हमें उसका विरोध करना है। सरकार की विफलताएं अब हमारे लिए प्लस प्वाइंट होगी। हमारी कोई ज़िम्मेदारी है नहीं। पांच साल हम आराम करेंगे और सरकार की खामियां गिनाते रहेंगे। विपक्ष में रहते हुए पांच साल उन्होंने यही किया और पांच साल बाद जब चुनाव आए, तब लोगों ने कांग्रेस को ग़लत साबित कर दिया। लोगों को लगता था कि कांग्रेस विपक्ष में रहकर सक्रिय विपक्ष की भूमिका निभाएगी, लेकिन उसने सक्रिय विपक्ष के बजाय केवल खानापूरी वाले विपक्ष की भूमिका ही निभाई।

राहुल गांधी 2014 के बाद धीरे-धीरे परिपक्व होते जा रहे हैं। कई बार उन्होंने राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण भी प्रस्तुत किया। ग़लतियां भी बहुत सी की और बहुत सी शिक्षा भी ली। भाषा में तीखापन लाए। जन-जन से मिलते रहे। पुरानी ग़लतियों पर क्षमा भी मांगते रहे। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनने पर उनमें नया जोश भी आया था। कांग्रेसी भी उत्साह में थे। राहुल गांधी को विश्वनाथ प्रताप सिंह याद आ रहे थे, जिन्होंने उनके पिता राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स तोप की खरीद में तथाकथित घोटाले को उजागर किया था और उसी के बहाने वे सत्ता में भी आ गए थे। अनेक लोगों की तरह राहुल गांधी को भी लगता था कि जिस तरह विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफोर्स पर सवार होकर सत्ता में आए; वैसे ही रॉफेल पर सवार होकर वे सत्ता पा लेंगे, लेकिन यह हो न सका।

अनचाहा हाहाकार और छाती कूटने में खर्च होती समर्थ संभावनाएं 

विगत 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 44 सीटों पर सिमट गई थी, अब उसकी हालत थोड़ी अच्छी है। थोड़ी यानी 8 सीटें ज़्यादा । राहुल गांधी और उनके साथियों को आशा थी कि कांग्रेस की ऐसी दशा कभी नहीं होगी, वे अपेक्षा कर रहे थे कि 100 से 150 सीटें कांग्रेस को मिल ही जाएगी। चुनाव की हार के बाद पूरी कांग्रेस पार्टी इस तरह सन्नाटे में है, मान लो मय्यत का माहौल हो। कांग्रेस कार्यसमिति किसी भी व्यक्ति को स्थायी रूप से अध्यक्ष नियुक्त नहीं कर सकती। कांग्रेस पार्टी का संविधान कहता है कि कार्यसमिति केवल अस्थायी अध्यक्ष ही कार्यसमिति चुन सकती है।

वास्तव में तीन राज्यों में सत्ता पाते ही कांग्रेस के एक बड़े वर्ग में अहंकार आ गया। कांग्रेसियों के चेहरे ऐंठ गए और वे सब जनसेवक के बजाय साहबी करने पर आ गए। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 साल के बैराग्य के बाद सत्ता तक पहुंचे कांग्रेसियों को लगने लगा कि अब दिल्ली ज्यादा दूर नहीं। दिल्ली पहुंचने के पहले ही उनका व्यवहार दिल्ली वालों जैसा हो गया है। राहुल गांधी के साथ जो एक मंडली काम कर रही थी, उसकी प्रतिबद्धता को छोड़ दें, तो तमाम कांग्रेसी सत्ता के मोह में पूरी तरह से पड़ चुके थे। कई नेता तो अपने पुर्नवास के लिए कुर्सियां तय कर रहे थे। सत्ता छोड़ने के पहले भाजपा की सरकारों ने इन राज्यों का खजाना खाली कर दिया था और सरकारें आर्थिक रूप से दिवालिया होने के कगार तक पहुंच चुकी थी। दिल्ली में सत्ता पाने के लिए पुरानी सरकारों ने खूब पानी उलीचा था। लिहाजा सत्ता का उतना फायदा कांग्रेस नहीं उठा पाई, जितनी आशा थी।

राहुल ने सरकार बनाने और कांग्रेस को आगे ले जाने के बारे में जो भी ख्वाब देखे हों, वे फिलहाल पूरे होते नज़र नहीं आते। न ही उनके पास वैसी टीम है और न वैसा जज्बा, जो कुछ कर दिखाए। अगर महात्मा गांधी ने कांग्रेस को अपने हिसाब से डिक्टेट किया, तो यह वे इस कारण कर पाए, क्योंकि वे अपने आप में आश्वस्त थे कि यही सही रास्ता है। दूसरी बात उन्होंने कांग्रेस संगठन को इस तरह महत्वपूर्ण बना दिया था कि कांग्रेस संगठन की आवाज़ देश की आवाज लगने लगी थी। अब राहुल गांधी अध्यक्ष पद से हटना चाहते हैं और चाहते हैं कि कोई गैर-गांधी इस कुर्सी पर बैठ जाए। सवाल यह है कि क्या वह गैर-गांधी व्यक्ति कांग्रेस को उस तरह से चला पाएगा, जिस तरह राहुल और सोनिया चलाते रहे हैं। अध्यक्ष जो भी बनेगा , वह गांधी परिवार के आशीर्वाद से ही फूंक-फूंककर कदम रखेगा । अगर ऐसा हुआ, तो फिर बेहतर है कि राहुल गांधी ही अध्यक्ष बने रहें। अगर राहुल गांधी अध्यक्ष नहीं रहते, तो क्या वे एक साधारण कार्यकर्ता की तरह पार्टी के लिए कार्य कर पाएंगे?

कांग्रेस के पास भाजपा जैसा संगठन है नहीं। भाजपा की शक्ति उसका अपना संगठन तो है ही, दर्जनों आनुषांगिक संगठन भी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय किसान संघ, भारतीय मज़दूर संघ, गीता विद्यालय, सरस्वती शिशु मन्दिर, विद्या भारती, अखिल भारतीय उपभोक्ता परिषद्, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, सेवा भारती, संस्कार भारती, लघु उद्योग भारती, क्रीड़ा भारती, आरोग्य भारती, संस्कार भारती, प्रज्ञा भारती और भी न जाने कितने संगठन। कांग्रेस जब अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए सक्षम हुई, तब वह पार्टी से ज़्यादा एक आंदोलन हुआ करती थी। उसके पास भी आनुषांगिक संगठन थे। उनका काम दूरस्थ इलाकों में ज़्यादा था। 1923 में नारायण सुब्बाराव हार्डीकर ने सेवादल की स्थापना की थी। इस सेवादल का काम इतना ताकतवर था कि अंग्रेजी शासन की नींद उड़ चुकी थी। कांग्रेस ने जो असहयोग आंदोलन चलाया, उसमें सेवादल की भूमिका को कोई नहीं भुला सकता। सेवादल की स्थापना के दो साल बाद केशव बलिराम हेगड़ेवर ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की थी। हेगड़ेवर स्कूल के जमाने से हार्डीकर के साथ पढ़ते थे। सेवादल की गतिविधियाें की तरह ही आरएसएस ने भी गतिविधियां चलाई। सेवादल का सदस्य होना राष्ट्रभक्त होने का प्रमाण पत्र था।

आज संघ के कार्यकर्ता अपने आप को वही तो बताते हैं। इसके अलावा कांग्रेस के पास इंटक जैसे मजदूर संगठन थे, जिन्होंने औद्योगिक क्षेत्रों में सक्रिय रूप से काम किया था और कांग्रेस के लिए ज़मीन तैयार की थी। महिला कांग्रेस और युवा कांग्रेस के साथ ही कांग्रेस के छात्र संगठन भी सक्रिय थे। आज़ादी के बाद ये संगठन शहर-शहर और कस्बों में कैम्प लगाया करते थे और युवाओं को कांग्रेस की विचारधारा से परिचित कराते थे।

आज़ादी के बाद सत्ता के मद में कांग्रेस सेवादल प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्षों को सलामी देने वाली मंडली बन गई। महिला कांग्रेस में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की पत्नियां और युवा कांग्रेस में नेताओं के युवा पुत्र काबिज होने लगे। आम लोगों की दिलचस्पी इन संगठनों से हटती चली गई। इंटक में मजदूरों की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं की जगह बिचौलियों ने जगह पा ली। 1990 में कांग्रेस की ही सरकार की नीतियों से देश निजीकरण की ओर बढ़ चला। श्रम कानूनों में भी बदलाव होने लगे। श्रमिक संगठन अपनी सत्ता खोने लगे। दूसरी पार्टियों ने भी अपने श्रमिक संगठनों को मजबूत किया। वामपंथी धीरे-धीरे परिदृश्य से गायब होने लगे। इस तरह कांग्रेस के आनुषांगिक संगठनों का महत्व कम से कमतर होता चला गया।

पिछले तीन दशकों में कांग्रेस का एक मात्र लक्ष्य केन्द्र में सरकार बनाना रहा। इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी ने राज्यों, जिला पंचायतों, नगर निगमों, नगर पंचायतों, ग्राम पंचायतों, सहकारी समितियों, विश्वविद्यालय छात्र संघों आदि में पैठ बनाना शुरू किया। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इसकी ओर से अनभिज्ञ रहा या जानबूझकर लापरवाही करता रहा। दर्जनों ऐसे संगठन है, जो घोषित रूप से न तो भारतीय जनता पार्टी के है और ना ही आरएसएस के, लेकिन उनका काम इन्हीं दोनों संगठन के फायदे के लिए कार्य करना है। उनके लक्ष्य स्पष्ट है। कांग्रेस ने 2003 में शिमला में एक चिंतन शिविर लगाया था, जिसमें सोनिया गांधी ने तय किया था कि पार्टी अपने कार्यकर्ताओं के लिए नियमित रूप से प्रशिक्षण शिविर आयोजित करेंगी। 16 साल बाद भी इस तरह की कोई अकादमी नहीं बन पाई और भाजपा ने दिल्ली-हरियाणा की सीमा पर 10 एकड़ की ज़मीन लेकर एक प्रशिक्षण अकादमी भी बना दी। कांग्रेस के अग्रिम संगठन अब भी बाल भवन में झूला झूल रहे हैं।

राजीव गांधी के बाद गांधी नेहरू परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री नहीं बना, जबकि इस दौरान 15 साल तक कांग्रेस की सरकार रही। कांग्रेस आज तक इस बात का प्रचार नहीं कर पाई कि कांग्रेस का अर्थ केवल गांधी-नेहरू परिवार नहीं है। कांग्रेस के अब तक के 87 अध्यक्षों में से केवल 6 गांधी-नेहरू परिवार के रहे। राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बने, तब नामांकन में 89 प्रस्ताव दाखिल किए गए थे, वे सभी वैध थे, लेकिन राहुल गांधी निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए, क्योंकि और कोई अध्यक्ष के लिए सामने आया ही नहीं था। इसके पहले परतंत्र भारत में भी कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए नामांकन पत्र भरे जाते थे। इन नामांकनों के बाद चुनाव भी होते थे। महात्मा गांधी के खिलाफ भी नेता खड़े होते थे और जीतते थे। इस तरह यह पार्टी गांधी की पार्टी होने के बाद भी गांधी की पार्टी नहीं थी। आजादी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले 18 नेता हुए । उनमें से 14 नेता नेहरू-गांधी परिवार के नहीं हैं । एक ज़माने में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन इंदौर से लेकर अमृतसर तक होते थे। नासिक, गुवाहाटी, लखनऊ, नागपुर आदि में भी अधिवेशन होते थे और पूरा माहौल कांग्रेसमय हो जाता था।

एक ज़माने में कांग्रेस के दो अखबार थे. कांग्रेस का प्रवक्ता होना बेहद प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी का भी एक ही प्रवक्ता होता था और मीडिया वाले उसके आगे-पीछे घूमते रहते थे। उसकी मदद के लिए एक सह प्रवक्ता भी होता था, जो प्रवक्ता की गैरमौजूदगी में मीडिया से तारतम्य बनाए रखता था। आज दूसर पार्टियों की तरह कांग्रेस के अनेक प्रवक्ता हैं । प्रादेशिक स्तर से लेकर जनपद स्तर तक प्रवक्ताओं की भरमार है और वे प्रवक्ता मीडिया से एकालाप करते दिखते हैं

राहुल गांधी को चाहिए कि वे पार्टी के अध्यक्ष पद छोड़ने की रट लगाने की बजाय मोर्चा संभाले। चुनाव में हार-जीत तो लगी रहती है, लेकिन मुख्य बात है मैदान पर डटे रहना। कांग्रेस की विचारधारा को लेकर डटे रहने की ज़रूरत आज ज्यादा है। संसद में बोलने की बजाय गांव-गांव जाकर लोगों से मिलना ज्यादा ज़रूरी है। चुनाव हारने के बाद रूठकर बैठना और पार्टी के ही दूसरे नेताओं को अप्रत्यक्ष रूप से दोषी करार देना ठीक नहीं। कांग्रेस की पुरानी परंपराओं को देखते हुए संगठन को मजबूत बनाने के लिए कार्य करना ज़रूरी है। अगर लक्ष्य केवल चुनाव है, तब मंजिल मुश्किल है, लेकिन संगठन को मजबूत करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर संगठन मजबूत रहा और कांग्रेस के आनुषांगिक संगठन मजबूत रहे, तब कांग्रेस को देश के लोगों की आवाज़ समझने में कठिनाई नहीं होगी। विपक्ष की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। कांग्रेस विपक्ष में है, तो उस दायित्व को निभाए। कांग्रेस के चुप रहने से सन्नाटा और भी फैलेगा। कांग्रेस अपने सहिष्णुता, समानता और व्यक्तिगत आज़ादी जैसे मूल्यों का समर्थन करती है, तो उस पर डटे रहना ज़रूरी है। सिर्फ चुनाव के वक्त सामने आने से काम नहीं चलेगा।

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