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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन और जापान को सबक सिखा सकते हैं, लेकिन लश्कर-ए-नोएडा को नहीं। भारत में आरसीईपी यानी रीजनल कम्प्रेहेन्सिव इकॉनामिक पार्टनरशिप में शामिल होने से इनकार किया, वह तो देशहित में ही है, लेकिन फिर भी मीडिया का एक प्रमुख वर्ग जिसे लश्कर-ए-नोएडा कहा जाने लगा है, सरकार के फैसले के खिलाफ आग उगल रहा है। अब भी अगर यह स्थिति है, तो सोचिए कि समझौते में शामिल होने के बाद क्या स्थिति होती ? तब यही लश्कर-ए-नोएडा आरोप लगाता कि मोदी सरकार ने राष्ट्रीय हितों को बेच दिया है और उसे देश के किसानों, मजदूरों, छोटे व्यापारियों और उद्योगों की कोई चिंता नहीं है। अब यह वर्ग कहना लगा है कि समझौते से अलग हटने के कारण यह बात साफ हो गई है कि भारत की अर्थव्यवस्था कमज़ोर स्थिति में है। यह भी कहा जा रहा है कि अगर भारत इस समझौते में शामिल होता, तो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 5 ट्रिलियन डॉलर का लक्ष्य पाना आसान हो जाता है। इसका मतलब यह कि चित भी हमारी और पट भी हमारी।

देश के एक प्रमुख अर्थशास्त्री और आईएमएफ में कार्यकारी निदेशक रहे सुरजीत भल्ला को प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का प्रमुख नियुक्त किया गया था, उन्हें सरकार ने यह ज़िम्मेदारी दी थी कि वे आरसीईपी के बारे में अपनी स्वतंत्र राय सरकार को दें। गत 30 अक्टूबर को भल्ला ने अपनी रिपोर्ट सरकार को दी, उसमें बताया गया कि आरसीईपी में शामिल होना भारत के लिए एक अच्छा अवसर साबित हो सकता है। इससे भारत की अर्थव्यवस्था का विकास होगा, क्योंकि दुनिया की लगभग आधी आबादी और एक तिहाई अर्थव्यवस्था भारत के बाज़ार का हिस्सा बन सकेगी। कांग्रेस को लगता था कि नरेन्द्र मोदी सुरजीत भल्ला की सिफारिशों को मान लेंगे और 7 वर्षों से चले आ रहे आरसीईपी के अंतिम दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर देंगे। कांग्रेस ने इस फैसले के ख़िलाफ़ आंदोलन करने की तैयारी भी कर ली थी, जो किसी काम नहीं आ सकी।

पूरी दुनिया इस समझौते की तरफ जिज्ञासा से देख रही थी और सुरजीत भल्ला की रिपोर्ट आए एक सप्ताह भी नहीं हुआ था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस समझौते को ना कह दिया। इससे लश्कर-ए-नोएडा का आला कमान बहुत ही चिंतित है। उसे लगता है कि मुक्त व्यापार के तमाम फायदों से कुछ बड़े उद्योगपति वंचित रह गए। सबसे जबरदस्त बात यह रही कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि मेरा जमीर मुझे इसकी इजाज़त नहीं देता। हमें इस समझौते में कुछ परिवर्तन चाहिए। भारत के प्रस्ताव को समझौते में शामिल देशों ने नहीं माना। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हम समझौता करेंगे, तो अपनी शर्तों पर और भारत के हितों को ध्यान में रखते हुए।

अगर प्रधानमंत्री मोदी समझौते पर हस्ताक्षर कर देते, तो भारत में चीन से आने वाले उत्पादों पर 80 प्रतिशत तक ड्यूटी घटानी पड़ती। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के उत्पादों पर 86 प्रतिशत तक शुल्क घटाने पड़ते और आसियान, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों से होने वाले आयात पर भी 90 प्रतिशत तक ड्यूटी घटानी पड़ती। ड्यूटी घटाने से इन देशों का माल भारत में बड़े पैमाने पर आने लगता। विदेशी माल से भारतीय बाज़ार और ज्यादा पट जाते और भारत के स्थानीय उत्पादक और किसान रोजी-रोटी के लिए मोहताज़ हो जाते। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति से जुड़े और स्वराज पार्टी के नेता योगेन्द्र यादव ने इस फैसले को किसानों के हित में अहम बताया। उनका कहना है कि प्रधानमंत्री ने भारत के जनमत का सम्मान किया है। यह एक बहुत बड़ा और गंभीर फैसला है। इस समझौते में शामिल होने पर न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया से दूध का पावडर भारत में सस्ती दरों पर आने लगता और वही चलन में आ जाता। इससे भारत का पूरा डेयरी उद्योग खतरे में पड़ सकता था। दूध बेचने वाले छोटे व्यापारी भी इसकी चपेट में आते। यहां तक कि दक्षिण भारत के नारियल उगाने वाले किसान भी इससे बुरी तरह प्रभावित होते। क्योंकि विदेश से नारियल और नारियल का बुरादा सस्ती दरों पर भारत के बाजारों में आ जाता। काली मिर्च, रबड़, गेहूं और तिल्हनों का आयात भारी मात्रा में होने लगता, जिससे किसानों की आय प्रभावित होती, क्योंकि इनके दाम गिर जाते।

भारतीय औद्योगिक महासंघ सीआईआई की तरफ से भारत के फैसले के विरूद्ध बयान आया है। सीआईआई का कहना है कि भारत ने अर्थव्यवस्था में छलांग मारने का अवसर गंवा दिया है। अगर भारत समझौते में शामिल होता, तो चीन का सस्ता माल भारत के उपभोक्ताओं को मिलता। भारतीय अर्थव्यवस्था को अगर 10 प्रतिशत की गति से आगे बढ़ना है, तो उसके लिए यह समझौता मददगार होता।

सीआईआई की चिंताएं भारत के उद्योग जगत को लेकर है। उसे भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी की चिंता है, लेकिन भारतीय किसानों और मजदूरों के हितों में उतनी नहीं। आरसीईपी को लेकर चीन बहुत ज़्यादा उत्साहित था, क्योंकि चीन को ही इसका सबसे ज्यादा फायदा मिलना था। समझौते से भारत के बाहर होने के बाद चीन के लिए दुनिया के बाजार का पांचवां हिस्सा उतना आसान नहीं बचा है। समझौते में शामिल होने के बाद भारत को जितना फायदा होता, उससे ज़्यादा फायदा चीन उठा ले जाता और चीन के सामान का दबाव भारत पर और ज्यादा बढ़ता। अभी आसियान देशों (जिनमें ब्रुनेई, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलयेशिया, लाओस, म्यांमार, फिलिपिंस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं) से भारत का मुक्त व्यापार चलता है। चीन की कई कंपनियों ने आसियान देशों में अपने हब कायम कर लिए हैं और वे वहां से बेरोक-टोक भारत में माल भेजते हैं।

चीन का ट्रेड वॉर अमेरिका के साथ चल रहा है और वह लगभग खुले रूप में है। भारत के साथ भी चीन की स्थिति लगभग ऐसी ही है कि वह भारत में ज्यादा माल भेजता है और कम माल आयात करता है। भारत समय-समय पर चीन से व्यापार संतुलन बनाए रखने के लिए बातचीत करता रहता है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पिछली चीन यात्रा में इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था, इसके बाद चीनी राष्ट्रपति के भारत आने पर भी भारत ने अपनी चिंता व्यक्त की थी। भारत के प्रयासों से चीन ने मामूली कोशिश की, जिससे चीन को होने वाला निर्यात मामूली रूप में बढ़ा, लेकिन अभी भी उसमें संतुलन की स्थिति नहीं है। भारत का सबसे ज्यादा व्यापार घाटा चीन के साथ ही है और वह 6 हजार 300 करोड़ डॉलर का है। जबकि भारत के साथ उसका व्यापार सरप्लस में है यानी भारत अमेरिका से जितना माल मंगाता है, उससे कहीं ज्यादा निर्यात करता है। यह सरप्लस 2100 करोड़ डॉलर का है। सीधी सी बात है कि हम अमेरिका को ज्यादा माल निर्यात कर रहे हैं और कम मंगा रहे है, लेकिन चीन से आयात ज्यादा कर रहे हैं और निर्यात कम। मुक्त व्यापार की स्थिति में यह बात और गंभीर हो जाती।

समझौते के लिए भारत की साफ शर्त यह थी कि सारे हिसाब-किताब का आधार वर्ष 2019 माना जाए, क्योंकि समझौता 2019 में हो रहा है, जबकि यह समझौते 2014 के आधार पर कर दिया गया। यह भी चीन के हित में है। 2014 में भारत चीन से जितना सामान इम्पोर्ट करता था, वह वर्तमान से लगभग आधा ही है। 2014 को आधार वर्ष मानने के कारण कागजों पर भले ही भारत और चीन का व्यापार संतुलन ठीक दिखता, नुकसान भारत को ही होता। समझौता 2019 में हो रहा है, इसीलिए बेस वर्ष 2019 ही किया जाना चाहिए था। यहां भारत की बात पूरी तरह तर्कसंगत और न्याय के नियमों के अनुसार थी। यह बात सही है कि भारत के पास विदेशी मुद्रा का बड़ा भंडार तैयार है, लेकिन चीन के पास उससे कई गुना ज्यादा विदेशी मुद्रा भंडार है। आरसीईपी में शामिल 11 देशों के साथ भारत का व्यापार चल रहा है, जो घाटे में है। भारत इन देशों से ज्यादा माल आयात करता है और कम माल निर्यात करता है।

समझौते से साफ इनकार करके भारत ने दुनिया को यह संदेश दे दिया है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर लापरवाह नहीं है। आसियान देशों के साथ समझौता होने के वक्त शायद हमें इसका अनुभव नहीं था। यह संदेश भी दिया गया है कि औद्योगिक सेक्टर की फरमाइश पर सरकार किसानों की सब्सिडी खत्म नहीं कर सकती। सीआईआई हमेशा सब्सिडी के मुद्दे पर सरकार को घेरती रहती है और दावा करती है कि अर्थव्यवस्था की सुस्ती का कारण सरकार की सब्सिडी है। सरकार को रेलों का किराया बढ़ाना चाहिए, माल भाड़े की दर नहीं। वर्तमान में रेलवे अपनी आय का प्रमुख स्त्रोत माल भाड़े के माध्यम से ही प्राप्त करती है। सीआईआई का कहना है कि माल भाड़े में वृद्धि के कारण भारत में सामान का लाना-ले जाना महंगा हो जाता है। जब कच्चा माल ही महंगा मिलेगा, तब उत्पादित माल सस्ता कैसे हो सकता है?

यह बात सच है कि एक दौर में भारत आरसीईपी समझौते को लेकर इच्छुक था। खासकर तब जब 2014 में केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी थी। सरकार बनने के बाद गणतंत्र दिवस के मौके पर आसियान देशों के 10 राष्ट्राध्यक्षों को मेहमान के तौर पर बुलाया गया था। आसियान देश मानने लगे थे कि भारत तो इसमें शामिल हो ही जाएगा। आसियान में शामिल छोटे-छोटे देशों को भारत का विशाल बाजार नजर आता था। भारत सरकार ने पूरे मामले पर गंभीरता से विचार किया। दूसरी बार सरकार में आने पर नरेन्द्र मोदी ने एक मंत्री स्तरीय समिति भी बनाई, जिसमें पीयूष गोयल, निर्मला सीतारमण, हरदीप पुरी आदि शामिल थे। विचार किया गया कि आरसीईपी के तहत वस्तु, सेवा और निवेश सहित बौद्धिक संपदा अधिकार के क्षेत्र में सहयोग कैसे बढ़ाया जाए। लगभग 90 वस्तुओं पर आयात शुल्क हटाने का विचार था। यह कहा गया कि पूर्वोत्तर भारत के माध्यम से भारत इन देशों को आसानी से माल सप्लाय कर सकता है। नीति आयोग के सदस्य वी.के. सारस्वत ने इस मामले में गहन अध्ययन किया और नीति आयोग को एक शोध पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें बताया गया कि आरसीईपी में शामिल होने के हानिकारक पक्षों पर भी विचार कर लेना चाहिए। मुख्त आर्थिक सलाहकार और विदेश सचिव स्तर के अधिकारी भी आरसीईपी में शामिल होने को लेकर सावधानी बरतने की सलाह दे चुके थे। आरसीईपी लागू होने पर भारत का दवा उद्योग संकट में आ सकता था, क्योंकि इसमें जेनेरिक दवा निर्माताओं के लिए कड़े नियम बनाए गए है। इससे भारत में जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता प्रभावित होती और लोगों को महंगी दवाइयां ही खरीदनी पड़ती।

लंबे सोच-विचार के बाद आखिर भारत ने आरपार का फैसला कर लिया। यह सही है कि हमारी अर्थव्यवस्था की गति धीमी है, लेकिन अर्थव्यवस्था में उधार की तेजी के बजाय यह मंदी सहन की जा सकती है। पहले ही हमारे उद्योग धंधे कई चुनौतियों का सामना कर रहे है। किसान और छोटे व्यापारी भी परेशान है। उनकी समस्याएं हल किए बिना बड़े औद्योगिक घरानों की फरमाइश पूरी करना तर्कसंगत नहीं होता। बड़े औद्योगिक घरानों का प्रतिनिधित्व करने और पक्ष लेने वाले लश्कर-ए-नोएडा को इससे कष्ट होना स्वभाविक ही है।

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