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एक दौर था जब देश धर्म के आधार पर चला करते थे। फिर राजतंत्र आया। उसके बाद साम्यवाद, पूंजीवाद आदि की अवधारणाएं आई। यह माना जाने लगा कि सरकारें देश चलाती हैं। भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में यह धारणा है कि सरकारें देश चलाती हैं, लेकिन वास्तव में बाज़ार की शक्तियां ही सरकार को संचालित करती हैं। वे ही देश की दिशा तय करती है और सरकारों को बाज़ार के हिसाब से चलना होता है। यूरोप के कई देशों में हम इसे देख चुके हैं और भारत तथा चीन जैसे देशों में भी इसका एहसास होता है। बात चाहे मीडिया की हो, शिक्षा व्यवस्था की, चिकित्सा व्यवस्था की या और किसी भी व्यवस्था की। बाज़ार के सामने सभी हाशिये पर हैं, जो लोग बाज़ार को गाली देते हैं, वे भी बाज़ार के इशारे पर ही चलते नज़र आते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। पूर्ववर्ती सरकारों में भी यही होता था। अब बाज़ार का प्रभाव पहले की अपेक्षा कही ज्यादा है।

जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत आई, तब उसका लक्ष्य कारोबार करना ही था। उसने बाज़ार पर कब्ज़ा किया और सरकार पर भी। इससे उसे भारत को लूटने में मदद मिली। विश्व कारोबार का लगभग एक चौथाई जीडीपी वाला भारत अंग्रेजों के जाते-जाते दो प्रतिशत का रह गया। अंग्रेजी हुकूमत को भारत से बाहर करने के लिए भी कुछ औद्योगिक घरानों ने भरपूर सहयोग दिया। इनमें बिड़ला समूह प्रमुख था। घनश्यामदास बिड़ला महात्मा गांधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल के करीबी थे। 1915 से ही वे गांधी जी से जुड़ गए। 1917 में उन्होंने कोलकाता में बिड़ला ब्रदर्स नाम से पटसन की पहली मिल स्थापित की थी। उन्हीं दिनों जेआरडी टाटा भी हिन्दुस्तान के नक्शे पर प्रमुख कारोबारी के रूप में उभर रहे थे। धीरे-धीरे घनश्यामदास बिड़ला, मदनमोहन मालवीय और लाला लाजपतराय के भी करीब आए और 1926 में वे गौरखपुर से सेंट्रल लेजिस्टेटिव असेंबली के लिए चुने गए। घनश्यामदास बिड़ला कांग्रेस के सभी नेताओं के करीब थे, लेकिन सविनय अवज्ञ आंदोलन में वे कभी भी सक्रिय नहीं रहे। 1940 में जब ब्रिटेन की महारानी भारत आई थी, तब लार्ड वाॅवेल चाहते थे कि महारानी घनश्यामदास बिड़ला से मिले। मेधा कुदसिया ने घनश्यामदास बिड़ला की जीवनी में लिखा है कि देश में औद्योगिक क्रांति बिड़ला ही लेकर आए थे। लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने, तब वे चाहते थे कि देश तेजी से औद्योगिकीकरण की तरफ जाएं। अगर शास्त्रीजी की चलती, तो 1991 में लाए गए आर्थिक सुधार 1965 में ही लागू हो जाते। गुरचरण दास ने लिखा है कि बिड़ला आज़ाद के बाद दुर्गापुर में स्टील प्लांट लगाना चाहते थे, उन्होंने वहां काफी निवेश भी कर दिया था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने उनसे वह प्रोजेक्ट छीन लिया।

आज़ादी के बाद बिड़ला घराने की संपत्ति ही सबसे तेजी से बढ़ी थी। तब खुलेपन की दौर नहीं था और न ही विदेश निवेश इस तरह आ रहा था। उद्योगपतियों में थोड़ा बहुत देशप्रेम जीवित था और शोषण रोकने के लिए मज़दूरों के पक्ष में बहुतेरे कानून थे, लेकिन फिर भी बिड़ला घराने की संपत्ति तेजी से बढ़ रही थी। 1939 से 1969 के बीच टाटा समूह की कुल संपत्ति केवल 800 प्रतिशत बढ़ी थी, जबकि घनश्यामदास बिड़ला की संपत्ति 9 हजार 400 प्रतिशत बढ़ी। गुरचरण दास ने उनमुक्त भारत किताब में लिखा है कि टाटा की संपत्ति 62 करोड़ 42 लाख से बढ़कर 505 करोड़ 56 लाख हो गई थी और घनश्यामदास बिड़ला की संपत्ति 4 करोड़ 85 लाख से बढ़कर 456 करोड़ 40 लाख पहुंच चुकी थी, जो बिड़ला टाटा के 10वें भाग के बराबर थे, उनका साम्राज्य बढ़कर टाटा को टक्कर देने की स्थिति में पहुंच चुका था। 1957 से 1962 तक बिड़ला समूह ने सरकार द्वारा दिए गए कुल लाइसेंसों का करीब 20 प्रतिशत अपने कब्जे में कर रखा था। यह वह दौर था जब कोटा और परमिट का राज था। बिड़ला समूह सरकार की बाहें मरोड़कर काम करवा रहा था। 1945 में बिड़ला समूह के पास 20 कारोबारी कंपनियां थी। 1962 तक उनकी संख्या बढ़कर 150 हो गई थी और ये सभी कंपनियां अपना वर्चस्व कायम किए हुए थी। लाइसेंस राज और एमआरटीपी जैसे कानूनों के बावजूद बिड़ला के साम्राज्य को बढ़ने से कोई नहीं रोक पाया, जबकि ये कानून दूसरे उद्योगपतियों पर सख्ती से लागू होते थे। बिड़ला ने ही अपने मीडिया संस्थान खोले थे और फिक्की जैसे संगठन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

आज़ादी के बाद काफी वर्षों तक टाटा और बिड़ला घराने किसी किंवदंती की तरह कारोबार करते रहे। किसी धनवान का जिक्र करना हो तो कहा जाता था कि क्या टाटा-बिड़ला समझते हो। आज़ादी के बाद जो औद्योगिक घराना सबसे तेजी से आगे आया और आज देश में पहले नंबर पर हैं, उसके संस्थापक धीरजलाल हीरालाल अंबानी (धीरूभाई अंबानी) ने अपने कारोबार की शुरुआत वीकेंड में गिरनार की पहाड़ियों पर तीर्थ यात्रियों को पकौड़े बेचने से शुरू किया था। 16 साल की उम्र में धीरूभाई यमन चले गए। वहां उन्होंने पेट्रोल पंप पर काम किया और बाद में एक फिलिंग स्टेशन के मैनेजर बन गए। 1958 में वे भारत आए और उन्होंने अपने चचेरे भाई चम्पकलाल दीमानी के साथ 15 हजार रुपये की पूंजी से रिलायंस कमर्शियल कार्पोरेशन शुरू किया था। तब उनका कारोबार था पोलियेस्टर के धागे इम्पोर्ट करना और मसाले का एक्सपोर्ट करना। 1965 में यह भागीदारी खत्म हो गई। धीरूभाई रिस्क लेने वाले आदमी थे। उनके पास 10 लाख रुपये की धनराशि हो गई। उन्होंने अपने पैसे को बढ़ाया और 1966 में नरोडा में कपड़ा मिल की शुरुआत की और अपने बड़े भाई रमणिक लाल अम्बानी के बेटे विमल के नाम पर विमल शूटिंग शर्टिंग कारोबार शुरू किया।

भारत में इक्विटी कल्ट लाने वाले धीरूभाई ने 1977 में आईपीओ के ज़रिये पैसा इकट्ठा करना शुरू किया। धीरूभाई ने अपने कारोबार में खुलेपन को बढ़ावा दिया। शेयर होल्डर्स को काफी मुनाफा देते रहे और कंपनी की एजीएम कभी बंद कमरे में नहीं की, बल्कि स्टेडियम या खुले मैदानों में करते रहे। मीडिया को मैनेज़ करना उन्होंने सीख लिया था। जब अरूण शौरी इंडियन एक्सप्रेस के ग्रुप एडिटर थे, तब वे लगातार धीरूभाई अम्बानी और उनकी कंपनियों के खिलाफ खोज परख खबरें छापते रहते थे। फिर एक ऐसा दौर आया, जब अरूण शौरी को राजनीति में आने का मौका मिला और वे मंत्री बने। एक मंत्री के रूप में अरूण शौरी ने एक दम उसके विपरीत काम किया, जो वे एक संपादक के रूप में करते आए थे। जब प्रमोद महाजन मंत्री बने और वे अटल बिहारी वाजपेई के खासमखास थे, तब उन्होंने खुलकर धीरूभाई अम्बानी को भारत रत्न देने की मांग की थी और यहां तक कहा था कि भारत रत्न नाचने वाले को मिल जाता है, गाने को मिल जाता है, बजाने वाले को मिल जाता है, लेकिन महान उद्योगपति को नहीं मिलता। एक दौर में यह माना जाता था कि रिलायंस ही शेयर बाज़ार है। रिलायंस ऐसी कंपनी है, जिसका शेयर बाज़ार में 1 सेंटीमीटर भी नीचे नहीं गिर सकता। फिर जब नरसिंहाराव के ज़माने में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और निजीकरण का दौर शुरू हुआ, तब से ही रिलायंस का साम्राज्य लगातार बढ़ता रहा। इंडियन एक्सप्रेस में अरूण शौरी के ज़माने में एक कवर स्टोरी छपी थी, जिसमें आरोप था कि रिलायंस ने पातालगंगा वाली पूरी परियोजना ही तस्करी के ज़रिये मंगाए सामान से स्थापित कर ली। जांच हुई, लेकिन कुछ भी साबित नहीं हो पाया। जब प्रणव मुखर्जी वित्तमंत्री थे, तब रिलायंस में 22 करोड़ रुपये का निवेश ऐसी कंपनियों के माध्यम से आया था, जिनके मालिकों का पता ही नहीं था। क्रोकाडाइड, लोटा, फियास्को आदि इन तमाम कंपनियों के मालिक के सरनेम शाह थे। आरबीआई ने जांच की, लेकिन कुछ भी गैरकानूनी नहीं पाया गया।

अडानी समूह के चेयरमैन और फाउंडर गौतम अडानी अभी 51 साल के हैं। अम्बानी समूह के बाद वे देश के सबसे धनी व्यक्ति हैं। उनकी संपत्ति 95 हजार करोड़ के आसपास बताई जाती है। हो सकता है कि इससे भी कहीं अधिक हो। अडानी का कारोबार 2017-18 में 77 हजार करोड़ का था, इसमें से ऑपरेटिंग प्रॉफिट ही 20 हजार 141 करोड़ का रहा। यानी कुल कारोबार का एक चौथाई से अधिक उनका शुद्ध मुनाफा था। देश की सबसे बड़ी खाद्य तेल की रिफाइनरी अडानी की ही है। उनका खाद्य तेल का प्रतिदिन का उत्पादन 10 हजार 105 टन प्रतिदिन है। इसके अलावा नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने गुजरात में अपना कारोबार काफी बढ़ाया था। एक बंदरगाह के लिए तो उन्हें मात्र 5 रुपये वर्गमीटर के हिसाब से लीज़ पर ज़मीन मिल गई थी। पिछले पांच साल में अडानी के पास बंदरगाह हैं, कोयले की खदानें हैं, कोयले को इम्पोर्ट करने के लाइसेंस हैं, बिजली घर हैं, हवाई अड्डे हैं, छोटे-छोटे शहरों के जलप्रदाय व्यवस्था, डेटा सेंटर और रक्षा आदि के उपकरण बनाने वाली कंपनियां हैं। देशभर में पेट्रोल पम्प और नेचुरल गैस के स्टेशन बनाने के 126 कांट्रेक्ट निकाले गए थे, जिसमें से 25 अडानी की कंपनियों को मिले हैं। 2013 में अडानी समूह के पास गुजरात में 44 प्रोजेक्ट थे, जो आज बढ़कर 92 हो गए हैं। अडानी समूह को कई हवाई अड्डों काे संचालन का ठेका मिला हुआ है और यह ठेका 50 साल के लिए है। 50 साल में विमान यात्रियों की संख्या में कई गुना वृद्धि हो जाएगी और अडानी की संपत्ति उससे भी तेजी से बढ़ेगी, क्योंकि यात्रियों की वृद्धि तो होगी है, हवाई अड्डे पर वसूला जाने वाला शुल्क भी बढ़ेगा। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी चुनाव प्रचार के लिए हवाई यात्राएं करते थे, तब उन्हें हवाई जहाज मुहैया कराने का काम अडानी ही करते थे। एक साथ तीन-तीन जेट विमान नरेन्द्र मोदी के लिए खड़े होते थे। आज अडानी देश के दूसरे सबसे धनी व्यक्ति माने जाते हैं।

सरकारें बनती तो जनता के वोटों से हैं, लेकिन वे काम करती हैं बाज़ार के प्रमुख खिलाड़ियों के लिए। किसी भी पार्टी की सरकार रहे, किसी भी देश की सरकार हो उसका लक्ष्य होता है मार्केट के कुछ खास लोगों के लिए कार्य करना। साम्यवादी चीन भी आज पूंजीवाद की राह पर हैं। पूंजीवादी देश बाज़ार के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। सरकारों का काम प्रमुख उद्योगपतियों के लिए वातावरण तैयार करना और मूल मुद्दों से भटकाना भर रह गया है। तमाम शिक्षा संस्थान, चिकित्सा संस्थान, खेल संगठन और यहां तक कि काफी हद तक धार्मिक संगठन और संस्थान भी बाज़ार के गिने-चुने लोगों के इशारे पर कार्य कर रहे हैं। हाल यह है कि की क्रिकेट अब खेल नहीं, कारोबार है। कैंसर जैसी बीमारी को भी धंधा बना लिया गया है, क्योंकि किसी भी देश की सरकार ने सिगरेट और तम्बाकू पर पूरी तरह से बंदिश नहीं लगाई है। हां, कैंसर की चिकित्सा की खोज में अरबों रुपये अवश्य खर्च हो रहे हैं। एक वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार हालात ऐसा है कि अगर कोई वैज्ञानिक कैंसर से इलाज का कोई इंजेक्शन खोज लें, तो उस वैज्ञानिक की हत्या हो सकती है, क्योंकि ऐसा इंजेक्शन कैंसर का समूह नाश कर सकता है, जिससे कैंसर के इलाज में किया जाने वाला अरबों डॉलर का कारोबार ठप्प हो सकता है।

17 Octomber 19

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