जो नेता विरोधी पार्टी में रहते 'अनैतिक', 'अछूत' और भ्रष्ट माने जाते थे, भाजपा में शामिल होते ही वे 'पवित्र' हो जाते हैं। अब तो ये राज्यपाल जैसे पदों की भी शोभा बढ़ा रहे हैं। विचित्र बात यह है कि मीडिया ऐसी दल-बदल की घटनाओं के बारे में कोई सैद्धांतिक आलोचना करने के बजाय इसे नेताओं का 'मास्टरस्ट्रोक' कहता है और पार्टी के नेताओं की तुलना चाणक्य से करने लगता है। कायदे से मीडिया को ऐसी अनैतिक गतिविधि के लिए प्रोत्साहित करने वाले नेताओं को हतोत्साहित करना चाहिए, लेकिन मीडिया दल-बदल की घटनाओं को मदारी का खेल समझता है।
जिस तरह यह माना जाता है कि गंगा में नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं, उसी तरह यह माना जाता है कि भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो जाने मात्र से न केवल पुराने पाप धुल जाते हैं , बल्कि भविष्य में किए जाने वाले पाप भी पाप नहीं रह जाते। भाजपा अब गंगा से भी ज्यादा पवित्र हो गई है क्योंकि गंगा स्नान से केवल अतीत के पाप धुलते हैं, लेकिन भाजपा में प्रवेश से अतीत के पाप तो धूल ही जाते हैं, भविष्य में किये जानेवाले पाप भी पुण्य में बदल जाने की संभावना रहती है। उन नेताओं की पृष्ठभूमि कुछ भी रही हो, अपराधियों से ताल्लुक रहा हो, हिन्दू राष्ट्र को पानी पी-पीकर कोसते रहे हों, असंतुष्ट बुद्धिजीवी हों, आर्थिक अपराधियों से संबंध रखते हों। गंगा में जैसे छोटी-छोटी नदियां और उपनदियां आकर मिलती है और गंगा हो जाती हैं, वैसे ही भाजपा में भी छोटे-छोटे दलों के लोग आकर मिलते हैं और पवित्रतम हो जाते हैं। गंगा किसी के साथ भेदभाव नहीं करती, लेकिन भाजपा गंगा से भी पवित्रतम है, इसलिए वह करती है। 75 प्लस का फॉर्मूला, लालकृष्ण आडवाणी, सुमित्रा महाजन, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, सरताज सिंह, बाबूलाल गौर, भुवनचंद्र खंडुरी, कलराज मिश्र, यशवंत सिन्हा आदि के लिए लागू होता है, लेकिन येदियुरप्पा के लिए नहीं, क्योंकि येदियुरप्पा तात्कालिक हितों को देखते हुए माकूल नज़र आते हैं।
पहले भाजपा में दूसरे दलों से आए नेताओं को प्रमुख पद नहीं मिलते थे, लेकिन अब मिलते हैं। भाजपा ने दल-बदलू नेताओं के सामने अब एक और लॉलीपॉप रख दिया है, वह है राज्यपाल का पद। राज्यपाल बनने जा रहे जगदीप धनखड़ पहले जनता दल में थे, फिर वे कांग्रेस में गए और भाजपा में आए तो उन्हें राज्यपाल का पद मिल रहा है। इसी तरह फागु चौहान पहले बसपा में थे, लेकिन फिर वे भाजपा में आए और अब बिहार के राज्यपाल हैं। हरियाणा कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल चौधरी वीरेन्द्र सिंह मोदी मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री हैं। उनके अलावा कांग्रेस से आए राव इंद्रजीत, राजद छोड़कर आए रामकृपाल यादव राज्यमंत्री हैं। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक कभी जनता दल में थे और फिर समाजवादी पार्टी से भी चुनाव लड़ चुके हैं। ऐसा नहीं है कि सारे दल-बदलू नेता भाजपा में ही आ रहे हैं। भाजपा छोड़कर कांग्रेस में भी जाने वालों की संख्या काफी है। पर कांग्रेस सत्ता में नहीं है, इसलिए यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि वे सत्ता के लालच में कांग्रेस में शामिल हुए। राष्ट्रीय पार्टियों की तुलना में क्षेत्रीय पार्टियों के नेता ज़्यादा दल-बदल करते हैं।
चाल, चरित्र और चेहरे की बात करनेवाली भाजपा के नेता मध्यप्रदेश में कभी भी सरकार गिराने का दावा करते थे, लेकिन दो विधायकों ने भाजपा का गणित बिगाड़ दिया। जो भाजपा विधायक दल-बदल को पवित्र कहते थे, अब दल-बदल की गतिविधि में दाग़ ढूंढने लगे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व दल-बदल की गतिविधि को तब ही खराब कहता है, जब वह भाजपा के पक्ष में न हो। भाजपा के पक्ष में होने वाला हर दल-बदल उन्हें पवित्र कार्य नजर आता है। ताजा उदाहरण कर्नाटक का है। एक लाइन के प्रस्ताव में विधानसभा में उनके प्रति विश्वास व्यक्त कर दिया गया। 225 सदस्यीय विधानसभा में जोड़-तोड़कर भाजपा ने बहुमत हासिल कर लिया। 17 बागी विधायकों को अयोग्य घोषित किए जाने के बाद 208 सदस्यों के आधार पर बहुमत का फैसला हुआ और येदियुरप्पा फिर कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन गए। इसके पहले भी वे तीन बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं।
गोवा विधानसभा में 40 सदस्य हैं । उनमें से एक हैं चंद्रकांत कावलेकर। फिलहाल वे वहां उपमुख्यमंत्री हैं। पहले वे कांग्रेस के विधायक थे, अब भाजपा में हैं । जब विपक्ष में थे, तब भाजपा के अनुसार वे अवैध मटका चलाते थे, बेनामी ज़मीनों का सौदा करते थे और अनेक ऐसे काम करते थे, जो नहीं किए जाने चाहिए। अब वे भाजपा में हैं और उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। एक और विधायक हैं , जो पहले कांग्रेस में थे, नाम है अतोनासियो मोनसेराते, बोलचाल का नाम है बाबुश। कभी मनोहर पर्रिकर की सरकार गिराने वाले बाबुश को गोवा की सत्ता के गलियारों में पैसा और शराब में डूबी राजनीति का पोस्टरबॉय कहा जाता है। मोनसेराते के ऊपर पॉक्सो एक्ट के तहत एक नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार और उसे बंदी बनाकर क़ैद में रखने के गंभीर आरोप अभी भी चल रहे हैं। 2016 के एक केस में गोवा की एक लड़की ने बाबुश पर 50 लाख रुपये में उसे ख़रीदकर लगातार कई दिनों तक बलात्कार करने और बंदी बनाकर रखने के गंभीर आरोप लगाए थे। विधायक मोनसेराते को इसके लिए 8 दिन जेल में भी रहना पड़ा था। मोनसेराते ने अपने खिलाफ लगे आरोपों को हटाने के लिए गोवा सेशन कोर्ट में याचिका दायर की, लेकिन कोर्ट ने इन आरोपों को जांच पूरा होने तक हटाने से इंकार कर दिया। मनोहर पर्रिकर की आसमयिक मौत के बाद भाजपा ने मनोहर पर्रिकर के बेटे उत्पल को टिकट न देकर उनके सहयोगी रहे सिद्धार्थ कुनकोलियेकर को चुनाव मैदान में उतारा था, लेकिन पर्रिकर के विरोधी बाबुश ने 25 साल से पर्रिकर के पास रही इस सीट से सिद्धार्थ को हराकर पणजी सीट हथिया ली थी। पर्रिकर की मौत के बाद हुए उपचुनाव में मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बनाते हुए कहा था कि मोनसेराते अगर जीत गए तो गोवा में कोई लड़की सुरक्षित नहीं रहेगी। मई में हुए उपचुनाव में भाजपा ने बलात्कार के आरोपी बाबुश के ख़िलाफ़ ‘गोवा को बचाओ’ अभियान भी चलाया था। अब बाबुश भाजपा में है और भाजपा को किसी से बचाने की ज़रूरत नहीं!
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन दल-बदलू नेताओं को भी टिकट दिए, जिनके बारे में भाजपा खुद अच्छी बातें नहीं कहती थी। असम विधासभा चुनाव में ही भाजपा ने 126 में से 86 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उन 86 में से 14 ऐसे लोगों को टिकट दिया था, जो दल बदलने के बाद भाजपा में शामिल हुए। उत्तरप्रदेश विधासभा चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी ने दागियों और दलबदलुओं को खुलकर टिकट बांटे थे। दागी छवि वाले अशोक चंदेल, गुंडागर्दी के लिए कुख्यात अजय प्रताप सिंह लल्ला भैय्या और बृजेश पाठक को भी भाजपा ने टिकट दिया था। टिकट पाने के बाद इन लोगों के ख़िलाफ़ होने वाली कार्रवाई धीमी पड़ गई।
तेलुगु देसम पार्टी के दो नेता ऐसे थे, जिनके ख़िलाफ़ सीबीआई, आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की जांचें चल रही थी। तेलुगु देसम के 4 सांसद भाजपा में शरीक हुए, तो ये दो सांसद भी साथ में आ गए। इनमें से एक सांसद वाय.एस. चौधरी की कंपनियों के खिलाफ ईडी ने छापेमारी करके 315 करोड़ रुपये की संपत्ति ज़ब्त की थी। चौधरी पर यह भी आरोप है कि उन्होंने बैंकों से धोखाधड़ी की। इस मामले में सीबीआई उनसे पूछताछ कर चुकी है। एक और सांसद सीएम रमेश, जो तेलुगु देसम पार्टी से भाजपा में आए हैं , हमेशा विवादों में रहे हैं । उनके यहां भी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की छापामारी हो चुकी है। अब यह दोनों भाजपा के सम्मानित सदस्य हैं। हिन्दुओं की पार्टी मानी जाने वाले भाजपा में समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद नरेश अग्रवाल को भी शामिल कर लिया गया है, जो कहते थे -व्हिस्की में विष्णु बसे...
पार्टी विद द डिफरेंस का नारा देने वाली भाजपा आयाराम गयाराम की संस्कृति का प्रतीक बन गई है। भाजपा के नेता कांग्रेस को जी भरकर कोसा करते थे कि कांग्रेस में दल-बदलुओं को स्थान मिल रहा है, लेकिन भाजपा खुद अब राज्यसभा, लोकसभा और विधानसभा के सदस्यों की खरीद फ़रोख़्त कर रही है। दल-बदल कानून बनने के पहले 1967 में हरियाणा के एक निर्दलीय विधायक हुए थे - गया लाल। चुनाव जीतने के बाद पहले तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए , लेकिन उसके बाद एक पखवाड़े के भीतर ही उन्होंने तीन बार दल-बदल किया। कांग्रेस छोड़कर पहले वे ‘विशाल हरियाणा पार्टी’ (विहपा) में शामिल हुए। विशाल हरियाणा पार्टी के संस्थापक और अध्यक्ष राव बीरेन्द्र सिंह ने खुद ही कांग्रेस छोड़कर यह पार्टी बनाई थी, लेकिन गया लाल कुछ दिनों के भीतर ही वापस कांग्रेस में शामिल हो गए। फिर इसके नौ घंटे के भीतर ही फिर से दूसरी बार विहपा में शामिल हो गए। इसके बाद विहपा के नेता राव बीरेन्द्र सिंह उन्हें पकड़कर चंडीगढ़ में एक प्रेस-कॉन्फ्रेंस में लेकर आए और कहा - ‘गया राम’ अब ‘आया राम’ है’। तब से ही ‘आया राम गया राम’ वाला मुहावरा चल पड़ा। हालांकि इसके ठीक बाद इंदिरा गांधी के करीबी बंसीलाल ने विहपा विधायकों का दल-बदल करवाकर वहां कांग्रेस की सरकार बना ली ।
दल-बदलुओं की राजनीति का केन्द्र हरियाणा रहा है, जहां 1990, 1996, 2004 और 2009 में कई बात नेताओं ने दल-बदल किया है। 1980 में भजनलाल जनता पार्टी के साथ थे। वे 37 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए और फिर मुख्यमंत्री बने। 1990 में हरियाणा के मुख्यमंत्री भजनलाल थे। भजनलाल के रहते हरियाणा विकास पार्टी के विधायक कांग्रेस में चले गए और हरियाणा विकास पार्टी ने भाजपा से मिलकर सरकार बनाई। 1996 में दल-बदलुओं के कारण ही हरियाणा में बंशीलाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। भाजपा की मदद से हरियाणा विकास पार्टी के 22 विधायक अलग गुट में शामिल हुए और ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री बन गए। उसके बाद हरियाणा में कई ऐसे मौके आए, जब मुख्यमंत्री और सरकार सहित पूरी पार्टी ही दल बदलकर दूसरी पार्टी में चली गई। केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दोबारा आने के बाद दल-बदल एक आम राजनैतिक गतिविधि बन गई है।
विचित्र बात यह है कि मीडिया ऐसी दल-बदल की घटनाओं के बारे में कोई सैद्धांतिक आलोचना करने के बजाय इसे नेताओं का 'मास्टरस्ट्रोक' कहता है और पार्टी के नेताओं की तुलना चाणक्य से करने लगता है। कायदे से मीडिया को ऐसी अनैतिक गतिविधि के लिए प्रोत्साहित करने वाले नेताओं को हतोत्साहित करना चाहिए, लेकिन मीडिया दल-बदल की घटनाओं को मदारी का खेल समझता है। अफसोस की बात यह है कि मतदाता आमतौर पर ऐसे मामलों में चुप रहता है। उसकी प्रतिक्रिया चुनाव के वक़्त ही देखते में आती है। यह सही है कि कई दल-बदलू नेता चुनाव में हारे हैं , लेकिन उनकी यह हार उनके दल-बदल का नतीजा नहीं है। हाल ही में 'नेता ऐप' द्वारा 22 राज्यों में कराए गए सर्वेक्षण में करीब 2 करोड़ यूज़र्स ने राय दी है कि दल-बदलू नेताओं को अपनी सदस्यता से इस्तीफा देकर फिर से चुनाव लड़ना चाहिए। 80 प्रतिशत मतदाता इसी पक्ष में है। राजस्थान, ओडिशा और दिल्ली में तो 90 प्रतिशत मतदाता इस राय से सहमत है कि दल-बदलुओं को सीट पर रहने का अधिकार नहीं है।