लगता है कि राजनीति में खासकर चुनावी राजनीति में अब विचारधारा हाशिये पर चली गई है, जो लोग कभी सहयोगी होते थे, अब विरोधी हो जाते हैं, जो कभी विरोधी थे, सहयोगी होने लगे। महाराष्ट्र में जिस तरह कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की मदद से शिवसेना के उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने हैं, वहां शिवसेना कभी कांग्रेस की सबसे बड़ी विरोधी हुआ करती थी। शिवसेना करीब तीन दशकों से भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी पार्टी के रूप में चुनाव लड़ रही थी, लेकिन अब उसके नेता राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के सहयोग से सरकार चला रहे हैं। महाराष्ट्र की सियासत चल ही रही थी कि एक ऐसा ही अजूबा गोवा में देखने को मिला। गोवा के मारगो में महापौर के लिए तीन पार्टियां मैदान में थी। गोवा फॉर्वर्ड पार्टी, भाजपा और कांग्रेस। गोवा फॉर्वर्ड पार्टी एनडीए में है और भाजपा की सहयोगी पार्टी है, लेकिन मार्गो के महापौर चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने मिलकर अपने संयुक्त उम्मीदवार डोरिस टेक्सेरिया का समर्थन किया। गोवा फॉर्वर्ड पार्टी के उम्मीदवार पूना नायक थे। मारगो नगर निगम में भाजपा की 7 सीटें हैं और कांग्रेस की 6, जबकि गोवा फॉर्वर्ड पार्टी के 11 सदस्य जीते हैं। 25 सदस्यीय परिषद में गोवा फॉर्वर्ड पार्टी के उम्मीदवार की जीत हुई। गत 22 नवंबर को यह अजूबा हुआ, जब महाराष्ट्र में राजनीतिक उथल-पुथल अपने शीर्ष पर थी।
कभी नाव गाड़ी पर, कभी...
जानकार कहते हैं कि राजनीति तो है ही संभावनाओं का खेल। कभी नाव गाड़ी पर आती है, कभी गाड़ी नाव पर। आजादी के बाद करीब दो दशक तो सिद्धांतों की बात बहुत होती रही। विरोधी विचारधारा के कार्यकर्ताओं को दुश्मन की नजर से देखा जाता था, लेकिन धीरे-धीरे स्थितियां बदली। 1989 से 2009 के बीच कई पार्टियों के गठबंधनों ने सरकारें बनाई। राज्यों में छोटी-छोटी पार्टियां अस्तित्व में आईं और उन्होंने क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर विधानसभा चुनाव में करिश्मा कर दिखाया। 1989 से 1999 के बीच ही इन गठबंधनों ने 8 सरकारें बनाई, जो छोटी-छोटी पार्टियां थी, वे भी बहुत महत्वपूर्ण हो गईं, क्योंकि गठबंधन में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। आपातकाल के बाद 1977 में केन्द्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। राष्ट्रीय स्तर पर भी कई पार्टियां एक मंच पर थीं, लेकिन वह असली गठबंधन नहीं था। उसमें बार-बार टूट-फूट होती रही, जिसके बाद भारतीय जनसंघ ने भारतीय जनता पार्टी का रूप धारण किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठन पीछे से सहयोग करते रहे। एक अध्ययन के अनुसार 1977 के बाद गठित होने वाली 138 प्रादेशिक सरकारों में 40 सरकारें गठबंधन की थीं, लेकन ये गठबंधन टिकाऊ नहीं थे और उनकी औसत उम्र 26 महीने ही रही।
बाहर से समर्थन
गठबंधन के अलावा एक और बात सामने आई और वह थी कि सत्ता में शामिल हुए बिना बाहर से समर्थन देना। चुनाव के नतीजे आने के बाद चुनी हुई पार्टियां आपस में समझौता कर लेती। कुछ पार्टियां उनके साथ अपने सदस्यों को मंत्री भी बनवाती, लेकिन कुछ सत्ता में भागीदारी से बचती रही। सरकार को सहयोग देने के लिए वे बाहर से समर्थन करती रहीं और सत्ता की मलाई अप्रत्यक्ष रूप से खाती रहीं। 1999 से 2004 के बीच भाजपा के नेतृत्व वाली राजद में 24 पार्टियां थीं और उसे तेलुगु देसम पार्टी जैसी क्षेत्रिय पार्टी का बाहर से समर्थन था। जो कांग्रेस पार्टी कभी मुस्लिम लीग को सहयोगी दल के रूप में स्वीकार करती थी, वहीं कांग्रेस पार्टी अब हिन्दुत्ववादी शिवसेना का समर्थन कर रही है। इस समर्थन के पीछे न्यूनतम साझा कार्यक्रम की बातें कही जा रही हैं, लेकिन इस न्यूनतम साझा कार्यक्रम का मोटा अर्थ यही होता है कि सत्ता में भागीदारी।
देश में हैं 2293 पार्टियां
भारतीय चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनैतिक पार्टियों की संख्या 2293 है। इनमें 7 पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हैं और 59 पार्टियां प्रांतीय पार्टियों के रूप में मान्यता प्राप्त हैं। चुनाव आता है और पार्टियों का रजिस्ट्रेशन चालू हो जाता है। इस साल फरवरी और मार्च के दो महीनों में ही 149 राजनैतिक पार्टियों ने रजिस्ट्रेशन करवाया। मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, मिजोरम और छत्तीसगढ़ में एक साल पहले हुए चुनावों के ठीक पहले 58 पार्टियां रजिस्टर्ड हुईं। भारतीय जनता पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी कहा जाता है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि ‘सबसे बड़ी पार्टी’ नाम की भी एक पार्टी रजिस्टर्ड है। बहुजन समाज पार्टी की तर्ज पर ही बिहार में बहुजन आजाद पार्टी है। उत्तरप्रदेश में सामूहिक एकता पार्टी है। तमिलनाडू में न्यू जनरेशन पीपुल्स पार्टी ने भी अपना रजिस्ट्रेशन करा रखा है। ये छोटी-छोटी पार्टियां या समूह हैं, जो चुनाव आयोग में तो रजिस्टर्ड हैं, लेकिन इन्हें कोई मान्यता प्राप्त नहीं है। मान्यता नहीं होने का अर्थ यह है कि उनके लिए कोई चुनाव चिह्न तय नहीं है। चुनाव आयोग जो मुक्त चुनाव चिह्न रखता है, उन्हीं में से इन्हें चयन करना पड़ता है। चुनाव आयोग के पास ऐसे 84 चुनाव चिन्ह हैं, जिनमें ब्रेड, टेलीविजन, कुर्सी, चाकू, ड्रिल मशीन, रोड रोलर, बैट, कैरम बोर्ड, सीसीटीवी कैमरे, तरबूज, कप और तश्तरी, बैट और गैस सिलेंडर, बिस्किट, नारियल , हेलीकॉप्टर, जहाज, ऑटो रिक्शा , पानी की टंकी ,लूडो और न जाने क्या-क्या चुनाव चिन्ह उपलब्ध है। इन रजिस्टर्ड पार्टियों के उम्मीदवारों को उन्हीं में से कोई एक चिह्न दे दिया जाता है। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की तर्ज पर ही भरोसा पार्टी और राष्ट्रीय साफ नीति पार्टी भी रजिस्टर्ड है। भारत की विविधता को देखते हुए इन पार्टियों के अस्तित्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि दर्जनों पार्टियां उत्तरपूर्व के राज्यों में सक्रिय हैं। उनका महत्व स्थानीय स्तर पर है, लेकिन यहां शायद उनका इतना अस्तित्व नजर नहीं आता।
'सबसे बड़ी पार्टी' और भाजपा
लोकसभा में 'सबसे बड़ी पार्टी' के रूप में जो भाजपा आज हमें नजर आती है, 1980 में उसके केवल 2 सदस्य ही चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे थे। आपातकाल के बाद भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ था। फिर वहीं से भारतीय जनता पार्टी निकली। भाजपा के गठन के 16 साल बाद 1996 में भाजपा को गठबंधन के सहारे सरकार बनाने का मौका मिला था, वह सरकार 13 दिन ही चल पाई थी और बहुमत के बिना गिर गई। 1998 में भाजपा ने फिर अपने नए दोस्त खोजे और नया गठबंधन बनाया। उसे फिर सरकार बनाने का मौका मिला, लेकिन 13 महीने में ही वह सरकार भी ढेर हो गई। 1999 में भाजपा ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर ऐसी पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनाई, जिसने 5 साल तक राज किया। 5 साल तक चलने वाली यह पहली गैरकांग्रेसी सरकार थी, जिसका उत्तरभारत में काफी प्रभाव था। 20 से ज्यादा पार्टियां उसके साथ थी, जिनमें जदयू, तेलुगु देसम, शिवसेना, अकाली दल और एआईडीएमके भी शामिल है।
गठजोड़ और बाहर से समर्थन
भारत की क्षेत्रीय पार्टियों का अपना चेहरा और चाल-चलन है। उत्तर भारतीयों के इलाके में प्रमुखता से जगह बनाने वाली पार्टियों में जदयू और समता पार्टी प्रमुख है। उनके बनने टूटने का सिलसिला भी चल निकला। आंध्रप्रदेश में तेलुगु देसम पार्टी ने अपना छाप व्यापक जनाधार बना लिया था। 1985 में तेलुगु फिल्मों के अभिनेता एनटी रामाराव ने यह पार्टी बनाई थी। बाद में उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने उस पर कब्जा कर लिया। महाराष्ट्र में शिवसेना अतिराष्ट्रवादी हिन्दू पार्टी के रूप में पहचानी गई, जिसका आधार मुंबई, ठाणे और पुणे में ही मुख्यत: रहा है। शिवसेना की बुनियाद थी धरती पुत्र की भावना। उसकी मांग रहती थी कि दूसरे राज्यों के लोग महाराष्ट्र में आकर महत्वपूर्ण पदों पर बैठ जाते हैं और महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों को वो अवसर नहीं मिल पाते, जो मिलने चाहिए। भाजपा ने भी तब तक अपनी हिन्दुत्व वाली छवि बना ली थी। राम मंदिर आंदोलन को शिवसेना का समर्थन था और 1995 में दोनों ने मिलकर सरकार बनाने में कामयाबी पा ली थी। तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक पार्टी भाजपा की सहयोगी पार्टी के रूप में सामने आई थी, जो वहीं की द्रमुक पार्टी से टूटकर अलग हुई थी। तमिलनाडु में भाजपा ने अन्नाद्रमुक की सरकार को समर्थन दिया था और भाजपा के सहयोग से ही जयललिता मुख्यमंत्री बनी थी। बाद में भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया और जयललिता को इस्तीफा देना पड़ा। उत्तरप्रदेश में भाजपा और बसपा के गठजोड़ के बाद सत्ता में भागीदारी के फॉर्मूले पर मायावती मुख्यमंत्री बनी थी, लेकिन जब मुख्यमंत्री पद पर बैठने के लिए भाजपा की बारी आई, तब मायावती ने कुर्सी छोड़ने से मना कर दिया। भाजपा को समर्थन वापस लेना पड़ा और वह सरकार गिर गई। बिहार में भाजपा नीतीश कुमार की मदद से सरकार चला रही है।
समाजवादियों की कलह
समाजवादी विचारधारा के लिए पहचान रखने वाली पार्टी जनता दल का गठन 11 अक्टूबर, 1988 को हुआ था, जिसमें में जनता पार्टी, लोकदल (ब) और जनमोर्चा का विलय हुआ था। एक साल बाद में हुए नौवें लोकसभा चुनाव में जनता दल ने तेदेपा, द्रमुक और अगप दलों के समर्थन के साथ केन्द्र में सरकार भी बना ली थी। सरकार बनाने एक लिए भाजपा और माकपा ने बाहर से समर्थ दिया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे, लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार तब गिर गई जब राम रथ यात्रा पर निकले लालकृष्ण आडवाणी के रथ को बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार ने रोक लिया और भाजपा ने अपना बाहर से दिया जा रहा समर्थन वापस ले लिया। सरकार 11 माह में ही गिर गई। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पास 85 सीटें थीं, जबकि जनता दल और सहयोगी दल 143 पर ही टिके थे और कांग्रेस के पास 185 सीटें थीं। यह राम रथ यात्रा का ही प्रभाव था कि भाजपा की सीटें पांच साल में दो से बढ़कर 85 हो गई थी। कल्पना कीजिए कि कांग्रेस के राजीव गांधी को सत्ता से हटाने के लिए कुछ पार्टियां मिली हुई थीं और सरकार बनाने में मदद देनेवाली पार्टियों में भाजपा भी थी और कम्युनिस्ट भी। हालांकि ये दोनों सरकार में शामिल नहीं थे, लेकिन मक़सद एक ही था।
बिहार के प्रयोग
1999 के चुनाव में जनता दल के एक गुट ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को समर्थन दे दिया। जनता दल दो हिस्सों में बंटा, जिसके पहले धड़े ने एच.डी.देवेगौड़ा के नेतृत्व में जनता दल (सेक्यूलर) के रूप में खुद को अलग कर लिया। जबकि दूसरा धड़ा शरद यादव के नेतृत्व में अस्तित्व में आया। बाद में जनता दल का शरद यादव गुट, लोकशक्ति पार्टी और समता पार्टी ने आपस में विलय कर जनता दल (यूनाइटेड) पार्टी बना ली। बाद में जदयू राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल हो गया। जिसके बाद जदयू और भाजपा का गठबंधन हुआ और बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार। बनी। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू को 115 सीटें और भाजपा को 91 सीटें मिलीं। 243 में से 206 सीटों पर सफल होने पर नीतीश कुमार फिर मुख्य मंत्री बने। 2014 में जब भाजपा ने द्वारा नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार कमेटी का प्रमुख बनाया तो जदयू ने 17 साल पुराने अपने गठबंधन को तोड़ दिया। फिर जदयू भाजपा के विरोध में खड़ा हो गया। 2015 में उसने राजद और कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ा और नीतीश फिर मुख्यमंत्री बने। जुलाई 2017 में उन्होंने फिर उस गठबंधन को तोड़ दिया और दो दिन बाद फिर भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बन गए। इन सब बातों को देखें तो महाराष्ट्र में तीन दलों का मिलकर सरकार बनाना उतना अजूबा नहीं लगता। सत्ता के खेल में सभी अवसर की ताक में रहते हैं।
सत्ता ही मक़सद
अलग-अलग पार्टियों के नेता भले ही अपनी विचारधारा को लेकर कुछ भी दावे करें, असलियत यह है कि उनका लक्ष्य सत्ता पाना ही है। इसमें गलत कुछ भी नहीं है। जो विद्यार्थी परीक्षा देने बैठा हो, उसका लक्ष्य परीक्षा में अच्छे नंबर लाना ही होना चाहिए। बदलती दुनिया में मतदाताओं की प्राथमिकता भी बदल रही है। विचारधारा शायद अब उतनी प्रमुख नहीं रही है, बल्कि उसकी जगह राष्ट्रवाद ने ले ली है। वैश्विकरण ने भी राजनीतिक विचारधारा को प्रभावित किया है। ऐसे में यह मानना कि लोग 2019 में भी 1952 की विचारधारा के हिसाब से मतदान करेंगे उचित नहीं है। राजनैतिक पार्टियों ने मतदाताओं के व्यवहार को समझा है और उनके हिसाब से अपने कार्यक्रम बनाने शुरू किए हैं।
पार्टियां परिपक्व नहीं हैं अभी
यह बात सही है कि गठबंधन से निकली हुई पार्टियां अभी परिपक्व नहीं हो पाई हैं। महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना का विवाद उसकी मिसाल है। अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि इन दोनों पार्टियों के विवाद में नुकसान भाजपा को ही रहा है। अगर भाजपा 50-50 के फॉर्मूले को स्वीकार करती, तो सत्ता में होती। अभी लोग उद्धव ठाकरे की सरकार के टिकाऊपन पर सवाल कर रहे हैं। हो सकता है कि यह सरकार 5 साल न चल पाए, लेकिन अगर यह 5 साल चल गई, तो उससे भाजपा को महाराष्ट्र में निश्चित ही नुकसान होगा। कई लोग मानते हैं कि भाजपा का अड़ियल रवैया उसकी परिपक्वता का सबूत नहीं कहा जा सकता। जो शिवसेना दो सांसदों वाली भाजपा की सहयोगी रही है, वह ओर कितने दशक सहयोगी और छोटे भाई की भूमिका में रह सकती है। जानकार कहते हैं कि शिवसेना महाराष्ट्र में आखिरी दम तक भाजपा के साथ चलने को तैयार थी, लेकिन मुद्दा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर देवेंद्र फडणवीस को लेकर था। अगर किसी और नेता को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया जाता, तो शिवसेना समर्थन देने को तैयार थी। यह कहा जाता है कि मुद्दा मुख्यमंत्री का पद नहीं, बल्कि पार्टी के दबदबे का था, जो भाजपा जम्मू-कश्मीर में पीडीपी की सरकार बनाने में सहयोग दे सकती है, उसे हिन्दुत्व वाली ही दूसरी पार्टी शिवसेना से इतना परहेज क्यों था? इस विवाद में महाराष्ट्र की अस्मिता के मुद्दे ने भी अपना प्रभाव दिखाया और महाराष्ट्र के लोगों में स्थानीयता की भावना ने महत्व दिखाया।