दूसरे नरेन्द्र मोदी!
वास्तव में दो नरेन्द्र मोदी हैं। एक भाजपा के नेता हैं और दूसरे भारत के प्रधानमंत्री! आप भाजपा नेता से घोर असहमत हो सकते हैं। लेकिन शायद प्रधानमंत्री मोदी से नहीं। बैंकाक में आरसीईपी कई बैठक में प्रधानमंत्री मोदी गए थे, वहां उन्होंने जो कहा भारत ने कहा, भारत की ओर से कहा और बेशक़ भारत के लिए कहा।
2012 से चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, न्यू जीलैंड, सिंगापुर और आसियान के दस देशों सहित कुल 16 देश मुक्त कारोबार करनेवाले देशों का संगठन बनाना चाहते थे। मुक्त व्यापार यानी बेरोकटोक आयात और निर्यात! भारत भी उस चर्चा में शामिल होता था।
भारतीय व्यापार महासंघ यानी सीआईआई, अम्बानी, अडानी, बिड़ला और चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि चाहते थे कि भारत भी उसमें शामिल हो जाये। प्रधानमंत्री मोदी ने सब की बातें सुनी और भारत की शर्तें रखी और कहा कि मेरा ज़मीर और गांधीजी की तालीम मुझे इसमें शामिल होने की इजाज़त नहीं देती। हमें नहीं आना इसमें!
2012 से चीन कोशिश कर रहा था, लेकिन भारत ने 'ना' कह दिया। चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, सिंगापुर, थाईलैंड आदि भारत की 'हाँ' के इंतज़ार में थे। भारत में ही सीआईआई ज़ोर लगा रही थी, कांग्रेस पार्टी और स्वदेशी विचार मंच विरोध में थी, और कांग्रेस मान रही थी कि भारत की तरफ से प्रधानमंत्री मोदी दस्तख़त कर देंगे। यहाँ तक कि कांग्रेस ने आंदोलन की रूपरेखा भी बना ली थी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने जिस अंदाज़ और दृढ़ता से 'ना' कहा वह अपने आप में दुनियाभर के लिए महत्वपूर्ण है। निर्गुट देशों का संगठन बनाने में अहम भूमिका निभाने वाला भारत रिज़नल कम्प्रेहेन्सिव इकॉनामिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) यानी क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी से बाहर है।
बैंकॉक में हुए इस संगठन के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साफ कह दिया कि भारत की समस्याओं का संतोषजनक हल इस संगठन से नहीं होगा। इसलिए भारत फिलहाल इस संगठन में शामिल नहीं हो रहा है और न ही समझौते पर दस्तखत कर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी का यह फैसला एशिया महाद्वीप के सभी देशों के लिए बहुत बड़ी घटना है। अगर भारत इस समझौते पर हस्ताक्षर कर देता, तो संगठन के सभी देशों के साथ भारत को मुक्त रूप से व्यापार करना पड़ता। चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों के होते हुए उनसे मुक्त व्यापार करना वर्तमान में भारत के हितों के अनुरूप नहीं है। मोदी के इस फैसले से चीन को निश्चित ही बड़ा झटका लगा है।
बैंकॉक में आरसीईपी को अंतिम रूप देने के लिए आसियान के 10 देशों और चीन सहित 5 अन्य देशों के साथ बातचीत का अंतिम दौर खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने एक इंटरव्यू में साफ-साफ कहा था कि भारत की ओर से आरसीईपी के लिए एक उचित प्रस्ताव सामने रखा गया है, जिसमें सभी देशों के हितों का ध्यान रखने की बात प्रमुखता से थी। भारत इस संगठन के लिए अपनी तरफ से आखिरी मौके पर कोई मांग नहीं रख रहा है, लेकिन भारत अपने रुख पर शुरू से ही स्पष्ट था। भारत की चिंता यह है कि अगर वह इस समझौते पर दस्तखेत कर देता, तो चीन से आने वाले सस्ते माल की भारत में बाढ़ आ जाएगी और भारत चीन के सस्ते माल का डम्पिंग ग्राउंड बन जाता। इससे भारत के छोटे कारोबारियों के हितों को ठेस पहुंचती।
बैंकॉक पोस्ट को दिए इस इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट कहा कि हम सेवाओं के स्तर पर अपने कई सहयोगी देशों की महत्वाकांक्षाओं को देख रहे हैं। हम उनकी संवेदनशीलता का सम्मान करते हैं। हम स्पष्ट हैं कि समझौते में सभी के हितों की रक्षा होनी चाहिए और सभी पक्षों को उचित फायदा मिलना चाहिए। इस समझौते में आयात वृद्धि के खिलाफ सुरक्षा की व्यवस्था पर्याप्त नहीं थी। इस समझौते में आधार वर्ष 2014 को माना गया है। स्पष्ट है कि पिछले पांच साल में भारत में चीन से होने वाले माल का आयात दो गुना हो चुका है। ऐसे में 2014 को आधार वर्ष नहीं मानना भारत के लिए बिल्कुल सही कदम है। इस संगठन का आधार है कि बड़े क्षेत्रीय एकीकरण के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नियम आसान हो और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सुगमता से संभव हो। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हम इस तरह की बातचीत पिछले 7 वर्षों से देख रहे हैं। इन सात साल में वैश्विक अर्थव्यवस्था और व्यापार की परिस्थितियां बदल चुकी हैं। ऐसे में आरसीईपी समझौते के मार्गदर्शक सिद्धांत पूरी तरह खरे नहीं उतरते। भारत से जुड़े कई मुद्दों और चिंताओं को भी यह संगठन संतोषजनक तरीके से नहीं समझ पा रहा है। ऐसे में भारत संगठन में शामिल नहीं हो सकता। संगठन के फैसलों पर भारत के लाखों किसानों, व्यापारियों, पेशेवर लोगों और उद्योगों का कामकाज दांव पर लगा हुआ है। हमारे लिए भारत के मज़दूर और उपभोक्ता बहुत महत्वपूर्ण हैं। क्रयशक्ति के हिसाब से भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी बात बड़ी साफगोई से रखी और कहा कि इस समझौते को सभी भारतीयों के हितों को ध्यान में रखते हुए मैंने समझने की कोशिश की, लेकिन मुझे उसका कोई भी सकारात्मक जवाब नहीं मिला। इसीलिए मैंने यहां गांधीजी के उस सिद्धांत पर विचार किया, जो कहते थे कि मैं जो भी कदम उठाने जा रहा हूं, वह क्या देश के सबसे गरीब आदमी के भी हित में है? क्या इस कदम से उसे कोई लाभ होगा? मेरी अंर्तआत्मा ने मुझसे कहा कि यह सही कदम नहीं होगा। मेरा ज़मीर मुझे यह करने की इजाज़त नहीं देता।
भारतीय प्रधानमंत्री के इस फैसले पर उनका स्वागत करने वालों में अब तक भाजपा के नेता ही खुलकर सामने आए हैं। कांग्रेस ने इस पर खुलकर तो नहीं कहा, लेकिन राहुल गांधी ने एक ट्वीट के जरिये चीन से बढ़ते कारोबार के 5 साल में दोगुना होने पर चिंता जताई थी। इस फैसले से जाहिर है कि भारत में अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के सामने घुटने टेकने से साफ-साफ मना कर दिया है और पहली बार फ्रंटफुट पर आकर व्यापार घाटे के संबंध में भारत की चिंता दुनिया के सामने प्रकट कर दी है। वर्तमान में भारत का चीन से व्यापार घाटा 5 गुना तक पहुंच गया है। इसका आशय यह कि भारत जितना माल चीन को निर्यात करता है, उससे पांच गुना आयात कर रहा है। यह भारत के आर्थिक हितों के लिए ठीक नहीं है।
प्रधानमंत्री मोदी ने मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) के दायित्वों की उपयोगिता पर भी सवाल किए। उन्होंने साफ-साफ कहा कि भारत किसी भी तरह की वैश्विक व्यापार प्रतिस्पर्धा से घबराता नहीं है। भारत के हितों का ध्यान रखना हमारी पहली प्राथमिकता है। जब भारत दूसरे देशों के निवेश को स्वीकार करता है और वहां की सेवाओं को लेने के द्वार खोलता है, तब भारत चाहता है कि दुनिया के दूसरे देश भी भारत के लिए उसी तरह बरताव करें।
आरसीईपी में पूरी दुनिया के 16 देश शामिल हैं, जिनकी आबादी 360 करोड़ होती है। भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देश भी इसमें शामिल हैं। भारत के ना कहने से अब भारत इस संगठन का हिस्सा नहीं रहेगा। संगठन के देश आपस में एक-दूसरे के साथ मुक्त व्यापार कर सकेंगे, लेकिन भारत अपने दीर्घकालिक हितों के हिसाब से ही कार्य करेगा। वास्तव में आरसीईपी के इस अभियान के पीछे चीन की ही मुख्य भूमिका थी और उसने चीन के बजाय थाईलैंड में इस सम्मेलन का आयोजन करवाया था। भारत नहीं चाहता कि वह आयात के बैरियर को खत्म करे। अब तक चीन अपना तैयार माल तो भारत में भेजता ही है। समझौते के बाद वह कच्चा माल भी भारत भेजने लगता। समझौते के बाद चीनी सूत, लोह अयस्क, कागज़ आदि भारतीय बाजारों में घुसपैठ बना सकते थे। भारत के अनेक संगठन और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ आरसीईपी के विरोध में तैयार खड़े थे। चीन की योजना तो इस समझौते के माध्यम से भारत में दूध और दूध से बने उत्पाद भेजने की भी थी, जबकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया भी इसी फिराक में लगे थे कि उन्हें भारत का विशाल मार्केट हाथ में मिल जाए। भारत चाहता था कि आरसीईपी के माध्यम से भारत चीन से होने वाले आयात पर बंधन लगाने की दिशा में कदम उठाए, लेकिन यहां भारत को उचित कामयाबी नहीं मिली। भारत यह भी चाहता था कि भारत के आईटी और मेडिकल प्रोफेशनल्स को संगठन के दूसरे देश अपने यहां सेवा करने का मौका दें और भारतीय सामान को चीन की तुलना में ज्यादा प्राथमिकता मिले। भारत प्रतिबद्ध था कि समझौते के लिए बेस ईयर 2014 के बजाय 2019 रखा जाए। इसके साथ ही भारत मोस्ट फेवर्ड नेशन के नाम पर किसी भी देश को अतिरिक्त प्राथमिकता देने के पक्ष में नहीं था। पाकिस्तान कभी भारत का मोस्ट फेवर्ड नेशन रहा है, लेकिन अब पाकिस्तान से वह दर्जा हटा लिया गया है।
आरसीईपी के समझौते पर दस्तखत करने से इनकार करके प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट कर दिया कि भारत किसी के भी दबाव में आकर कोई फैसला करने वाला नहीं है। भारत को अपने देशी बाजार की भी चिंता है। समझौते से यह इनकार सरकार का राष्ट्रवादी निर्णय भी कहा जा सकता है। आर्थिक मंदी की चिंता सरकार को पहले से ही है और भारत सरकार ऐसे में कोई और जोखिम लेना नहीं चाहती। भारत में सेवा क्षेत्र जीडीपी का आधे से भी ज्यादा योगदान देता है। इस बड़े वर्ग के लिए रोज़गार की ग्यारंटी देना एक तरह से गंभीर चुनौती है। ऐसे में भारत दूसरे 15 देशों को खुला न्यौता नहीं दे सकता।
कांग्रेस के कई नेता मान रहे थे कि मोदी आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर करने ही वाले हैं। कांग्रेस ने इसके खिलाफ व्यापक प्रदर्शन करने की योजना भी बना ली थी। भारत के कई बड़े औद्योगिक घराने आरसीईपी को लेकर अपनी चिंता सरकार के सामने पहले ही रख चुके थे। अर्थशास्त्री कह चुके थे कि बिना वैकल्पिक उपाय किए इस समझौते पर हस्ताक्षर करना भारत के आर्थिक हितों के विरूद्ध हो सकता है। स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठन भी आरसीईपी के पक्ष में नहीं थे। आरसीईपी में शामिल कई छोटे देश कम्बोडिया, लाओस, मलयेशिया, म्यांमार, फिलिपिंस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम और ब्रुनेई आदि भले ही चीन के प्रभाव में आ गए हो। भारत ने यह साबित कर दिया है कि वह चीन के प्रभाव में और आने वाला नहीं है।
आरसीईपी में शामिल देश 2012 से इसके बारे में चर्चा कर रहे हैं। सात साल में 16 में से 15 देश इस समझौते पर राजी हुए हैं। 2016 में इस मामले में तेजी आई थी। अगर भारत इस समझौते पर दस्तखत करता, तो यह डील दुनिया में सबसे बड़ा फ्री ट्रेड एग्रीमेंट होता, जिसमें दुनिया की करीब आधी आबादी और 30 प्रतिशत जीडीपी शामिल थी। इस डील में उत्पाद, सर्विस, इन्वेस्टमेंट, तकनीकी हिस्सेदारी, बौद्धिक सम्पदा अधिकार, प्रतिस्पर्धा और विवादों का निपटारा करने जैसे मामले परस्पर चर्चा से हल करने की बात कही गई थी। ऐसा नहीं है कि भारत के सभी लोग इसके विरोध में थे। भारतीय उद्योगों का संगठन सीआईआई यानी कांफिडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री इस समझौते के पक्ष में था। भारत के एक प्रमुख उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला भी प्रधानमंत्री के साथ बैंकॉक गए थे। डील का स्वागत करने वाले चाहते थे कि उन्हें और बड़ा बाजार मिले। जिन भारतीय उद्योगों की क्षमता एक्सपोर्ट करने की है, वे तो चाहते थे कि अगर यह समझौता हो जाए, तो वह उनका बाजार 15 देशों तक फैल जाएगा। इन देशों में चीन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी शामिल हैं। वर्तमान में भारत आसियान के 10 देशों के साथ किसी तरह के मुक्त व्यापार समझौते से जुड़ा हुआ है। केन्द्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर पहले ही स्पष्ट कर चुके थे कि देश के किसानों का हित सर्वोपरि है। अगर यह समझौता होता, तो ऑस्ट्रेलिया से दूध पावडर का आयात काफी सस्ते दरों पर होने लगता। इससे डेरी उत्पादकों और किसानों को नुकसान होता। कृषि मंत्रालय अपनी चिंता से प्रधानमंत्री को अवगत करा चुका था। श्रमिक संगठनों को इस बात पर नाराजी थी कि इस समझौते में श्रमिकों के हितों की बातें हीं थी।
अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर में जुटे चीन के लिए भारत का यह एक और बड़ा झटका है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने अपनी एक रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया था कि अगर भारत आरसीईपी समझौते में जाता, तो घरेलू व्यापार सेक्टर इससे बुरी तरह प्रभावित होते। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को भी नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता। संगठन के 16 में से 11 देशों से भारत का द्विपक्षीय व्यापार घाटे का चल रहा है। आसियान देशों से फ्री ट्रेड का अनुभव भी अच्छा नहीं रहा। संगठन के देशों की आमदनी भी एक जैसी नहीं है। जैसे ऑस्ट्रेलिया में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 55 हजार डॉलर है, तो कम्बोडिया में यह 1300 डॉलर ही है। यह आर्थिक विषमता गरीब देशों को नुकसान पहुंचा सकती है।
15 देशों के बीच हुआ यह समझौता दुनिया में कोई पहली बार नहीं हुआ है। अगर भारत इसमें शामिल होता तो ये देश 16 हो जाते। 3 साल पहले अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 12 देशों के साथ ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) नामक समझौता किया था। 2016 के अंत में अमेरिका में सत्ता बदली और डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति बने। एक साल के भीतर ही उन्होंने इस समझौते से बाहर निकलने का ऐलान कर दिया था। बाकी 11 देश टीपीपी में अब भी हैं, लेकिन अमेरिका उससे बाहर है।
कांग्रेस के नेता दावा कर रहे हैं कि कांग्रेस और राहुल गांधी के दबाव में प्रधानमंत्री मोदी को यह कदम उठाना पड़ा। स्थिति जो भी हो, इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि समझौते को लेकर भारत की शर्ते महत्वपूर्ण थी और भारत ने अपने हितों से समझौता नहीं किया। श्रेय किसी को भी मिले, यह एक सही निर्णय है, जिसका लाभ देश को आगे जाकर मिलना चाहिए।