संजीव परसाई का व्यंग्य संग्रह बेहद अजीब नाम वाला है - हम बड़ी ‘ई’ वाले। एक बार तो समझ में नहीं आता, लेकिन संग्रह का 20वां व्यंग्य पढ़ो, तब समझ में आता है कि संजीव परसाई जी बड़ी ई वाले हैं (जैसे प्रकाश हिन्दुस्तानी बड़ी ई वाले हैं)। इस संग्रह के सभी व्यंग्य इतने हल्के-फुल्के है कि आप उन्हें किसी भी मूड में पढ़ सकते है। कुछ व्यंग्य आपको तिलमिलाते हैं, कुछ चिढ़ाते हैं और कुछ मुस्कुराने पर मजबूर कर देते हैं। व्यंग्य के शीर्षक ही अपने आप में बहुत कुछ कह देते हैं। हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य है - ‘प्रेम चंद के फटे जूते’। परसाई जी के भतीजे संजीव परसाई के एक व्यंग्य का शीर्षक है - ‘फटे जूते और बीड़ी’, एक और व्यंग्य का शीर्षक है - ‘लेखक बनना, होना व कहलाना’। इसी तरह मैं और फंटूश का प्यार, मैं कवि और तुम खामखां, कमोड पर बैठा लोकतंत्र, क्योंकि अब सबको बेस पसंद है, करीना ने कहा था, दास्ताने अफेयर जैसे दिलचस्प व्यंग्य इस संग्रह में है।
युवा लेखक पत्रकार संजीव परसाई की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक हम बड़ी ‘ई’ वाले कई मामलों में विशिष्ट है। 44 व्यंग्य वाली इस किताब में अधिकांश व्यंग्य राजनीति को लेकर है या फिर व्यवस्था संबंधी व्यंग्य हैं। संजीव परसाई ने सरकारी अधिकारियों और सोशल मीडिया पर भी तीखे व्यंग्य किए हैं। पुस्तक का शीर्षक पुस्तक के एक व्यंग्य पर आधारित हैं। बुद्धिजवियों और नेताओं के आधुनिक पुरोधाओं पर तंज कसते हुए संजीव परसाई ने लिखा है कि आजकल राजनीति से ग्रस्त बुद्धिजीवी अपने को हैसियतदार दिखाने का मौका नहीं छोड़ते। ये लोग 6 हजार का कुर्ता पहनते हैं, पर उस पर प्रेस नहीं करवाते। जोड़-तोड़ करके लाल बत्ती ले लेते हैं, लेकिन गाड़ी पर लालबत्ती नहीं लगाते। व्यंग्य लेखन के शिकार लोग भी चाहते तो हैं कि दुनिया उन्हें बुद्धिजीवी माने, इसीलिए वे बुद्धिजीवी की तरह मुंह बनाए घूमते हैं, कम बोलते हैं और हुंकारें ज्यादा भरते हैं। ये लोग अपनी शक्ल बुद्धिजीवी की तरह अर्ध सेल्फी मुख मुद्रा बनाए रहते हैं। संजीव परसाई लिखते हैं कि मोदी जी भी बड़ी ‘ई’ की वजह से ही प्रधानमंत्री बने हैं। श्रीमती गांधी, शास्त्री जी, चौधरी जी, वाजपेई जी आदि 10 प्रधानमंत्री बड़ी ई वाले हैं। व्यंग्य की दुनिया में जोशी और परसाई के पास भी बड़ी ई की मात्रा है।
फेसबुक सेलेब्रिटी के बारे में संजीव परसाई ने लिखा है कि एक जमाना था, जब सेलेब्रिटी का कद हुआ करता था और वह हर कहीं नहीं पाया जाता था। उसके लिए कई तरह के प्रोटोकॉल थे, लेकिन गली, चौराहे और नुक्कड़ों पर सेलेब्रिटी कान में बीड़ी फंसाए घूम रहे हैं। सेलेब्रिटी शब्द की जितनी भद अभी पीट रही है, उतनी पहले कभी नहीं पीटी होगी। फेसबुक सेलेब्रिटी को तीन तरह से परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा कि कुछ आदतन फेसबुकियां होते हैं, ये लोग 5000 मित्रों का टारगेट पूरा होने पर लड्डू बांटते हैं और फिर अपना एक और ‘पेज चम्पकलाल-2’ बनाकर, उन्हीं लोगों को न्यौता देते हैं। दूसरे नंबर के फेसबुकिए वे हैं, जो इसका उपयोग समय-समय पर करते हैं। टैगिंग नहीं करते, लेकिन टैगिंग करने वालों को भला-बुरा कहने में सबसे आगे रहते हैं। अगर कोई इन्हें टैग कर दें, तो इन्हें लगता है कि वे अपनी भीड़ के साथ उनके घर में ही घुस गया है। ये लोग केवल राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे ही फेसबुक पर उठाते हैं। छोटे-मोटे उठाना ये सोशल मीडिया का अपमान समझते हैं। ये प्रधानमंत्री को सीधे सलाह देते हैं। तीसरे वे फेसबुकिए हैं, जो अपना अकाउंट बनाकर भूल जाते हैं और साल-छह महीने में एक-आद बार आते हैं। ये लोग यू-ट्यूब से एक गाना शेयर करके अपने फ्रेंडलिस्ट में सड़ रहे लोगों पर उपकार करते हैं।
रामचरित मानस के रीमिक्स और गोस्वामी की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। यह एक प्रकाशक के पास पहुंचने वाले गोस्वामी तुलसीदास की कहानी है। प्रकाशक के पास जाकर तुलसीदास जी को समझ में आता है कि पुस्तक लिखना एक बात है, उसका प्रकाशन दूसरी बात, मार्केटिंग तीसरी बात, बिकना चौथी बात, लोगों तक पहुंचना पांचवीं बात। प्रकाशक के सामने किस तरह तुलसीदास जलील होते हैं, यह दिलचस्प तरीके से उन्होंने लिखा है।
इस व्यंग्य संग्रह में कई नए जुमले भी पढ़ने को मिले, जैसे चायनीज टूथ ब्रश पर पतंजलि का पेस्ट, वाट्सएप ग्रुप का लोटा ज्ञान, किसी का बाबूजी हो जाना, गालियां लिखने के टिप्स, प्रेम पत्र की प्रूफ रीडिंग, खुले में वैचारिक शौच, जर्जर कमोड पर लोकतंत्र, गड्ढेदार सड़कों के संरक्षण का आयोग, आत्ममुग्ध हलकट सेल्फी मास्टर आदि।
पल-पल इंडिया द्वारा प्रकाशित 44 व्यंग्य की 178 पेज की यह पुस्तक बेहद साफ-सुथरी है। स्वच्छता अभियान में धुली हुई। कीमत भी 100 रुपये ही रखी गई है, ताकि दरिद्र हिन्दी पाठकों की जेब पर ज्यादा बोझ न पड़े। संजीव परसाई की यह पहली किताब है। मजेदार पठनीय।