शेयर बाज़ार धड़ाम, ऑटोमोबाइल सेक्टर में ऐतिहासिक मंदी, हाउसिंग में लाखों अनबिके मकान, विदेशी निवेशकों का पलायन, टैक्स की वसूली का पिछड़ता लक्ष्य, लाखों को रोज़गार खोने का डर... इस सबके बावजूद 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की बातें। उद्योग जगत को नरेन्द्र मोदी की सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन इस सरकार की आर्थिक नीतियों की दिशा और दशा पर कई लोगों को संदेह है। अनेक उद्योगपतियों का मानना है कि यह सरकार अस्थिर आर्थिक नीतियों वाली है। सरकार खुद जो नीतियां बनाती हैं, उन पर टिकी नहीं रहती।
रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया में बुधवार को प्रस्तुत मौद्रिक नीति में जीडीपी की विकास दर 7 प्रतिशत की जगह 6.9 प्रतिशत होने की संभावना बताई है। यह कैसे होगा कहा नहीं जा सकता। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व में पांचवें स्थान से फिसलकर सातवें स्थान पर पहुंच गई है। दावा था कि 2025 तक भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा, लेकिन फिलहाल उसकी कोई संभावना नजर नहीं आती। प्रधानमंत्री मोदी का दावा था कि आगामी लोकसभा चुनाव तक भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर यानी 5 हजार अरब डॉलर (यानी करीब तीन लाख 50 हज़ार अरब रुपये) के बराबर करने का लक्ष्य हम पूरा करेंगे। यह सब वर्तमान हालात को देखते हुए संभव नहीं लग रहा। अभी हमारी अर्थ व्यवस्था इससे लगभग आधी है। अमेरिका की हमसे लगभग 9 गुना, चीन की करीब पांच गुना, जापान की करीब दो गुना, जर्मनी की लगभग डेढ़ गुना और ब्रिटेन और फ़्रांस की हमसे मामूली ज़्यादा बड़ी अर्थ व्यवस्था है।
विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि 2018 में भारत की जीडीपी 2726 अरब डॉलर की रही। इसी से मिलती-जुलती स्थिति फ्रांस और ब्रिटेन की थी और वे क्रमश: छठीं और सातवीं बड़ी अर्थव्यवस्था थे, लेकिन हाल ही में ये दोनों भारत से ऊपर आ गए हैं और भारत सातवें क्रम पर पहुंच गया है। भारत की जीडीपी वित्तीय वर्ष 2018-19 की अंतिम तिमाही में 5 साल के सबसे निचले स्तर पर आ गई थी।
इन दिनों पूरी दुनिया के प्रमुख देशों की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है। भारत भी इनमें से एक है। वर्तमान में भारत के तमाम औद्योगिक क्षेत्रों में मंदी का आलम है। ऑटोमोबाइल सेक्टर में भारी मंदी है। जुलाई में मारुति की कारों की बिक्री 36 प्रतिशत गिरी। महिंद्रा के ट्रैक्टर 12 प्रतिशत और अशोक लेलैंड के ट्रकों की बिक्री 14 प्रतिशत गिरी। कारों की बिक्री कम होने से 280 से अधिक शोरूम बंद हो गए है। जिसमें काम करनेवाले करीब 30 हज़ार लोग बेरोज़गार हो गए। कई प्रमुख कंपनियों ने, जिनमें मारुति उद्योग लिमिटेड और टाटा मोटर्स लिमिटेड शामिल हैं कर्मचारियों को ले ऑफ दे रहे हैं। जिसके कारण करीब साढ़े तीन लाख कर्मचारी अस्थायी रूप से बेरोज़गार हो गए हैं। कई फैक्ट्रियों में अस्थायी रूप से ताले लग गए हैं। यही हाल हाउसिंग सेक्टर का है। 10 शहरों में करीब 13 लाख मकान तैयार हैं, लेकिन उन्हें कोई खरीददार नहीं मिल रहे हैं। टेली कम्युनिकेशन सेक्टर में भी कंपनियों की बुरी हालत है। भारती एयरटेल और आइडिया-वोडाफोन जैसी कंपनियां भारी घाटे में है। सार्वजनिक सेक्टर की कंपनियां बिकने को तैयार खड़ी हैं। सरकार विनिवेश से जितने धन की अपेक्षा कर रही है, वह मिलना मुश्किल दिख रहा है। शेयर बाज़ार में 2002 के बाद सबसे बड़ी गिरावट है। शेयर बाजार में निवेशकों को अपेक्षित रिटर्न नहीं मिल रहे है और बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार बजट आने के बाद से ही अब तक निवेशकों के 13 हजार अरब रुपये से अधिक डूब चुके है, जो एफपीआई (फॉरेन पोर्टफोलियो इन्वेस्टमेंट) भारत में आया थी, उनमें से करीब 15 हज़ार करोड़ रुपये निकालकर ले जा चुका है। बड़ी-बड़ी कंपनियों के शेयर 50 प्रतिशत तक गिर गए हैं और स्माल कैप और मिड कैप कंपनियां बर्बादी के कगार पर पहुँच चुकी हैं।
कुल मिलाकर हर सेक्टर में त्राहिमाम की स्थिति है। सरकार जिस मात्रा में करों की वसूली की अपेक्षा करती थी, वह भी पूरी होती नजर नहीं आती। इस वित्तीय वर्ष के प्रारंभिक तीन महीनों में गत वर्ष की तुलना में केवल 6 प्रतिशत ही अधिक कर वसूली हो पाई है। इस कारण आयकर और केन्द्रीय उत्पाद कर विभागों के सामने बड़ी चुनौती खड़ी है, क्योंकि उन्हें आगामी 9 महीनों में 30 प्रतिशत अधिक वसूली करनी है। कई बड़े उद्योगपति बैंकों से कर्ज लेकर भाग चुके हैं। सीसीडी के मालिक वीजी सिद्धार्थ आत्महत्या कर चुके हैं। भारत की आयकॉनिक बिजनेस वूमन किरण मजूमदार शॉ आयकर विभाग के जाल में हैं। आईसीआईसीआई की पूर्व प्रमुख चंदा कोचर और उनके पति आर्थिक घोटालों में फंसे है। जो भारत के शीर्ष उद्योगपति माने जाते थे, उनकी बोलती बंद है। बजाज उद्योग के राजीव बजाज जैसे उद्यमियों के सामने बाजार में टिके रहना का संकट है।
उद्योग जगत को नरेन्द्र मोदी की सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन इस सरकार की आर्थिक नीतियों की दिशा और दशा पर कई लोगों को संदेह है। अनेक उद्योगपतियों का मानना है कि यह सरकार अस्थिर आर्थिक नीतियों वाली है। सरकार खुद जो नीतियां बनाती हैं, उन पर टिकी नहीं रहती और बार-बार उनसे फिसल जाती है। दूसरी बात यह कि सरकार निजी क्षेत्र से अपेक्षाएं तो बहुत करती है, लेकिन उनकी भावनाओं को समझने में विफल रही। सीएजी के अनुसार सरकार जितने फिस्कल डेफिसिट रही है वह उससे कहीं अधिक होने जा रहा है। सरकार कहती है फिस्कल डेफिसिट 3. 4 प्रतिशत होगा, सीएजी का कहना है कि वह कहीं बहुत अधिक 5.9 फ़ीसदी हो सकता है।
पूरे देश की अर्थव्यवस्था पिछले पांच सालों में जिन दो कारणों से सर्वाधिक प्रभावित हुई है, उनमें नोटबंदी और जीएसटी प्रमुख है। नोटबंदी के फायदे तो अभी तक कोई नहीं गिना पाया। जीएसटी में बार-बार बदलाव से कारोबारी क्षेत्र की इच्छाशक्ति मर गई है। एक ही कानून में दो साल के भीतर 300 से अधिक संशोधन आने से कारोबारी वर्ग परेशान हैं। अब हाल यह है कि वे कारोबार का विस्तार तो दूर कारोबार को सीमित करने और कारोबार बंद करने के बारे में सोचने लगे हैं। सरकार ने बड़ी कंपनियों पर सीएसआर (कारपोरेट सोशल रेस्पांस्बिलिटी) की मद में मुनाफे दो प्रतिशत खर्च करने की बात कही थी, अब कह रही है कि अगर इस मद में खर्च नहीं किया तो तीन साल तक की जेल हो सकती है। यानी सरकार का काम कंपनियां करें।
बजट में सरकार ने सुपर रिच लोगों पर सरचार्ज के रूप में और टैक्स बढ़ा दिया। इस तरह सुपर रिच लोगों को अपने कमाए हर रुपये पर 42 पैसे आयकर के रूप में देने का प्रावधान किया गया। इस सरचार्ज से सरकार को होने वाली आयकर की आय में 1 प्रतिशत भी वृद्धि नहीं होने वाली है, लेकिन इससे उद्योग जगत की भावनाएं प्रभावित हुई है और उन्हें लगने लगा कि यह सरकार तो 3-4 दशक पुरानी सरकारों की तरह करारोपण कर रही है, जब सुपर रिच लोगों को प्रत्येक रुपये की कमाई पर 55 पैसे तक सरकार को देने होते थे। उससे भी सरकार को कोई फ़ायदा नहीं होता था।
भारत की अर्थव्यवस्था का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा ऑटोमोबाइल सेक्टर का है, जो संगठित क्षेत्र के अंतर्गत आता है। सरकार अपनी ऑटोमोबाइल पॉलिसी में बार-बार बदलाव कर रही है। ऑटोमोबाइल सेक्टर पहले ही मंदी की मार से जूझ रहा है और ऊपर से सरकार ने पेट्रोल और डीजल तो महंगा किया ही, साथ ही बीमा की दरें और रजिस्ट्रेशन शुल्क भी बढ़ा दिया है। इसके बाद अब सरकार तय नहीं कर पा रही है कि इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या किस तरह बढ़ाई जाए। सभी ऑटोमाेबाइल कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ जाने लगी, तो सरकार ने इलेक्ट्रिक वाहनों की अनिवार्यता की डेडलाइन आगे बढ़ाने की संभावना जता दी। इसी के साथ चीन की कारों का भारत में आगमन भी हो रहा है। इलेक्ट्रिक वाहनों के क्षेत्र में चीन काफी समय से कार्य करता आ रहा है और उसकी स्थिति मजबूत जान पड़ती है। जिस तरह चीन के दूसरे उद्योग भारतीय बाजारों में प्रवेश कर रहे है, उसी तरह अगर चीन की सस्ती इलेक्ट्रिक कारें भारतीय बाजारों में आई, तो भारतीय ऑटोमोबाइल सेक्टर का हाल क्या होगा, इसकी कल्पना मुश्किल है। इस बजट में ऑटोमोबाइल सेक्टर को राहत की आशा थी, लेकिन राहत की जगह करों का बोझ बढ़ा दिया गया, जो लोग कार लेने की सोच रहे थे, वे पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने पर और हतोत्साहित हो गए।
सरकार बार-बार इस तरफ इशारा कर चुकी है कि विकास के पहियों को गति देने वाला निजी क्षेत्र ही है। सरकार का काम नीति नियोजन तक ही सीमित है। ऐसे में सरकार को चाहिए था कि वह ऐसी योजनाएं लाते, जिससे रोजगार बढ़ते। अब हाल यह है कि नौकरियां तो बढ़ नहीं रही हैं, उद्योग धंधे भी ठप हो रहे है और आय दिन छोटे-मोटे कारोबार भी बंद हो रहेहैं। जो लोग छोटे-मोटे कारोबार करके अपना परिवार चलाते थे उनके सामने जीवन-मरण का सवाल पैदा हो गया है। सरकारी योजनाएं उनकी मामूली मदद करती हैं, लेकिन उनके भरोसे नहीं रहा जा सकता। पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह का कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर ज़रूरत से ज्यादा नियम थोप दिए गए हैं और अपने हस्तक्षेप और नियंत्रणों के माध्यम से सरकार अर्थव्यवस्था की ‘नियंत्रक' बन गई है। आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों को देखें तो लगता है कि निश्चित तौर पर देश में आर्थिक नरमी का दौर आने वाला है। आर्थिक नीतियों में अदालत का दखल भी लगातार बढ़ रहा है।
ऐसे में 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनामी दूर के ढोल ही नज़र आती है। जिस तरह अर्थव्यवस्था फिसलती जा रही है, उससे लगता है कि भारत आर्थिक क्षेत्र में नीचे की ओर जा रहा है। सरकार का ध्यान भी आर्थिक क्षेत्र छोड़कर अन्य सामाजिक क्षेत्रों की ओर ज्यादा है। ऐसा लगता है कि 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनामी भी एक जुमला ही साबित होगी।