Bookmark and Share

PR1009

झूठ तीन तरह के होते है। सामान्य झूठ तो हर कोई पकड़ सकता है, लेकिन सफेद झूठ उससे बड़ा होता है, जो घुमा फिराकर बताया जाता है, लेकिन सबसे बड़ा झूठ होता है आंकड़ा। आंकड़ों के द्वारा सरकार और अर्थशास्त्री कोई भी बात साबित कर सकते हैैं। अर्थव्यवस्था में मंदी नहीं है, यह बात सीधा-सीधा झूठ है, लेकिन अगर कोई कहे कि यह मंदी नहीं स्लोडाउन है, तो यह सफेद झूठ हुआ, लेकिन कोई यह दावा करे कि आंकड़े बताते है कि भारत की जीडीपी बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है और वह दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, तब उसे समझने में थोड़ा वक़्त लगता है। जो व्यक्ति बेरोज़गार हो चुका है, जिसकी दुकान मंदी चल रही है और बंद होने की कगार पर है, जिन बेरोज़गारों को रोज़गार की आशा थी, लेकिन रोज़गार नहीं मिल रहा है, उनके लिए आंकड़े कोई मायने नहीं रखते।

आंकड़े बता-बताकर आप कोई भी बात सिद्ध कर सकते है। आप यह बात सिद्ध कर सकते है कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। आप यह कह सकते है कि पांच साल में हमारी अर्थव्यवस्था दो गुनी से भी अधिक बड़ी हो जाएगी या यह भी कह सकते है कि पांच साल में हम पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनामी हो जाएंगे। ये सब बातें सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं। वास्तविक बात वहीं है, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भूटान में कही थी। भूटान में प्रधानमंत्री ने कहा था कि किसी भी देश की प्रगति का पैमाना वहां का हैप्पीनेस इंडेक्स होना चाहिए। भूटान की सरकार जीडीपी के आंकड़ों पर भरोसा नहीं करती, बल्कि ग्रॉस हैप्पीनेस इंडेक्स को महत्व देती है। उसके अनुसार लोगों की खुशी ही सबसे महत्वपूर्ण है। अगर लोगों के पास धन हो, लेकिन वे खुश न हो, तो उसके कोई मायने नहीं है।

अर्थशास्त्री कहते है कि अगर भारत की जीडीपी 5 प्रतिशत की दर से बढ़ी, तो प्रति व्यक्ति कुल आय 526 रुपये अधिक बढ़ेगी और यदि जीडीपी में 1 प्रतिशत की कमी रह जाए यानी जीडीपी 4 प्रतिशत ही बढ़े, तो व्यक्ति की मासिक आय 421 रुपये ही रहेगी। मतलब एक प्रतिशत जीडीपी कम होने से औसत रूप से प्रत्येक व्यक्ति को 1260 रुपये की आमदनी कम होगी। 2018-19 में प्रतिव्यक्ति मासिक आय 10534 रुपये है। अगर 5 प्रतिशत की दर से यह आय बढ़ती रही, तो भारत की जीडीपी 2024 में 5 ट्रिलियन डॉलर हो सकती है। अर्थशास्त्री दावा करते हैं कि अभी भारत दुनिया की 7वीं सबसे बड़ी इकॉनामी है। इसमें गर्व करने जैसी कोई बात नहीं है, क्योंकि कुछ साल पहले भारत दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी इकॉनामी था। अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन और फ्रांस की इकॉनामी भारत की तुलना में बड़ी है। ऑस्ट्रेलिया, स्विटज़रलैंड, स्वीडन आदि देशों की इकॉनामी भारत की तुलना में आधी भी नहीं है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि भारत के लोग स्विटज़रलैंड, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन आदि देशों से ज्यादा खुश है। जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े तो यह बताते है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान की जीडीपी की ग्रोथ भारत की तुलना में अधिक है, तो क्या पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोग हमारी तुलना में ज्यादा प्रगति कर चुके है और ज्यादा खुश है?

तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के शब्द जाल को पकड़िये। तेजी से बढ़ती के मायने क्या? हमारे अर्थशास्त्री कह रहे है कि हमारी विकास दर अमेरिका और चीन जैसे विकसित देशों की तुलना में ज्यादा है। विकास दर ज्यादा होने का मतलब यह नहीं कि हम उनसे ज्यादा विकसित हो चुके है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। राम और श्याम पांचवीं कक्षा में पढ़ते हैं। राम को 70 प्रतिशत नंबर मिले, जबकि श्याम को परीक्षा में 40 प्रतिशत नंबर मिले। छठीं कक्षा में राम का प्रतिशत बढ़कर 74 हो जाता है, जबकि श्याम 45 प्रतिशत नंबर पाता है। सातवीं कक्षा में राम को 80 प्रतिशत नंबर मिलते हैं और श्याम को 56 प्रतिशत। आठवीं कक्षा में राम 90 प्रतिशत नंबर लाता है और श्याम 67 प्रतिशत। नौवीं कक्षा में राम 95 प्रतिशत नंबर लाता है और श्याम 73 प्रतिशत नंबर लाता है, उसके बाद दसवीं कक्षा में राम 93 प्रतिशत नंबर लाता है और श्याम 75 प्रतिशत नंबर लाता है। अब इस पूरे संदर्भ में आप देखिए कि पांचवीं कक्षा से लेकर दसवीं कक्षा तक श्याम को मिले नंबरों की बढ़त का प्रतिशत हर साल राम को मिले नंबरों के प्रतिशत से ज्यादा है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि श्याम पढ़ाई में राम से आगे निकल गया। इसलिए जब हम आज यह कहते है कि हमारी जीडीपी की वृद्धि दर कई विकसित देशों से भी अधिक है, तो यह इतराने वाली कोई बात नहीं है। हमारी स्थिति श्याम की तरह है। एक स्थिति यह भी आएगी, जब राम 100 में से 100 प्रतिशत नंबर ले आएगा और श्याम 80 प्रतिशत नंबर प्राप्त करेगा। इसके बाद राम 100 प्रतिशत से अधिक नंबर तो ला नहीं सकता, जाहिर है, उसके नंबर घटेंगे, लेकिन श्याम के लिए भी संभावना है। इसलिए हमारे अर्थशास्त्री, आरबीआई, नीति आयोग आदि जो भी दावे करें, वह बाज़ीगरी से अधिक कुछ नहीं है।

भारत में आम लोग यही नहीं जानते कि जीडीपी होता क्या है? जीडीपी को किसी भी देश की आय का बुनियादी पैमाना माना जाता है। जीडीपी वह होती है, जो एक साल के भीतर किसी देश की सभी सेवाओं और उत्पादन का बाज़ार मूल्य होता है। यानी एक साल के भीतर पूरे देश में सभी उद्योगों ने जितना माल उत्पादित किया, जितनी खेती हुई, सेवा उद्योग में जितना कारोबार हुआ, वह सब जीडीपी में शामिल है। इसे आंकने के अलग-अलग पैमाने है। एक पैमाना यह भी है कि पूरे वर्ष में देशभर में कितने सामान की बिक्री हुई, कितना निवेश हुआ, कितना सरकारी खर्च हुआ, कितना आयात-निर्यात हुआ आदि। अर्थशास्त्री इसे अलग-अलग तरीके से मापते है। मान लीजिए एक वर्ष में 100 यूनिट सीमेंट का उत्पादन हुआ। लोगों ने 100 यूनिट में से 30 यूनिट अपने निजी उपयोग के लिए खरीदा, जबकि 70 यूनिट सरकार ने अपनी परियोजनाओं के लिए क्रय किया और उस सीमेंट की मदद से सड़कें, बंदरगाह, पुल आदि का निर्माण कराया। कुछ अर्थशास्त्री इसे अलग-अलग बांटकर देखते है। उनके अनुसार जो निजी उपयोग के लिए सीमेंट खरीदा गया, वही जीडीपी में शामिल होना चाहिए। दूसरों का तर्क है कि जो भी सीमेंट उपयोग में लाया जाएगा, उसका उपयोग देश के लोग भी करेंगे, इसलिए उपभोक्ता के रूप में सरकारी खरीद को भी शामिल किया जाए। जीडीपी आंकने के ही दुनियाभर में इतने पैमाने है कि उनका अनुसरण करना कठिन है। सर्वमान्य नियम के अनुसार हम अपनी जीडीपी की गणना करते है। एक साल में अनेक चीजें महंगी हो जाती है। उस बारे में भी गणना के अलग-अलग नियम है। महंगी वस्तुओं और सेवाओं के दाम बढ़ने पर ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ता है, लेकिन उन्हें सुविधा में कोई वृद्धि नहीं मिलती, लेकिन उससे जीडीपी बढ़ जाता है।

जीडीपी बढ़ाने के लिए आर्थिक लेन-देन ज़रूरी है। भारत जैसे देश में हमारे पारिवारिक मूल्य बहुत मायने रखते है। भारत की लगभग आधी आबादी महिलाओं की है। इन महिलाओं में से अधिकांश महिलाएं पूरे दिन अपने परिवार के लिए कार्य करती है। इसके लिए उन्हें कोई भुगतान नहीं किया जाता। जब लेन-देन ही नहीं हुआ, तो उसका हिसाब कैसे किया जाए? मान लीजिए 20 प्रतिशत मांएं अपने बच्चों को घर में पढ़ाती हैं। अगर यही काम वे दूसरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए करें, तो उन्हें इसकी फीस मिल सकती है। उदाहरण के लिए सीता अपने बच्चों को पढ़ाती है और गीता भी। दोनों के पढ़ाने से जीडीपी में कोई वृद्धि नहीं होगी, लेकिन अगर सीता, गीता के बच्चों को पढ़ाए और गीता, सीता के बच्चों को और फिर दोनों बच्चों को पढ़ाने की फीस के रूप में 10-10 हजार रुपये एक-दूसरे को भुगतान करें, तो इससे जीडीपी बढ़ जाएगी। है ना अजीबो-गरीब बात। केवल रुपये के लेन-देन को ही हम उत्पाद या सेवा के मूल्य से आंकते है। दुनिया के कई देशों में महिलाएं न तो घर का काम करती है और न ही अपने बच्चों को पढ़ाती है। वहां वे बाहर जाकर जो नौकरी करती है, उसकी आय जीडीपी में शामिल है।

जीडीपी का आकलन अपने आप में उलझन भरा है। अगर किसी देश के लोग बेहद स्वस्थ है और उन्हें अस्पताल जाने की जरुरत नहीं पड़ती। अस्पतालों में न्यूनतम मरीज भर्ती होते है। उनकी कमाई भी ज्यादा नहीं होती, तो वहां की जीडीपी कम होगी। जिस देश के लोग ज्यादा बीमार पड़ते है और बीमारी पर लाखों रुपये खर्च करते है, इलाज का वह सारा खर्च जीडीपी में इजाफा करता है। इसका अर्थ यह है कि जीडीपी को हमारी सेहत से कोई लेना-देना नहीं। हम स्वस्थ रहेंगे, तो जीडीपी नहीं बढ़ेगा, तो क्या जीडीपी बढ़ाने के लिए प्राइवेट अस्पताल में जाकर भर्ती हो जाएँ ?

एक और उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। महेश्वर के पास से नर्मदा बहती है। नर्मदा का पानी इतना शुद्ध है कि लोग उसका उपयोग पीने के काम में भी लेते है। अब कल को अगर नर्मदा इतनी प्रदूषित हो जाए कि लोग बगैर उस पानी का उपचार किए पी सकें यानी हर घर में वाटर प्यूरीफायर लग जाए और वाटर प्यूरीफायर की बिक्री बेतहाशा बढ़ जाए, तो इसका फर्क महेश्वर की जीडीपी में नजर आने लगेगा या ऐसा हो कि मंडला शहर के आसपास भरपूर वन होने से वहां का तापमान इतना अच्छा हो कि लोगों को ए सी या कूलर खरीदने की ज़रूरत ही न पड़े और अचानक वहां के जंगल कटने लगे और गर्मी चरम पर पहुंच जाए। बिना ए सी के घर या दफ्तर में रहना मुश्किल हो जाए, तो ऐसे में मंडला का जीडीपी एकदम बढ़ जाएगा, क्योंकि ए सी और कूलर का खर्च वहां के जीडीपी में शामिल होगा। इसके साथ ही पेड़ कटेंगे, तो लकड़ी का उपयोग भी होगा, उससे भी आर्थिक लेन-देन होगा। कुल मिलाकर पूरा मामला यह है कि रुपये का लेन-देन बढ़े, तो जीडीपी अच्छी रहे। आप स्वस्थ रहे, खुश रहे, इसका जीडीपी से कोई ताल्लुक नहीं है। पेड़ के बस रहने से जीडीपी नहीं बढ़ता, पेड़ के कटने और नए पेड़ लगाने पर बढ़ता है।

अभी देश पर कई तरह के खतरे मंडरा रहे है। उसमें से एक खतरा सीमाओं की सुरक्षा का भी है। सीमाओं की सुरक्षा के लिए हम बड़े पैमाने पर दुनिया के कई देशों से उन्नत किस्म के हथियार खरीद रहे है। ये हथियार खरीदना हमारी सुरक्षा के लिए बेहद ज़रूरी है। क्या कभी आपने सोचा कि अरबों रुपये के जो विध्वंसक हथियार हम खरीद रहे है, उससे हमारी जीडीपी और इकॉनामी बहुत प्रभावित होती है, लेकिन व्यक्तिगत रूप से देश के नागरिकों का जीवन स्तर उससे ऊंचा नहीं उठता। तर्क दिया जा सकता है कि सीमाएं सुरक्षित रहेगी, तभी देश में शांति रहेगी और शांति के माहौल में ही देश विकसित हो सकता है। ऐसे में क्या कभी यह कल्पना की जा सकती है कि पूरी दुनिया निरस्त्रीकरण की तरफ बढ़े और लोग अपने सभी संसाधनों का उपयोग विकास और आनंद के लिए खर्च करें। जब-जब युद्ध के खतरे मंडराते है, तब-तब अर्थव्यवस्था में भी तेज़ी आती है। युद्ध का अर्थ ही है विनाश, जिसके बाद उत्पादन बढ़ाना मज़बूरी होता है, लेकिन अगर यह मज़बूरी कभी किसी के पास आए ही न, तो कितना बेहतर होगा। इसलिए आंकड़ों पर भरोसा मत कीजिए। कभी भी आंकड़ों से प्रभावित मत होइए, क्योंकि आंकड़े जितने आकर्षक लगते हैं, वास्तव में होते नहीं हैं। हर बार उनका अर्थ ग़लत नहीं होता, लेकिन उन्हें इस तरह पेश किया जाता है कि हम उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। यहाँ दिए गए उदाहरण केवल सरलीकरण है, इसके तकनीकी पक्ष में जाएंगे तो नए-नए पहलू सामने आएंगे। आंकड़ों का मायाजाल है ही कुछ ऐसा !

Search

मेरा ब्लॉग

blogerright

मेरी किताबें

  Cover

 buy-now-button-2

buy-now-button-1

 

मेरी पुरानी वेबसाईट

मेरा पता

Prakash Hindustani

FH-159, Scheme No. 54

Vijay Nagar, Indore 452 010 (M.P.) India

Mobile : + 91 9893051400

E:mail : prakashhindustani@gmail.com